मौर्य साम्राज्य ने भारत के बड़े भूभाग पर 137 वर्ष ( ईसापूर्व 322 से ईसापूर्व 185 ) तक शासन किया, जिसमें सबसे प्रतापी शासक सम्राट अशोक थे. उन्होंने सबसे अधिक 37 साल तक लगभग पूरे भारत पर जिसमें अफगानिस्तान तक की सीमा थी, शासन किया. वह बौद्ध मत को मानने वाले थे और उन्होंने अपने राज्य में सभी जगह अपने शासनादेश पत्थरों पर विविध रूपों में उत्कीर्ण कराये. लेकिन यह विडंबना थी कि न तो लगभग दो सौ साल पहले तक उनके राज के बारे में और न ही उनके शिलालेखों के बारे में किसी को कोई जानकारी थी.
लोग उस लिपि को भी भूल गए थे जिसमें अशोक ने अपने धर्म और शासनादेश खुदवाए थे. मौर्य साम्राज्य के पतन के लगभग छह सौ साल बाद चीनी यात्री फाह्यान भारत आया तो उसने अशोक के अनेक लेख देखे थे, लेकिन उन्हें पढ़ने वाला कोई नहीं था जो बताता कि इनमें क्या लिखा गया है. उसे अटकलबाजी पर ही बताया गया कि इसमें क्या लिखा है. इसलिए उसने उनके गलत अनुवाद लिखे.
यही बात ह्वेनच्वांग के साथ हुई. फिरोजशाह तुगलक जब टोपरा के स्तंभ को दिल्ली लाया तो उस पर लिखी इबारत पढ़ने वाला कोई भी देश में नहीं था. अकबर की भी कोशिश नाकाम रहीं और कोई नहीं बता सका कि इस पर क्या लिखा है.
हमें अंग्रेजों का आभारी होना चाहिए कि उन्होंने अशोक के अभिलेखों को खेाज निकाला और उन्हें पढ़ने की कोशिश की और अंत में 1837 में इसमें सफलता पाई. इन शिलालेखों का पता लगाने की अलग-अलग कहानी है और कई बार तो अंग्रेज अधिकारियों को जान का जोखिम तक उठाना पड़ा. एक अधिकारी की तो हत्या तक कर दी गई.
सबसे पहले 1750 में एक पादरी टीफनथेलर ने दिल्ली में दिल्ली-मेरठ स्तंभ के टुकड़े देखे थे. उस पर लिखी इबारत देख उन्हें लगा कि यह कोई महत्वपूर्ण लेख है. 1785 में जेएच हेरिंगटन ने बराबर और नागार्जुनी पहाडि़यों की गुफाओं में अभिलेख देखे. इसके पहले हीजेज वहां गए थे. लेकिन चेतसिंह के मित्र राजा ने उनकी हत्या कर दी थी. उसी साल दिल्ली टोपरा स्तंभ के कैप्टन पोलियर ने खेाज की और इसके कुछ रेखाचित्र सर विलियम जोंस को दिए.
1822 में मेजर जेम्स टाड को गिरनार शिलालेख मिला. अब इस पर लिखी इबारत पढ़ने की कोशिश भी हुई. लेकिन जेम्स प्रिंसेप तब तक मात्र आ, ए की मात्रा और अनुस्वार का ही अनुमान कर सका. 1836 में महाराजा रणजीत सिंह के एक फ्रांसीसी अधिकारी एम. ए. कोर्त ने शाहबाजगढ़ी का लेख खोजा. धौली के अभिलेख की खोज लेफ्टिनेंट किट्टो ने 1937 में की. वह वहां दो बार गया.
पहली बार गुफा में दो भालू थे जिन्हें उसने गोली मार दी. दूसरी बार जब वह वहां गया तो वहां उसी भालू के बच्चे कब्जा किए हुए थे. किसी तरह उन्हें भगा कर अभिलेख की प्रतियां बनाई गईं. एक आश्चर्य की बात यह भी है कि सातवें दशक से पहले रूपनाथ के लघु शिलालेख की खोज कर्नल एलिस के नौकर ने की थी. उसी ने इसकी नकल तैयार कर बंगाल एशियाटिक सोसायटी को उपलब्ध कराई थी.
1860 में जब कालसी के शिलालेख की खेाज हुई तो उस पर काई जमी हुई थी, जिसे साफ करने के बाद ही उसकी प्रति बनाई गई. अब तक इन लेखों में काफी को पढ़ा जा चुका था. 1837 में जेम्स प्रिंसेप ने सांची के अभिलेखों में ‘दानं’ शब्द को पहचाना और उसके बाद अन्य वर्ण पहचाने गए. एक विडंबना यह भी है कि अशोक की राजधानी पाटलिपुत्र (आज का पटना) से उसका एक भी अभिलेख अभी तक नहीं मिला है.
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