उस वक्त रात के दस बजकर दस मिनट हो रहे थे. घड़ी के डायल का सबसे प्रचलित समय दस बजकर दस मिनट ही होता है. इस दस बजकर दस मिनट के समय की कई कहानियां हैं. कुछ कहानियां आपको सुनाते हैं. आप ये तो जानते ही हैं कि दुनिया भर में सभी घड़ियों के मशहूर ब्रांड अपनी घड़ियों को शो-रूम में इसी समय के साथ प्रदर्शित करते हैं. इसके पीछे की प्रचलित कहानियों के मुताबिक घड़ी का अविष्कार जब हुआ तब 10 बजकर 10 मिनट ही हो रहे थे. ऐसा भी कहा जाता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का जब निधन हुआ तो 10 बजकर 10 मिनट हो रहे थे. कुछ लोग नागासाकी पर हुए हमले का वक्त भी 10 बजकर 10 मिनट बताते हैं.


दिलचस्प बात ये है कि इनमें से किसी कहानी की प्रमाणिकता साबित नहीं हुई है. इससे उलट आधुनिक समय में ये ‘थ्योरी’ ज्यादा प्रचलित है कि 10 बजकर 10 मिनट का समय घड़ी के ब्रांड को अच्छी तरह दिखाता है. ऐसा इसलिए क्योंकि तब घड़ी की सुईयों का आकार ऐसा होता है कि ब्रांड का पूरा नाम अच्छी तरह दिखाई दे. इसके विरोध में तर्क ये आया कि सुईयों की यही स्थिति तो 8 बजकर 20 मिनट पर भी होती है तो 10 बजकर 10 मिनट ही क्यों?

इसका जवाब भी लाजवाब है. इसका जवाब ये दिया गया कि 8 बजकर 20 मिनट की स्थिति में सुईयों का आकार उल्टे ‘स्माइली’ यानी दुख वाले ‘स्माइली’ का होता है जबकि 10 बजकर 10 मिनट का आकार एक हंसते हुए ‘स्माइली’ का आभाष कराता है. रविवार को जब लॉर्ड्स में भारतीय महिलाओं को हार का सामना करना पड़ा तो उसमें एक हंसते हुए ‘स्माइली’ का ही अहसास था.

स्माइली का अहसास इसलिए क्योंकि पिछले करीब एक महीने में लड़कियों की इस टीम ने पूरे देश में महिला क्रिकेट को लेकर एक नया जोश भर दिया. इस बात की परवाह किए बिना कि ज्यादातर लोग अब भी महिलाओं का क्रिकेट इसलिए देखने जाते हैं कि उन्हें उनकी ड्रेस में दिलचस्पी होती है. महिला खिलाड़ियों को खेलते वक्त छेड़छाड़ का शिकार होना पड़ता है. ये बात खुद भारतीय टीम की कप्तान मिताली राज ने एक शो में बताई थी कि अपने शुरूआती दौर में मैच में उन्हें बाउंड्री पर छेड़ा जा रहा था. तब उन्होंने कप्तान से कहकर अपनी फील्डिंग की जगह बदलवाई थी.

जिस टीम के विलय को लेकर आईसीसी का डंडा ना चलता तो बीसीसीआई कभी तैयार नहीं होती. जिन खिलाड़ियों के ‘कॉन्ट्रैक्ट’ को तैयार करने में करीब दस साल का वक्त लगा हो. जिस टीम में ‘ए’ ग्रेड के खिलाड़ी को 15 लाख रूपये मिलते हों जबकि पुरूषों में ये रकम 2 करोड़ रुपये हैं. ये फर्क 15 गुना से भी ज्यादा है. ‘बी’ ग्रेड में महिलाओं को 10 लाख जबकि पुरूषों को 1 करोड़ रुपये मिलते हैं. इतनी चुनौतियों के बाद भी अगर भारतीय लड़कियों ने न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसी टीमों को धूल चटाकर ‘रनर्स-अप’  का खिताब जीता है तो इस उपलब्धि का हर तरफ बखान होना चाहिए.

कुछ गलतियां हमारी लड़कियों से जरूर हुईं. जाहिर है कि गलतियां ना हुई होतीं तो आज विश्व चैंपियन का खिताब इनके पास होता, लेकिन उन गलतियों को दूर करने के लिए उनके साथ साथ खेल प्रेमियों को भी मेहनत करनी होगी. ये बात सुनिश्चित करनी होगी कि इन लड़कियों को भी ‘स्टार’ का दर्जा मिले. इन लड़कियों के चेहरे भी विज्ञापनों में नजर आएं. इन लड़कियों को भी ‘ब्रांड एम्बेसडर’ बनाया जाए. इनके मैचों को भी देखने के लिए फैंस स्टेडियम में पहुंचे. इनके साथ भी तस्वीरें खिंचवाने और ऑटोग्राफ लेने की होड़ हो.

ऐसा कतई नहीं है कि इन बातों से किसी खिलाड़ी के खेल का स्तर बढ़ जाता है, लेकिन इन बातों से खिलाड़ी को अपनी ‘कीमत’ पता चलती है. उसे पता चलता है कि देश उसे कितना प्यार करता है. उसे पता चलता है कि उसके लिए करोड़ो लोग दुआएं करते हैं. ये बातें आत्मविश्वास बढ़ाती हैं. भूलिएगा नहीं कि अभी हाल ही में ओलंपिक में पीवी सिंद्धू, साक्षी मलिक और दीपा करमाकर ने ऐसी ही कामयाबियां बटोरी थीं.