एक संन्यासी जब देश के सबसे बड़े सूबे की सत्ता को पांच साल तक अपने लिहाज से ठीकठाक चला ले और फिर दोबारा वह लोगों के बीच वोटों की भिक्षा मांगने निकल पड़े तो सवाल उठना वाजिब भी बनता है कि एक योगी को आखिर सत्ता के सिंहासन से इतना मोह क्यों है? इसका जवाब तलाशने के लिए हमें यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरुओं के भी गुरु का इतिहास थोड़ा खंगालना पड़ेगा.


योगी आदित्यनाथ लोकसभा में जाने औऱ पांच साल पहले यूपी का मुखिया बनने से पहले ही नौ नाथ की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले महायोगी गुरु गोरखनाथ की गद्दी संभाल चुके थे. वैसे 'नाथ' शब्द का अर्थ होता है- स्वामी. भारत में नाथ-योगियों की परंपरा बहुत प्राचीन रही है और नाथ समाज को आज भी हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग माना जाता है. भगवान शंकर को आदिनाथ और दत्तात्रेय को आदिगुरु माना जाता है. इन्हीं से आगे चलकर नौ नाथ और 84 नाथ सिद्धों की परंपरा शुरू हुई.


यूपी में जिस गुरु गोरखनाथ के नाम पर गोरखपुर शहर बसा हुआ है, उनके गुरु थे मत्स्येंद्रनाथ, जिन्हें हठयोग का परम गुरु माना जाता है और जिन्हें मच्छरनाथ भी कहते हैं. उनकी समाधि मध्यप्रदेश के उज्जैन में देवी गढ़कालिका मंदिर के पास स्थित है, जहां हर साल उनका जन्मोत्सव बेहद धूमधाम से मनाया जाता है.


लेकिन सवाल उठता है कि फिर गोरखनाथ के एक शिष्य को आखिर राजनीति की राह क्यों पकड़नी पड़ी? इसके जवाब बहुतेरे हो सकते हैं लेकिन योगी आदित्यनाथ ने तो यही कहा है कि, "जब मुझे लगा कि यूपी का राज सिर्फ माफिया ही चला रहे हैं,तो मुझे धर्म के इस भगवा चोले के साथ राजनीति की शॉल ओढ़ने का भी सहारा इसलिये लेना पड़ा कि इसके सिवा कोई दूसरा विकल्प नहीं था." वैसे भी गीता में महाभारत युद्ध के प्रसंग का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि जब भी धर्म की हानि होने लगे,तब हथियार उठाना कदापि अनुचित नहीं है. लिहाज़ा, कलयुग के दौर में उस हथियार को हम राजनीति भी कह-मान सकते हैं क्योंकि देश व समाज को दिशा-दशा देने के संचालन की डोर उसके हाथ में ही है. उस लिहाज़ से संन्यासी योगी के राजनीति -अखाड़े में  कूदने को सही या गलत साबित करने का कोई पैमाना आप या हम तय नहीं कर सकते क्योंकि धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है, जबकि राजनीति में लोगों का दिया गया वोट ही बहुमत का फैसला करता है. लेकिन अब योगी आदित्यनाथ ने ऐलान कर दिया है कि वे इस बार विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे. यह उनका पहला विधानसभा का चुनाव होगा क्योंकि वे अभी तक यूपी विधाम परिषद का सदस्य बनकर ही सीएम का पद संभाले हुए हैं. हालांकि वे अपने गुरु महंत अवैद्यनाथ की परंपरागत गोरखपुर सीट से पांच बार लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद में अपने भगवा एजेंडे की गूंज पहले ही सुना चुके हैं. लेकिन उनके इस ऐलान के बाद सियासी गलियारों में ये सवाल गरमाया हुआ है कि वे इस बार विधानसभा का चुनाव कहाँ से लड़ेंगे?


वैसे तो कयास यही लगाए जा रहे हैं कि वे अपना पराम्परागत गढ़ यानी गोरखपुर की ही किसी सीट को चुन सकते हैं क्योंकि पूर्वांचल का किला बचाये रखना इस बार बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती है.लेकिन अटकलें ये भी लगाई जा रही हैं कि वे श्री कृष्ण की जन्मस्थली मथुरा का रुख भी कर सकते हैं क्योंकि वे इसके जरिये उस वेस्ट यूपी को साधने की कोशिश कर सकते हैं,जहां बीजेपी को लगता है कि किसान आंदोलन ख़त्म होने के बावजूद सियासी माहौल उसके पक्ष में उतना नहीं दिखाई दे रहा,जिसकी उसे उम्मीद थी.


