वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक उत्पल कुमार की BluOne Ink प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किताब Bharat Rising: Dharma, Democracy, Diplomacy केंद्र में नरेन्द्र मोदी सरकार बनने के बाद भारत के राष्ट्रीय नजरिए में आए मूलभूत परिवर्तनों को रेखांकित करने का प्रयास करती है. जो पाठक उत्पल कुमार के लेख पढ़ते रहे हैं, वे जानते हैं कि वे जिस विषय पर भी लिखते हैं, ठोस तथ्य और मजबूत दलील के साथ अपनी बात रखते हैं. प्रधानमंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी के 10 साल पूरे हो चुके हैं. कार्यकाल के हिसाब से भारत के केवन तीन अन्य प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और मनमोहन सिंह को इतना लम्बा कार्यकाल मिला था. प्रस्तुत पुस्तक में उत्पल कुमार की स्थापना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में एक राष्ट्र के तौर पर भारत के राष्ट्रीय दृष्टिकोण में मूलभूत परिवर्तन (पैराडाइम शिफ्ट) आया है. उत्पल कुमार ने भारत की राष्ट्रदृष्टि में आए परिवर्तनों को तीन कोणों (धर्म, लोकतंत्र और कूटनीति) से देखा है. 


तीन कसौटियों पर कसी राजनीति


उत्पल कुमार ने किताब में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर 14वें प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक की विदेश नीति की समीक्षा की है. किताब की प्रस्तावना का पहला ही वाक्य है, "भारत, जो कि इंडिया है, ने 1947 में गलत शुरुआत की." लेखक की मान्यता है कि आजादी के बाद भारत की राष्ट्रीय नीतियों के निर्धारण में देशहित से ज्यादा जवाहरलाल नेहरू की निजी विचारधारा हावी रही, जिसकी वजह से देश का पहला कदम ही गलत दिशा में पड़ा. उत्पल कुमार मानते हैं कि 1950 और 1960 के दशक में अमेरिका एवं यूरोप भारत का साथ देना चाहते थे लेकिन जवाहरलाल नेहरू एवं उनके करीबी सलाहकारों के साम्यवादी-समाजवादी विचारधारा के असर में होने के कारण भारत ने अमेरिका के ऊपर कम्युनिस्ट शासन वाले सोवियत रूस को तरजीह दी, जो सही कूटनीति नहीं थी. 



उत्पल कुमार की नजर में कूटनीतिक तौर पर पीएम नेहरू की दूसरी बड़ी भूल यह थी कि जब उन्हें संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थायी सदस्यता प्राप्त करने का अवसर मिलने की संभावना थी तो उन्होंने वह मौका चीन को थाली में सजा कर सौंप दिया. लेखक ने रेखांकित किया है कि नेहरू जी के अंदर चीन के प्रति 'बिग ब्रदर' वाला भाव था, जो चीनी क्रांति के नेता माओत्से तुंग को पसंद नहीं था. लेखक का मानना है कि 1962 के युद्ध के पीछे एक प्रेरणा यह भी हो सकती है कि माओ नेहरू को दिखाना चाहते थे कि बिग ब्रदर कौन है!


लेखक ने भारत और चीन के रिश्तों पर विस्तार से लिखा है, और माना है कि चीन को समझने में भारत लगातार भूल करता रहा है और जिसकी कीमत उसे तिब्बत जैसे बफर-स्टेट के चीन के हाथ में चले जाने के रूप में चुकानी पड़ी. लेखक मानते हैं कि पीएम मोदी चीन को अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों से बेहतर तरीके से डील कर रहे हैं लेकिन दोनों देशों के बीच शक्ति सन्तुलन बराबर करने के लिए भारत को अभी लम्बी दूरी तय करनी है और इस यात्रा में उसका सबसे बेहतर सहयात्री जापान हो सकता है. 


