नई दिल्ली: केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) 'पद्मावत' को रिलीज किए जाने की हरी झंडी कब की दिखा चुका है. देश के बुद्धिजीवियों, मीडिया, फिल्म-जगत और आम जनता ने चौक-चौबारों पर बहस करके यही पाया कि फिल्म सामने आनी चाहिए. यहां तक कि निर्माताओं की गुहार सुनते हुए भारत के सुप्रीम कोर्ट ने देश भर में फिल्म रिलीज करने का आदेश देते हुए यह भी कह दिया कि इसे प्रतिबंधित करना असंवैधानिक है.


लेकिन महीनों चले अप्रिय विवादों की सुरंग से निकलकर 25 जनवरी को बड़े परदे का मुंह देखने जा रही इस फिल्म का भविष्य अगर अमंगलमय नजर आ रहा है तो महज इसलिए कि मुट्ठी भर लोगों की एक निजी किस्म की जातीय सेना पूरे देश, खास तौर पर उत्तर भारत में इसकी रिलीज को लेकर बवाल काट रही है. राजपूतों की करणी सेना को सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना का लेश मात्र भी भय नजर नहीं आता.


इसके उलट भय नजर आता है सेंसर बोर्ड के उस फैसले में, जिसके तहत फिल्म को रिलीज का प्रमाणपत्र देने से पहले महारानी पद्मावती के वंशजों के सामने उसे प्रदर्शित करना पड़ा. हवाइयां उड़ रही हैं निर्देशक संजय लीला भंसाली के चेहरे पर, जिन्हें अंदाजा नहीं लग पा रहा कि दर्शक थिएटरों तक सुरक्षित कैसे आएंगे-जाएंगे ! हाथ-पैर कांप रहे हैं इग्जीबीटरों के, जो कह रहे हैं कि तोड़फोड़ की आशंका के चलते वे 'पद्मावत' को थिएटरों में रिलीज ही नहीं करेंगे.


गुजरात में मल्टीप्लेक्स मालिकों के संगठन अध्यक्ष मनुभाई पटेल ने हाथ खड़े करते हुए कहा है कि पुलिस की सुरक्षा ज्यादा से ज्यादा सिनेमाहॉल के बाहर होगी. अगर उपद्रवी सिनेमाहॉल के भीतर दाखिल हो जाते हैं और प्रॉपर्टी को नुक़सान पहुंचाते हैं तो क्या होगा ! भय नजर आता है गुजरात के गृहमंत्री प्रदीप सिंह जडेजा की उस कवायद में जिसमें वह फ़िल्म पर प्रतिबंध हटाने के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फ़ैसले के ख़िलाफ़ क़ानून के जानकारों से मशविरा करने में जुटे हुए हैं. भय नजर आता है भाजपा शासित गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और मध्य प्रदेश की सरकारों के उस निर्णय में, जिसके तहत सेंसर बोर्ड से मंजूरी मिलने के बाद भी उन्होंने अपने यहां 'पद्मावत' की रिलीज़ पर रोक लगा रखी है.


उल्लिखित परिस्थितियां एक ऐसा कोलाज बनाती हैं जो खौफनाक मंजर रचता है. इस मंजर में ताजा-ताजा यह भी शामिल कर लीजिए कि बिहार के मुजफ्फरपुर में पोस्टर फाड़ते हुए लाठी-डंडों से लैस कथित करणी सैनिकों ने ज्योति कार्निवल सिनेमाघर को आग के हवाले कर देने की धमकी दी है. अहमदाबाद के निकोल इलाके में स्थित राजहंस सिनेमाहॉल में शनिवार को 'पद्मावत' का ट्रेलर दिखाने से नाराज बलवाइयों ने बुकिंग ऑफ़िस को तहस-नहस कर दिया.


राजपूत करणी सेना के गुजरात सलाहकार मानवेंद्र सिंह गोहिल ने चेतावनी दी है कि अभी तो उनके लोगों ने सिर्फ अहमदाबाद-वडोदरा हाइवे और अहमदाबाद-राजकोट हाईवे जाम किया है. अगर गुजरात सरकार फ़िल्म की रिलीज़ पर रोक नहीं लगाती तो वह थिएटरों और सड़कों पर अपना विरोध प्रदर्शन और ज्यादा उग्र कर देंगे.