हालांकि योगी आदित्यनाथ किस सीट से चुनाव मैदान में उतरेंगे इस पर अभी अंतिम फैसला नहीं हुआ है. इस सवाल के जवाब में योगी ने यही कहा है कि " ये पार्टी तय करेगी कि वो कौन सी सीट से चुनाव मैदान में उतरेंगे." वे यही बात इससे  पहले भी दोहरा चुके हैं. लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि योगी अपनी पार्टी के मजबूत गढ़ समझे जाने वाले पूर्वांचल को छोड़ किसी ऐसे क्षेत्र की सीट से चुनाव-मैदान में उतर सकते हैं,जिसे बीजेपी अपने लिए कमजोर मान कर चल रही है.इसकी वजह ये है कि जब मौजूदा मुख्यमंत्री किसी सीट से चुनाव लड़ता है,तो आसपास की डेढ-दो दर्जन विधानसभा सीटों पर उसका असर पड़ना स्वाभाविक है.लिहाज़ा,सियासी रणनीति तो यही कहती है कि उन्हें ऐसे इलाके से चुनाव लड़कर पार्टी की स्थिति मजबूत करना चाहिए ,जहां फिलहाल उसके हालात दूसरे नंबर की हैसियत वाले हैं.वैसे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 29 अक्तूबर को लखनऊ में बीजेपी के सदस्यता अभियान की शुरुआत करते हुए ये साफ कर दिया था पार्टी 2022 का चुनाव योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर ही लड़ेगी.लेकिन सियासी सच ये भी है कि यूपी के किले को बचाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर पार्टी के तमाम बड़े नेता व केंद्रीय मंत्री अपनी जितनी ताकत झोंक रहे हैं,उसे भी अभूतपूर्व ही समझा जायेगा.


वैसे यूपी की सियासी नब्ज़ समझने वाले जानकार मानते हैं कि योगी आदित्यनाथ के लिए सबसे सुरक्षित समझी जाने वाली सीट तो गोरखपुर (शहर) की ही है.क्योंकि पिछले तीन दशक में बीजेपी इस सीट से कभी नहीं हारी है.हालांकि योगी आदित्यनाथ जिस गोरखनाथ मंदिर के महंथ हैं, वह क्षेत्र गोरखपुर (ग्रामीण) विधानसभा सीट में आता है और यह सीट परिसीमन के बाद 2009 में ही अस्तित्व में आई है. लिहाज़ा,ये दोनों सीटें योगी के लिए सबसे अधिक सुरक्षित मानी जाती हैं.लेकिन यूपी में स्थानीय स्तर पर अंदरुनी गुटबाजी की भी अपनी एक अलग ही राजनीति है और बीजेपी भी इससे अछूती नहीं है.इसलिये जानकार मानते हैं कि


गोरखपुर (शहर) की सीट से वर्तमान विधायक डॉक्टर राधामोहन दास अग्रवाल का टिकट काटकर वहां से योगी को चुनाव लड़ाने का फैसला थोड़ा पेचीदा बन सकता है. बताते हैं कि संघ की शाखा के रास्ते राजनीति में आए डॉक्टर अग्रवाल 2002 में हिंदू महासभा के टिकट पर चुनाव जीते थे. एक समय उन्हें योगी आदित्यनाथ का सबसे करीबी माना जाता था लेकिन सियासत में बहुत कम ही रिश्ते ऐसे होते हैं,जो हमेशा एक जैसे बने रहते हुए दिखते भी हों. लिहाज़ा,रिश्तों में आई उस कड़वाहट से भी गोरखपुर के लोग अनजान नहीं हैं.चूंकि डॉ.अग्रवाल की पृष्ठभूमि संघ की है,तो जाहिर है कि अपने क्षेत्र में उनकी छवि भी एक बेदाग नेता की है,इसलिये उनका टिकट काटकर बीजेपी भला कोई जोखिम मोल क्यों लेना चाहेगी?


वैसे इस तथ्य को भला कौन नकार सकता है कि यूपी की पूरी चुनावी राजनीति का मुख्य आधार जातियां ही हैं,जो ये तय करती हैं कि पांच साल बाद सत्ता की चाबी किस पार्टी के हाथ में थमाना है.लेकिन ये उसके बिल्कुल उलट है,जो भारत के संविधान निर्माता कहलाने वाले डॉ.भीमराव आंबेडकर ने वर्षों पहले अपनी किताब 'फ़िलॉसफ़ी ऑफ हिंदूइज़्म' में जातिवाद का विरोध करते हुए लिखा था कि, "जाति व्यवस्था एक कई मंजिला इमारत जैसी होती है जिसमें एक मंजिल से दूसरी मंजिल में जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं होती है." लेकिन हक़ीक़त ये है कि यूपी में जातीय संतुलन बैठाये बगैर सत्ता की चौखट तक पहुंचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है.इसलिये ये देखना दिलचस्प होगा कि इस सियासी महाभारत में एक संन्यासी अपने लिए कहाँ से मांगते हैं वोटों की भिक्षा?


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