पाकिस्तान औऱ भारत


उत्पल कुमार ने पाकिस्तान के प्रति भारत के बदलते नजरिए में आए बदलाव को भी रेखांकित किया है. लेखक ने दिखाया है कि भारत के पहले से लेकर 14वें प्रधानमंत्री तक, सत्ता में आते ही पाकिस्तान के साथ रिश्ते बेहतर करने की सोच से प्रेरित रहे. कांग्रेस ही नहीं, गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों के अंदर भी यह प्रेरणा प्रबल रही है. यहाँ तक कि पीएम मोदी ने भी पदभार सम्भालते ही नवाज शरीफ और पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने का प्रयास किया लेकिन पठानकोट और पुलवामा हमले के बाद उन्होंने अपने नीति में बदलाव किया. लेखक मानते हैं कि भारत ने पाकिस्तान से दोस्ती बढ़ाने पर जितना जोर दिया, बदले में पाकिस्तान ने उसका उतना दुरुपयोग किया, भारत को युद्ध और आतंकवाद का रिटर्न गिफ्ट देना जारी रखा. लेखक के अनुसार एक कमजोर और उपेक्षित पाकिस्तान ही भारत के हित में है, और मौजूदा मोदी सरकार अब इसी नीति पर चल रही है. 


अमेरिका-यूरोप और दोस्ती का हाथ


उत्पल कुमार ने दिखाया  है कि अमेरिका-यूरोप भारत के स्वाभाविक दोस्त हो सकते हैं लेकिन अमेरिकी डीप स्टेट (अदृश्य सत्ता तंत्र) भारत-विरोधी पूर्वाग्रह का शिकार है. यह पूर्वाग्रह वहां के नेताओं के साथ ही वहां के अकादमिक संस्थानों और मीडिया में भी साफ दिखायी देता है. भारत-विरोधी अमेरिकी लिबरल मीडिया और अकादमिया दोनों देशों के बीच संबंध बेहतर होने में बहुत बड़ा रोड़ा हैं. लेखक ने अमेरिकी मीडिया संस्थान न्यूयॉर्क टाइम्स के उस विज्ञापन का उल्लेख किया है जिसमें कंपनी ने दक्षिण एशिया संवाददाता की वैकेंसी निकाली तो उसमें वांछित योग्यता में "पीएम नरेन्द्र मोदी और उनके मस्कुलर राष्ट्रवाद के प्रति आलोचनात्मक" नजरिया होने को भी एक मानक रखा, जबकि यही अखबार, हांगकांग, चीन, रूस इत्यादि में विज्ञापन में इस तरह की मांग नहीं करता, जबकि चीन में आधिकारिक तौर पर एक पार्टी की डिक्टेटरशिप है. पुस्तक के लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) संबंधित अध्याय में उत्पल कुमार दिखाते हैं कि पीएम मोदी आजाद भारत के निर्माण में योगदान देने वाले नेताओं के प्रति ज्यादा लोकतांत्रिक नजरिया रखते हैं. पीएम मोदी महात्मा गांधी, बीआर आम्बेडकर, विनायक सावरकर, बालगंगाधर तिलक, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सुभाषचंद्र बोस इत्यादि महापुरुषों को यथोचित सम्मान दे रहे हैं जबकि पहले के सरकारों में कुछ नेताओं की अनदेखी की जाती रही है.


समेकित राष्ट्रीय दृष्टिकोण


कह सकते हैं कि पीएम मोदी इन नेताओं के व्यक्तित्व ही नहीं विचारों को भी अपनी नीतियों में शामिल करके एक ज्यादा समेकित राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित कर रहे हैं.  उत्पल कुमार मानते हैं कि ब्रिटिश गुलामी के दौर में  भारत का कंट्रोल करने वाला इलीट नेटवर्क नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने से पहले तक देश को नियंत्रित करता रहा है. लेखक ने दिखाया है कि पीवी नरसिम्हाराव, मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे प्रधानमंत्रियों में भी इस रूलिंग इलीट नेटवर्क की स्वीकार्यता प्राप्त करने की आकांक्षा रहती थी लेकिन नरेन्द्र मोदी उस इलीट नेटवर्क को तवज्जो नहीं देते हैं.  उत्पल कुमार ने भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हिंदू धर्म के प्रति नजरिए की भी तुलना की है. लेखक के अनुसार पीएम मोदी ने हिंदू संस्कृति के प्रति राष्ट्रीय दृष्टिकोण में 'पैराडाइम शिफ्ट' किया है. लेखक मानते हैं कि सांस्कृतिक-धार्मिक पहचान किसी भी राष्ट्र की प्रेरणा स्रोत होती है इसलिए लेखक ने पीएम मोदी द्वारा हिंदू धर्म स्थलों के जीर्णोद्धार एवं विकास की परियोजनाओं को राष्ट्रीय आत्मगौरव के विकास के लिए आवश्यक माना है.


