उत्तर प्रदेश में पहले चरण का मतदान हो गया है और राजनीतिक पंडित माथापच्ची में लगे हुए हैं कौन पार्टी जीतने वाली है और कौन हारने वाली है लेकिन ये खेल आसान नहीं है. अब चुनाव का खेल बदल गया है. चुनाव के पहले चरण से हवा नहीं लगती है बल्कि आखिरी फेज तक चुनावी गणित को समझने के लिए इंतजार करना पड़ता है. इसका जीता जागता उदाहरण खुद उत्तरप्रदेश ही है. उत्तरप्रदेश में चाहे लोकसभा 2014 का चुनाव हो, विधानसभा 2017 का चुनाव हो या हो लोकसभा 2019 का चुनाव, उल्टी हवा चली.


कभी जो सपने में नहीं सोचा होगा वही हुआ और सारे चुनावी गणित फेल हो गये थे. जाहिर है कि उत्तरप्रदेश के चुनाव पर देश की नजरें टिकी हुई हैं. चाहे राजनीतिक दल हो, या हो राजनीतिक पंडित जोड़ घटाव में लगे हुए हैं- क्या है राजनीति समीकरण, क्या है जाति की गुत्थी और क्या है वोट में धर्म का बंधन. ये क्रिक्रेट की तरह चुनाव की सात दिवसीय जंग है.  एक दिवसीय चुनाव होने पर फाइनल जीत और हार के पैमाने पर तौलना मुश्किल है.


उत्तरप्रदेश की राजनीति समझने से पहले बिहार की राजनीति समझने की जरूरत है. उत्तरप्रदेश की राजनीति बिहार की राजनीति मिलती जुलती है. बिहार विधानसभा 2020 में आरजेडी की खूब हवा थी, लग रहा था कि इस बार नीतीश कुमार की विदाई तय है लेकिन ऐसा नहीं हुआ. आरजेडी के मुख्यमंत्री चेहरा तेजस्वी यादव अपने ही गढ़ में हार गये, वहां हारे जहां पर मुस्लिम और यादव मतदाता भारी संख्या में है. चुनावी हवा के मुताबिक ही आरजेडी पहले फेज में सबसे आगे थी, आरजेडी गठबंधऩ को 47 सीटें और एनडीए को सिर्फ 22 सीटें मिली. जो वोटर नीतीश से नाराज थे और नीतीश को हराना चाहते थे लेकिन जब ये खबर आग की तरफ फैली कि बिहार में आरजेडी सरकार आने वाली है तो नीतीश और बीजेपी से नाराज वोटर भी बदलने लगे और पलटने भी लगे.


पहले फेज के बाद बीजेपी ये खबर फैलाने में लग गई अगर आरजेडी की सरकार फिर से आती है तो बिहार फिर जंगलराज बन जाएगा. बिहार में दूसरे फेज में हवा बदलने लगी और एनडीए को 52 और आरजेडी गठबंधऩ को 41 सीटें मिली. पहले और दूसरे फेज को मिलाकर आरजेडी आगे चल रही थी लेकिन तीसरे फेज में तस्वीर बदल गई. रोम तोप का और मधेपुरा गोप वाले इलाके और सीमांचल में तेजस्वी के खिलाफ उल्टी हवा शुरू हो गई. ये इलाका मुस्लिम और यादव का गढ़ माना जाता है .उसी गढ़ में आरजेडी को जबर्दस्त झटका लगा. तीसरे फेज में आरजेडी गठबंधन यानि महागठबंधऩ को सिर्फ 22 सीटें और एनडीए को 51 सीटें मिली. सपने में नहीं कोई नहीं सोचा होगा सीमांचल में ओवैसी की पार्टी खाता खोलेगी वहां उनकी पार्टी 5 सीटों पर जीत गई. ऐसे में पहले फेज के आधार पर ये आकलन लगाना मुश्किल है उत्तरप्रदेश में कौन जीतेगा और कौन हारेगा?


क्या है उत्तरप्रदेश में हार जीत का खेल?


चुनाव साइंस भी है और आर्टस भी है. चुनावी गणित के अपने फॉमूले हैं. जहां एक जोड़ एक हमेशा दो नहीं होता है, कभी शून्य भी होता है, कभी दो भी होता है, कभी एक भी होता है और कभी ग्यारह भी हो जाता है. उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हराने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव जमकर मेहनत कर रहे हैं.  योगी को टक्कर देने के लिए मजबूत गठबंधऩ भी बनाया है, इस बार बड़ी पार्टियों से नहीं बल्कि अलग अलग इलाकों में छोटी छोटी पार्टियों से गठबंधन किया है. वहीं पश्चिमी उत्तरप्रदेश में किसान बिल की वजह से जाट मतदाता नाराज माने जाते हैं. कहा जा रहा है कि पिछले चुनाव की तुलना में बीजेपी को इस बार नुकसान होगा लेकिन कितना नुकसान होगा ये कहना मुश्किल है. ये नुकसान बड़ा भी हो सकता है और छोटा भी हो सकता है, इसका सूक्ष्म आकलन करना बेहद मुश्किल है क्योंकि कहीं पर ज्यादा मतदान हुआ और कहीं पर कम.


कौन वर्ग ज्यादा वोट किया और कौन कम किया? क्या मुस्लिम वोटर बंटे या नहीं बंटे? औवेसी का फैक्टर फेल हुआ या पास हुआ?ध्रुवीकरण हुआ या नहीं?  महिलाएं का वोट किधर गया? किस जाति के प्रवासी वोटर ज्यादा है जो मतदान में भाग नहीं लेते हैं. एक तरह महंगाई, किसान बिल, किसान की नाराजगी, बेरोजगारी और अखिलेश-जयंत का गठबंधन है तो दूसरी तरह कानून व्यवस्था बेहतर करने की बात है, सामाजिक कल्याण योजना का फायदा है, मुफ्त अनाज है, गन्ने किसान की बेहतरी का मुद्दा है, दंगा नहीं होने की बात है,भ्रष्ट्राचार मुक्त की बात है, हिंदुत्व की राजनीति की बात है. ऐसी स्थिति में सारे फैक्टर एक पार्टी के समर्थऩ में चले जाते हैं तो कुछ भी हो सकता है लेकिन इन फैक्टरों में उतार चढ़ाव हुए तो आधी- आधी भी हो सकती है. ये चुनाव क्रिक्रेट टेस्ट सीरीज की तरह है, चुनाव के इस सात दिवसीय सीरीज में आखिरी बाजी कौन मारता है ये सवाल बना हुआ है, अगर 6 चरणों के चुनाव तक कड़ी टक्कर रही तो फाइनल मुकाबला सातवें चरण में होगा जैसा बिहार में हुआ.


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