यूपी और बिहार की सियासी इतिहास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि राजनीतिक इतिहास यहीं से बनते हैं. सियासत में जो दिखता है वह बिल्कुल नहीं होता, ये अक्सर सियासी गलियों में आप सुनते रहे होंगे, फिलहाल यूपी के विधानसभा चुनाव में भी वही हो रहा है. हर जगह सूबे के सीएम अखिलेश यादव 'विजयी मुस्कान' लेकर घूम रहे हैं, आखिरकार परिवार और पार्टी दोनों पर फतह हासिल किये हैं. इतना ही नहीं राहुल गांधी के साथ पिक्चर परफेक्ट पोज के साथ केंद्र को संदेश देने वाली सियासत दिखा रहे हैं. सपा ने दो सीटों को छोड़कर रायबरेली और अमेठी की सभी सीटें कांग्रेस को दीं. सिर्फ अमेठी और उंचाहार सीटें छोड़ीं. रायबरेली में सपा ने 6 में से पांच सीटें जीती थीं. एक ऊंचाहार को छोड़कर बाकी कांग्रेस को दीं. अमेठी में सपा ने चार में दो सीटें जीती थीं, एक अमेठी को छोड़कर बाकी कांग्रेस को दीं. अब आप सोचिए जब अमेठी से निर्दल के रूप में कांग्रेस के संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह खुद लड़ रही है तो एक तरह वो कांग्रेस की अघोषित उम्मीदवार ही हैं और अखिलेश समर्थित सपा का काडर गायत्री प्रजापति के बजाए अमिता को चुनेगा. सपा के टिकट पर गायत्री प्रजापति चुनाव मैदान में हैं. गायत्री मुख्यमंत्री के बजाए पिता मुलायम सिंह की पसंद हैं. जब गठबंधन के दौरान सभी कांग्रेस को मजबूर बता रहे थे उस वक्त भी प्रियंका ने अपने मजबूत इरादों से अपनी हर वह बात मनवा ली जो वह चाहती थीं. 105 सीटें झटक लीं जबकि मुलायम और शिवपाल अप्रत्यक्ष रूप से कह रहे हैं कि 45 से 50 सीट से अधिक की कांग्रेस की हैसियत नहीं थी. अखिलेश कांग्रेस के 'ट्रैप' में फंस चुके हैं. खैर.. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आखिरकर अमेठी और रायबरेली की सभी सीटों के लिए प्रियंका गांधी क्यों अड़ी थीं? जनवरी मध्य में प्रशांत किशोर ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि यदि अमेठी और रायबरेली की सभी सीटों पर हम अपना प्रत्याशी नहीं उतारेगें तो 2019 में अमेठी राहुल गांधी के 'हाथ' से निकल सकता है. स्मृति ईरानी को केंद्र सरकार के हर मंत्रालय से वहां समर्थन मिल रहा है ताकि राहुल गांधी को या तो अमेठी में बांध दो या उन्हें हराकर पूरे देश में संदेश दिया जा सके. बस इसी वजह से प्रियंका गांधी अड़ी हुई थीं. आज आखिरकार सपा से अपने खाते में टिकट झटक लीं. पूरे देश की नजर यूपी के विधानसभा चुनाव पर है. क्योंकि सभी को पता है दिल्ली की गद्दी का रास्ता यूपी होकर ही जाता है. उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों का किसी भी अन्‍य पार्टी से ज्‍यादा इंतजार कांग्रेस को है. मैं सियासी समीकरण के बजाए कुछ तथ्यों पर बात करूंगा. 1989 से यूपी की सत्ता से बाहर कांग्रेस ने जातिगत और धार्मिक मोर्चे पर भी अपना मतदाता खो दिया है. सोचिए जिस प्रदेश से 80 सांसद और राज्‍यसभा के 31 सांसद आते हों वहां से कांग्रेस कैसे इस स्तर तक रसातल में पहुंच गई? इसके लिए आपको 1989 से 1996 के यूपी के सियासी उठापटक पर गौर करना होगा. इस पर गहन जानकारी फिर कभी. मोटा मोटी ये जानिए कि मुलायम जब चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह को पटकनी दे रहे थे तो उस वक्त कांग्रेस के दिग्गज नेता एनडी तिवारी ने ही रास्ता तैयार किया. मुलायम ने मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली. एनडी तिवारी जिसे अखाड़े का पहलवान समझे और हल्के में आंका उसने कारसेवकों पर गोली चलवा कर सियासी धोबिया