लेखक मानते हैं कि पीएम नेहरू पर समाजवादी और कम्युनिस्ट विचारकों का प्रभाव बहुत ज्यादा था, जिसकी वजह से वे सांस्कृतिक विषयों पर सरदार पटेल, चक्रवर्ती राजगोपालचारी और राजेंद्र प्रसाद इत्यादि से अलग विचार रखते थे. लेखक ने दिखाया है कि पीएम नेहरू "पश्चिमी देश क्या सोचेंगे"  के मेंटल ब्लॉक के शिकार थे, जिसका असर उनके कई निर्णयों पर पड़ता रहा लेकिन पीएम मोदी इसकी ज्यादा परवाह नहीं करते.


धर्मांतरण सहित कई ज्वलंत मुद्दे 


लेखक ने पुस्तक में धर्मांतरण, समान नागरिक संहिता, जाति विमर्श इत्यादि विषयों पर भी विचारोत्तेजक अध्याय हैं. किताब पढ़ने के बाद, जो बात सबसे ज्यादा शिद्दत से महसूस हुई वह इसका संक्षिप्त होना. बेहतर होता कि लेखक पुस्तक में प्रस्तुत विभिन्न विषयों पर अलग-अलग किताब लिखते ताकि हर विषय के संग न्याय हो सके और पाठक के जेहन में एक मुकम्मल समझ बन सके. लेखक ने जो भी विषय उठाए हैं, वे सब के सब समीचीन एवं ज्वलंत हैं. इन विषयों पर बहस चल रही है और आगे भी चलती रहेगी, इसलिए इनपर विस्तृत लेखन आवश्यक प्रतीत होता है. 


एडवर्ड सईद की पुस्तक Orientalism की समीक्षा करते हुए कई विद्वानों ने रेखांकित किया है कि किताब लिखते समय सईद के जेहन में अरब जगत हावी था, हिंद या चीन को उनकी किताब में उतना स्थान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे. ऐसे में पश्चिमी जगत में भारत के प्रति पूर्वाग्रहों को उजागर करने वाले मुकम्मल लेखन जरूरी हो जाता है. खासकर आज भी सक्रिय क्रिस्तोफ जैफ्रलो और एड्रू ट्रुश्की जैसे ओरिएंटलिस्ट लेखकों का लेखन विस्तृत समीक्षा की माँग करता है. इसी तरह जातीय विमर्श, धर्मांतरण एवं समान नागरिक संहिता जैसे विषयों की भी विस्तृत विवेचना लाजिमी प्रतीत होती है.    


कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी एंटोनियो ग्राम्शी का कथन मशहूर है कि "युद्द के मोर्चे पर सबसे कमजोर जगह हमला करना चाहिए और बौद्धिक मोर्चों पर सबसे मजबूत जगह पर मुकाबला करना चाहिए." उत्पल कुमार ने इस किताब के माध्यम से लेफ्ट-लिबरल बुद्धिजीवियों के सबसे मजबूत माने जाने वाले बौद्धिक मोर्चों पर बहस आमंत्रित की है. उम्मीद है कि उत्पल कुमार की स्थापनाओं की चुनौती लेफ्ट-लिबरल बुद्धिजीवी स्वीकार करेंगे और इस बहस को आगे बढ़ाएंगे जिससे पाठकों का समझ इन मुद्दों पर बेहतर हो सके.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]