देश में लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और महज एक सप्ताह बाद प्रथम चरण के लिए वोट डाले जाएंगे. प्रधानमंत्री मोदी पूरे देश में घूम-घूमकर भाजपा का प्रचार कर रहे हैं, अपने लिए तीसरी बार मौका मांग रहे हैं. पांच अप्रैल को इसी बीच कांग्रेस का घोषणापत्र आया है और उसके बाद से पीएम मोदी उसी के बहाने कांग्रेस पर खासे हमलावर हैं. वह आजकल कांग्रेस के घोषणापत्र पर अपनी रैलियों में भी पलटवार कर रहे हैं. यूपी की एक जनसभा के अलावा बिहार के नवादा की रैली में भी पीएम मोदी ने कांग्रेस के घोषणा पत्र पर हमला बोला और कहा कि इसका एजेंडा आजादी के समय के 'मुस्लिम लीग' वाला है और इससे तुष्टीकरण की बू आती है.


पीएम का एक तीर से दो निशाना


पीएम ने घोषणापत्र को लेकर सिर्फ मुस्लिम लीग की ही बात नहीं की, बल्कि उन्होंने कहा कि इस घोषणापत्र पर मुस्लिम लीग और लेफ्ट दोनों की मुहर लगी हुई दिख रही है. इस तरह से मोदी ने एक तीर से दो निशाना साधा है. इसके जरिए उन्होंने मुस्लिम लोग और वामपंथ दोनों को ही घेरा है. घोषणापत्र पर इनको घेरने के अलावा भाजपा के कोर वोटर को एक मैसेज देने की कहीं न कहीं कोशिश की है.


हालांकि, पीएम मोदी ने ये बातें जिन जगहों पर कही हैं वो राजनीतिक नजरिेए से देखें तो गलत है. सहारनपुर और नवादा, इन दोनों जगहों की रैली में पीएम मोदी ने ये बातें कहीं, लेकिन सहारनपुर और नवादा के क्षेत्र में, इन दोनों जगहों पर मुस्लिम की आबादी ठीक-ठाक है. अगर पीएम मोदी के बयान को लेकर ये कहा जाए कि इसका सीधे तौर पर नकारात्मक असर होगा, तो ऐसा बिल्कुल नहीं है, बल्कि लोगों के अंदर ये प्रेरणा जागेगी कि एक बार कांग्रेस के घोषणा पत्र को देखना चाहिए कि ऐसा उसमें क्या है जिससे कि देश के प्रधानमंत्री को ऐसा बोलना पड़ रहा है.  


सियासी हमले पर सवाल 


प्रधानमंत्री के द्वारा कांग्रेस पर घोषणापत्र के मार्फत जो आरोप लगाया गया है, उसका जवाब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने दिया है. पीएम मोदी ने आजादी के समय के मुस्लिम लीग की बात कही है. अगर लोग इतिहास को जानते होंगे तो इससे सहमत होंगे कि आजादी के समय में मुस्लिम लीग तो हिंदू महासभा के साथ नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस, बंगाल में सरकार बना चुकी थी. हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों ने मिलकर एक साथ चुनाव लड़ा था. आजादी के समय में हिंदू महासभा को मुस्लिम लीग से राजनीतिक रूप से कोई दिक्कत गठबंधन करने में नहीं थी. इन तथ्यों को देखें और इसको समझा जाए तो ये दांव कहीं न कहीं भाजपा के खिलाफ ही जा सकता है. प्रधानमंत्री को कांग्रेस के पूरे घोषणापत्र को पढ़ना चाहिए था.


हालांकि, कांग्रेस का घोषणा पत्र काफी लंबा है और काफी कन्फ्यूजन भरा है. उन्होंने उसे कुछ शब्दों में संक्षिप्त कर दिया, समास-शैली में सीमित कर दिया. फिर भी उसे पढ़कर कोई निष्कर्ष निकालना चाहिए था, ऐसे में बिना पढ़े कोई तथ्य लाना गलत कदम भी साबित हो सकता है. भाजपा अपने कोर वोटर्स को लुभाने के लिए यह कदम उठा रही है, लेकिन इससे उसको नुकसान का भी खतरा है. 


जम्मू कश्मीर का मुद्दा और कांग्रेस 


कांग्रेस के घोषणा पत्र को देखें तो जम्मू कश्मीर का जो मसला है, वो भाजपा के लिए कमजोर नस सरीखा है. उसी वजह से पीएम मोदी ज्यादा हमलावर है. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाने का जिक्र बीजेपी पिछले चार दशक से करती आई है. वो उसके घोषणा पत्र का हिस्सा था, भाजपा ने उसे पूरा भी किया. समान आचार संहिता, राम मंदिर और जम्मू-कश्मीर का मुद्दा था. हालांकि, मंदिर के मामले में कोई कुछ नहीं बोल सकता, मंदिर सबकी आस्था का केंद्र है. न्यायालय से फैसला आया है, तो उस पर बोलना भी नहीं चाहिए. जम्मू कश्मीर के संदर्भ में राज्य का दर्जा जो बहाल करने की बात घोषणापत्र में कांग्रेस ने की है, कहीं न कहीं भाजपा के लिए चुनाव में कैंपेन करने का एक मुद्दा हो सकता है.


