पिछले कई सालो में जब भी मार्च का महीना आता था तो बच्चों पर उनकी परीक्षाओं का तनाव देखते ही बनता था. मगर गए साल से ये तनाव एक अलग ही रूप ले चुका है, जो ना सिर्फ परीक्षाओं का है बल्कि इससे जुड़ी तैयारी और इसके बाद अपने भविष्य का भी है. अगर इन परीक्षाओं में बैठने वाले छात्रों की बात समझें तो यकीनन कोरोना महामारी में गया और चल रहा समय सही मायनों में चर्चा करने की वजह है.


1. कोरोना काल मे स्कूल आदि संस्थान बंद थे और सरकारी आंकड़ों (एनसीईआरटी सर्वेक्षण रिपोर्ट) की मानें तो करीब 27% छात्रों के पास ऑनलाइन कक्षाओं में हिस्सा लेने के लिए स्मार्टफोन या लैपटॉप नहीं थे, जबकि 28% छात्रों और अभिभावकों का मानना ​​था कि बिजली की कमी और उपकरणों का व्यापक ज्ञान ना होना ऑनलाइन क्लास ना लेने की मुख्य वजह थी. कुल मिला कर व्यापक तौर पर देखा जाए तो एक बड़े तबके को बीते और चल रहे समय मे स्कूली शिक्षा नहीं मिल सकी.


2. ऑनलाइन क्लास के चलते ना सिर्फ विद्यार्थियों को बल्कि शिक्षकों को भी आंखों की परेशानी, मानसिक तनाव जैसी परेशानियों से दो चार होना पड़ा है. मनोविज्ञानिकों और आंखों के डॉक्टरों की मानें तो पिछले सभी सालो में इस साल लॉकडाउन के बाद से मरीज़ों में जो तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है उसमे 15 साल तक के बच्चों और पेशे से शिक्षक रहे व्यक्तियों की संख्या सबसे ज्यादा है जिसकी मुख्य वजह बहुत देर तक मोबाइल या लैपटॉप स्क्रीन के सामने बैठना और खुल कर अपनी बात ना कह पाना है.


3. ऐसा नही है कि छात्रों को सिर्फ स्कूल या कॉलेज की पढ़ाई में ही परेशानी हुई है, ऐसा बहुत बड़ा तबका उन छात्रों का भी है जो किसी उच्च शिक्षा या प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करते हैं. अगर UNESCO द्वारा जारी एक रिपोर्ट की मानें तो भारत में अब तक 32 करोड़ से ज्यादा छात्र कोरोना लॉकडाउन से प्रभावित हुए हैं. इसमे अकेले माध्यमिक शिक्षा स्तर में ही करीब 13 करोड़ से अधिक छात्र हैं, जो कक्षा 9 से कक्षा 12 तक हैं. ये वे छात्र हैं जो उच्च अध्ययन के लिए बोर्ड की परीक्षाओं से इतर किसी भी प्रवेश परीक्षा के लिए मेहनत करते हैं. भारत में प्रभावित 32 करोड़ छात्रों में से 40% से अधिक छात्र 9वीं से 12वीं कक्षा में पढ़ रहे हैं. इसके साथ ही करीब 19 करोड़ छात्र जो इंजीनियरिंग, मेडिसिन, लॉ, सीए, सीएस, आर्किटेक्चर, होटल मैनेजमेंट, सेंट्रल यूनिवर्सिटी, एसएससी और यूपीएससी जैसी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में जुटे थे उन्हें भी ना ही परीक्षा की तैयारी के लिए अनुकूल परिस्थिति (जैसे कि किताबे या कोचिंग आदि) मिली और ना ही कॉमन स्टडी और मॉक टेस्ट जैसी सुविधा जिसका नतीज़ा छात्रों में विश्वास की कमी और कमज़ोर तैयारी रहा. इन छात्रों में कुछ छात्र ऐसे भी थे जिनका ये उम्र की वजह से आखरी मौका था मगर कोरोना महामारी और लचर व्यवथा की वजह से उनके भाविष्य का ये आखरी मौका भी उनके हाथ से निकल गया.


4. परीक्षार्थियों के साथ साथ ऐसा ही एक और तबका है जो लोन के सहारे एक मोटी रकम खर्च कर एमबीए, आर्किटेक्चर, इंजीनियरिंग आदि जैसी पढ़ाई कर के हाल ही में सुनहरे भविष्य के लिए संस्थओं से निकला तो जरूर मगर सरकारी उपेक्षा और कुप्रबंधन के चलते बुरे ऋण खाता धारक के वर्ग में आ गया. ये वो वर्ग है जिन्हें वित्तीय भाषा मे गैर प्रदर्शन संपत्ति खाता यानी NPA (non performance assets) account बोला जाता है. भारत मे इन NPA accounts के आंकड़ों को देखें तो ये 31 दिसंबर 2020 तक 9.55% तक बढ़ चुके हैं. आंकड़े बताते हैं कि आज इन खराब शिक्षा ऋण दाताओं की संख्या करीब 3,66,260 है जिनकी कुल रकम 8,587 करोड़ रुपए है. वित्त मंत्रालय के अनुसार आवास, वाहन, उपभोक्ता टिकाऊ और खुदरा ऋणों की तुलना में शिक्षा ऋण (education loan) में काफी अधिक NPA देखा गया, जो वित्त वर्ष 2019-20 में 1.52% से 6.91% के बीच था. बीते 3 सालों में कुल NPA अकाउंट्स में जो बढ़ोतरी हुई है उनमे education loan सर्वप्रमुख है जिसकी मुख्य वजह Covid-19 महामारी, सरकारी कुप्रबंधन और रोज़गार का ना होना है. इन्हीं हालातों के चलते शिक्षा क्षेत्र में ख़ासतौर पर व्यावसायिक डिग्री पाठ्यक्रमों से बाहर होने वाले छात्रों की संख्या में उछाल आया है. महामारी के दौर में एक तरफ नॉकरियां जाती रही मगर लोन आदि की किश्ते चलती रहीं वही दूसरी तर्फ संस्थानों और कॉलेजों की फीस भी जाती रही नतीजा loan moratorium के बाद भी लोग अपना ऋण चुका पाने में असमर्थ रहे और यही ऋण अब NPA बन रहे है या बनने की कगार पर है.


प्रधानमंत्री ने बुधवार को 'परीक्षा पे चर्चा' में कहा था कि कोविड-19 के कारण छात्रों ने अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण साल तो गंवा दिया लेकिन इस महामारी के कारण उन्हें बहुत कुछ सीख भी मिली कि कैसे वो विपरीत परिस्थितियों में जीवन जी सकते हैं. छात्र सही मायनों में अपने "जीवन का एक और महत्वपूर्ण साल गंवा" चुके हैं.