करणी सेना के लोगों ने दिल्ली में नोएडा-गुरुग्राम डीएनडी को ब्लॉक कर दिया और पुलिस की मौजूदगी में ही उन्होंने मारपीट भी की. मध्य प्रदेश के जावरा में स्कूली छात्रों ने 'पद्मावत' के 'घूमर' पर नृत्य पेश किया तो करणी सेना के लोगों ने दबंगई दिखाते हुए पूरा कार्यक्रम तहसनहस कर डाला. राजस्थान में तो चित्तौड़गढ़ की महिलाओं ने सरकार को चेताया है कि अगर फिल्म रिलीज हुई तो वे महारानी पद्मावती की ही भांति जौहर कर लेंगी. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने पहले ही आश्वासन दे रखा है कि उनके प्रदेश में फिल्म रिलीज नहीं होगी. अब करणी सेना के प्रवक्ता विजेन्द्र सिंह ने धमकी दी है कि सेंसर बोर्ड के चेयरमैन प्रसून जोशी अगर जयपुर साहित्योत्सव में भाग लेने आए तो उनकी जोरदार पिटाई की जाएगी.


यानी करणी सेना बेलगाम है. इतना बल इस अनजान से संगठन में कहां से आया है? अपने अहंकार को पालने की गिजा इसे कौन दे रहा है? न्यायालय, पुलिस, सरकार और मीडिया को ठेंगे पर रखने का हौसला आखिर इसे कैसे मिला? इन तमाम सवालों के जवाब सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों की खामोशी में छिपे हुए हैं. करणी सेना के नेता देश जल उठने संबंधी धमकियां आए दिन देते हैं लेकिन केंद्र सरकार और फिल्म को प्रतिबंधित करने वाली राज्य सरकारें चूं तक नहीं करतीं.


मोदी-योगी जी खामोश हैं और उनके प्रवक्ता करणी सेना के कृत्य को जस्टीफाई करते नजर आते हैं. राजपूत वोट बैंक के चक्कर में उन्हें यह फिक्र भी नहीं सताती कि एक मामूली सी फिल्म के चक्कर में अगर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना की जा सकती है तो बाकी अहम फैसलों का पालन किस विधि हो सकेगा. राजनीतिक वरदहस्त के नीचे देश पहले भी रणवीर सेना, सनलाइट सेना, सवर्ण लिबरेशन फ्रंट, लोरिक सेना, भूमि सेना, कुंवर सेना, डायमंड सेना जैसी कई सेनाओं का ताण्डव देख चुका है. फिर घर-घर ऐसी सेनाएं उग आने से कैसे रोका जा सकेगा?


अपनी आन-बान-शान को लेकर मर मिटने वाले पराक्रमी राजपूतों की करणी सेना का गठन राजस्थान में उनका 'सामाजिक न्याय मंच' भंग होने के बाद वर्ष 2006 के आखिर में हुआ था. करणी माता एक लोक देवी हैं जिन्हें राजपूत पूजते हैं. करणी सेना के भीतर आपसी मारकाट भी कम नहीं है. इसके नेता कभी कांग्रेस तो कभी बीजेपी तो कभी बीएसपी के पाले में आते-जाते रहे हैं. करणी सेनाएं भी कई हैं जो इनके शीर्ष नेताओं- ममडोली, भाटी, कालवी, गोगामेड़ी और रुआं की आपसी टकराहट का नतीजा हैं.


राजनीतिक दलों की सरपरस्ती में राजपूत अस्मिता और आरक्षण की लड़ाई लड़ने में कोई हर्ज नहीं है लेकिन दूसरों की अस्मिता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करना बुरा है. जाटों के लगातार बढ़ते आधिपत्य से चिंतित राजपूत अब आपसी बैर और अहंकार को झटक कर हर कीमत पर एकजुट होने की कसरत कर रहे हैं और सत्ताधारी बीजेपी उत्तर भारत में ताकत बढ़ा रही करणी सेना को अपने पाले में करने के लिए उसके नेताओं का इगो संतुष्ट करने में जुटी है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का महारानी पद्मावती को 'राष्ट्रमाता' घोषित करने संबंधी बयान दिया जाना इसी रणनीति का हिस्सा है. 'पद्मावत' की रिलीज का विरोध तो महज एक बहाना है, दरअसल राजपूतों को भी सत्ता की मलाई में अपना हिस्सा बढ़ाना है.


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