कांग्रेस के घोषणा पत्र में मणिपुर की सरकार को हटाकर एक जांच बैठाने की बात कही है. पीएम के मणिपुर का एक दौरा ना करने की बात उठाई गई है. ये कहीं न कहीं भाजपा के लिए छूने वाली बातें हैं. कांग्रेस का घोषणापत्र काफी बड़ा है, लेकिन भाजपा और पीएम ने उनमें से काफी कम प्वाइंट को अपने हिसाब से चुना है और हो सकता है कि हिंदू वोटरों के लिए ये एक मुद्दा हो सकता है. यकीनन देखा जाए तो जल्दी कोई भी 48 पन्ने का बना घोषणा पत्र नहीं पढ़ेगा, लेकिन जहां पर पीएम ने भाषण के दौरान ये बातें कहीं है उन जगहों पर मुस्लिम मतदाताओं में एक रोष देखने को मिल सकता है. हालांकि, ये सभी जानते हैं कि मुस्लिमों के भाजपा के लिए वोट करने और ना करने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता है. इस बात को लेकर कोई राजनीतिक बड़ा मुद्दा बनता हुआ दूर-दूर तक नहीं दिख रहा है. वैसे, कांग्रेस की एक कमजोरी देखने को मिली है कि वो घोषणा पत्र को लेकर फोकस नहीं कर पाई है, बहुतेरे मुद्दे और ढेर सारे वायदे उसने कर दिए हैं. इससे मुद्दे को जनता के बीच लेकर जाने में दिक्कत हो सकती है.


घोषणापत्र अब केवल औपचारिकता 


घोषणापत्र किसी भी दल के एक सामाजिक कार्यक्रम का एक दस्तावेज होता है. वो राजनीतिक एक्शन का दस्तावेज नहीं होता है. घोषणा पत्र में जो भी राजनीतिक बातें की गई है उसमें सरकार को बर्खास्त करना, दल बदलने वाले नेताओं पर कार्रवाई करना, या एजेंसियों को 'दायरे में लाना', ये सब राजनीतिक फैसले हैं. ऐसी बातों का जिक्र घोषणापत्र में करने की परंपरा भारत में नहीं रही है.


घोषणापत्र एक तरह का कॉन्ट्रैक्ट यानी अनुबंध होता है. इसके तहत नागरिकों के कल्याण की बात करने की होती है. इसमें जनकल्याण से संबंधित बातें होती हैं. कांग्रेस के घोषणा पत्र में 'पॉलिटिकल कमेंट्री' कहीं न कहीं भारी पड़ती हुई दिख रही है. ये घोषणापत्र सामाजिक दस्तावेज की जगह अब राजनीतिक दस्तावेज बनता हुआ दिख रहा है. इस पर कांग्रेस के घोषणापत्र कमेटी को ध्यान रखना चाहिए था, उसे मर्यादा के अंतर्गत रखना चाहिए था. शायद, इसके पीछे एक आक्रमकता रही हो या फिर कुछ और वजह, लेकिन कांग्रेस इस पर ध्यान देने में चूक कर गई.


वैसे, अब अगर देखा जाए तो चुनाव अब घोषणा पत्र का नहीं रह गया है. चुनाव में घोषणापत्र अब मात्र एक औपचारिकता बनकर रह गया है. पिछले विधानसभा चुनाव के क्रम में छतीसगढ़ और राजस्थान में देखें तो चुनाव में ठीक दो से तीन दिन पहले भाजपा ने घोषणापत्र जारी किया. यह अब किसी स्कूली बच्चे के उस इम्तहान की तरह हो गया है, जो केवल बनाने के लिए एक रिपोर्ट बनाता है, उसे फाइल करता है, ताकि न्यूनतम अंक उसे वहां भी मिल जाएं. अब देखना होगा कि घोषणापत्र में से कौन सी पार्टी कितना फायदा ले पा रही है. हालांकि, देखा जाए तो चुनावों का घोषणा पत्र से अब रिश्ता टूट सा गया है. इन पर अब चाहे जितनी भी बहस कर ली जाए, ये तब तक कामयाब नहीं होते जब तक कि उनके अंदर की बात जनता तक न पहुंचे, जब तक उसे मुद्दा ना बनाया जाए, तब तक घोषणा पत्र की कोई भूमिका अब नहीं रह जाती है. 


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