पछाड़ ऐसा मारा कि कांग्रेस बुरी तरह चित हो गई. बीएसपी के साथ गठबंधन करके मुलायम ने एक बार फिर कांग्रेस के जड़ में मठ्ठा डाल दिया. फिर गेस्ट हाउस कांड होता है. कांग्रेस को रास्ता मिला लेकिन नरसिम्हा राव ने मायावती के साथ गठबंधन करने में कुछ ज्यादा ही दरियादिली दिखा दी जिसका असर हुआ कि कांग्रेस का वोट बैंक मुसलमान जो पहले ही सपा ने छीन लिया फिर बचे दलितों को मायावती ने झटक लिया. जब कांग्रेस कमजोर होती गई तो ब्राह्मण भी छिटक लिये. प्रियंका गांधी और मुलायम सिंह यादव दोनों ही इस बात को बखूबी समझ रहे हैं लेकिन अखिलेश इस मामले में 'सियासी बबुआ' बन गये हैं. मुलायम को पता है कि बीजेपी के मजबूत होने से सपा को नुकसान नहीं है लेकिन कांग्रेस मजबूत होगी तो संकट सिर्फ सपा के लिए है. 11 मार्च राहुल गांधी का नहीं, प्रियंका का भविष्य तय करेगा? कैसे काम करती है प्रियंका गांधी की टीम? क्या है प्रियंका की चुनावी चाल? अब आंकड़ों की जुबानी कुछ तथ्य देखिए. यूपी की 80 में से 71 सीटें बीजेपी की उल्लेखनीय उपलब्धि थीं लेकिन उत्तर प्रदेश में भी 15 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस सबसे आगे रही थी. अब कांग्रेस की रणनीति समझिए क्या है? कांग्रेस अपनी 105 सीटों में 43 से 46 सुरक्षित सीटों पर लड़ेगी. कांग्रेस के रणनीतिकार अखिलेश को यह समझाने में सफल हो गये हैं कि दलित सपा के बजाए हमारे साथ ज्यादा सहज हैं और यहां हमें सवर्ण वोटर पसंद करेंगे. इसलिए हमारी जीतने की संभावना अधिक है. अखिलेश इसी ट्रैप में आ गये है. अब कांग्रेस इन्हीं सुरक्षित सीटों पर सबसे ज्यादा फोकस कर रही है. यहां वह मुसलमान, दलित और सवर्ण को एक बार फिर अपने सिंबल की पहचान करा रही है. अपने पाले में खिंचने की कोशिश कर रही है. जो नरसिम्हा राव ने मायावती को 1996 में रास्ता दिया वही गलती अखिलेश कांग्रेस को रास्ता देकर कर रहे हैं. सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के रणनीतिकार करीब 100 ऐसे मुस्लिम संगठनों को अपने पाले में कोशिश करने में जुटे हैं. जो जमीन पर आम गरीब मुसलमानों के बीच काम करते हैं. वह बड़े मुस्लिम चेहरों के बजाए इन संगठनों के जरिए सुरक्षित सीटों पर और कांग्रेस जहां से चुनाव लड़ रही है उन सीटों पर अपने लिए समर्थन मांग रहे हैं. कांग्रेस के अपने आंतरिक सर्वे में इन्हीं सुरक्षित सीटों पर सबसे अधिक सफलता के चांस दिख रहे हैं. सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस के रणनीतिकार कतई नहीं चाहते हैं कि अखिलेश बेहद मजबूती से उभरें. इसकी दो वजह है. पहली वजह यह है कि जब परिवार की लड़ाई चरम पर थी उस वक्त भी कांग्रेस अखिलेश के साथ थी और अखिलेश ने 138 सीट देने का वादा किया था. साइकिल चुनाव चिन्ह मिलते ही पलट गये. काफी खिंचतान के बाद 105 सीटें मिलीं. बस इसीलिए कांग्रेस की रणनीति खुद को ज्यादा से ज्यादा मजबूत करके 2019 में लोकसभा की 35 सीटों को सपा से झटकने की है. यदि लोकसभा के दौरान सपा नहीं मानेगी तब मुसलमानों के बीच कांग्रेस के मजबूत होने का संदेश विधानसभा में गया ही रहेगा. मुसलमान केंद्र में कांग्रेस का समर्थन कर देंगे. यह कांग्रेस के रणनीतिकार उम्मीद कर रहे हैं. 2019 की लड़ाई की बिसात यूपी में अभी बिछ रही है. लेखक से फेसबुक पर जुड़ें https://www.facebook.com/prakash.singh.3363 ट्वीटर पर जुड़ें- https://twitter.com/prakashnaraya18 नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आकड़ें लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.