लोकसभा चुनाव में पहले चरण का मतदान हो चुका है और दूसरे चरण के मतदान में भी कुछेक दिन ही बचे हैं. इस बीच गर्मी का पारा चढ़ने के साथ ही राजनीतिक बयानबाजी से भी तापमान चढ़ रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बांसवाड़ा में जब कांग्रेस के घोषणापत्र पर हमला बोलते हुए उनकी वेल्थ-डिस्ट्रीब्यूशन वाली योजना को घुसपैठियों और अधिक बच्चों वाले लोगों में बांटने का षडयंत्र बता दिया. उसके बाद ही विरोधी दल के नेताओं ने इसे समुदाय-विशेष के खिलाफ बताते हुए नरेंद्र मोदी की कटु आलोचना की. हालांकि, प्रधानमंत्री की पार्टी के लोगों और उनके समर्थकों का कहना है कि मोदी ने तो महज पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान- संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है- कि याद दिलायी थी. 


प्रधानमंत्री का बयान आश्चर्यजनक


भारत के चुनाव में संयम का टूटना कोई नयी बात नहीं, लेकिन जो हमारा प्रथम नायक प्रधानमंत्री है, उनके बयान का बहुत गंभीर प्रभाव होता है. इसलिए, प्रधानमंत्री जी को जिनका नारा 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास' था, उनको भारत के 140 करोड़ लोगों में से एक हिस्से पर निशाना साधना, जिससे उनके प्रतिपक्षी का घोषणापत्र बेदम हो जाए, वो ठीक नहीं था.


हमारे देश की जो आर्थिक-सामाजिक बनावट है, उसमें धर्म की बजाय गांव-शहर, जाति-लिंग भेद का अधिक महत्व है, चाहे वह हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिख हो या ईसाई हो. गांव पिछड़े हैं, शहर आगे हैं. औरतें पिछड़ी हैं, पुरुष आगे हैं. जो वंचित समाज है, उसमें बहुतायत पसमांदा मुसलमानों की और सामाजिक-शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हिंदुओं की है, इसलिए प्रधानमंत्री का ये बयान चौंकाऊ जरूर है.


जहां तक मनमोहन सिंह के भाषण की बात है, तो उनका भाषण अंग्रेजी में था और मोदी का भाषण हिंदी में है. जिस भाषण का उन्होंने संदर्भ दिया है, वह भाषा अलग थी. उसका लाभ हमलोग वर्तमान प्रधानमंत्री को दे सकते हैं कि अंग्रेजी में कही बात को हिंदी में लाते-लाते अर्थ का अनर्थ हो गया. हालांकि, जो मनमोहन सिंह का बयान था, उसमें वंचित भारत की बात थी, उसमें आदिवासी, दलित, पसमांदा इत्यादि सभी का जिक्र था. अब उसमें से एक टुकड़ा अलग कर देने से प्रसंग बदल गया. 



मनमोहन का बयान पुरानी बात


जहां तक प्रधानमंत्री के भाषण का समर्थन करने की बात है, तो वो वफादारी का तकाजा है. न खाता न बही, जो नेता कहे वही सही, वाली बात है. एक समाजशास्त्री की दृष्टि से कहा जाए तो प्रधानमंत्री का बयान तथ्यपरक नहीं है. हां, उनके समर्थकों की दृष्टि से पीएम मोदी का बयान बहुत धमाकेदार है, जिन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र में छिपे तुष्टीकरण के रूप को खोलकर रख दिया. उनके लिए यह बहुत लुभावना है.


हालांकि, 10 साल पहले का बयान पूर्व पीएम मनमोहन सिंह का है. अब 10 साल से तो उनका और कांग्रेस पार्टी का नीति-निर्माण में कोई योगदान है नहीं. इस बीच जो मौजूदा सरकार की नीतियां बनी हैं, वह चाहे उज्ज्वला की हो, शौचालय बनाने की हो, या खाते खुलवाने की, उनमें हिंदुओं को कोई प्राथमिकता नहीं दी, मुसलमानों को वंचित नहीं किया, जो किया सबके लिए किया है. ऐसे में, प्रधानमंत्री ने जो किया है और जो कहा है, उसमें थोड़ा फासला है. 


हो सकता है ध्रुवीकरण


ये चुनाव में ध्रुवीकरण की एक कोशिश कोशिश हो सकती है. हालांकि, पीएम को करना ये चाहिए था कि वह मनमोहन सिंह के 10 साल और भाजपा के 10 साल की तुलना करते, भाजपा के घोषणापत्र और कांग्रेस के घोषणापत्र की विवेचना करते. घोषणा पत्र के एक प्रसंग को उठाकर, 10 साल पहले के एक भाषण से जोड़ना थोड़ा बेतुका लग रहा है. इसलिए कि जो अध्ययन आए हैं, सच्चर कमिटी से लेकर कुरैशी कमिटी तक, शिक्षा में, रोजगार में, संपत्ति और रोजगार इत्यादि के मामले में मुसलमान भारत के हिंदुओं, बौद्धों और सिखों से आगे नहीं चल रहा है.


मनमोहन सिंह की सरकार तो भारत में क्रोनी-पूंजीवाद को बढ़ावा देने के लिए बदनाम है. उसके राज में जो घोटाले हुए, उसकी वजह से उनकी सरकार चली गयी. अन्ना आंदोलन हुआ, लोकपाल की बात हुई. उनके बयान का कोई आधार नहीं था, असर नहीं था, इसलिए उसको बहुत तूल देने की जरूरत नहीं थी. प्रधानमंत्री-मुख्यमंत्री या राष्ट्रपति पद पर जो भी व्यक्ति होते हैं, वे राजनीतिक व्यक्ति होते हैं. उनसे अपेक्षा होती है कि वो थोड़ा संयम बरतें, अपने पद का सम्मान करें. अगर उन्होंने संयम नहीं बरता, सम्मान नहीं किया, एक दल-विशेष के नेता के तौर पर काम किया, तो मर्यादाएं टूटेंगी.


प्रधानमंत्री को खुद अपनी लक्ष्मण रेखा खींचनी चाहिए. पहले की तुलना में, जब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे, तो उनके ऊपर एक परछाईं थी, एक संदेह का दायरा था. ये अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री के तौर पर अरब देशों के साथ, मुस्लिम समुदाय के साथ, अल्पसंख्यकों के साथ, (मणिपुर को छोड़कर) अपने गुजरात के रिकॉर्ड को सुधारने का काम किया है. लेकिन, ये बयान बहुत दिक्कत वाला है, बेतुका है.  


हिंदू वोट बहुत जटिल


हम जब हिंदू वोट की बात करते हैं तो उसका मतलब है-दलित वोट, महिला वोट, ग्रामीण वोट, पिछड़ा वोट, सवर्ण वोट. हिंदू वोट अपने आप में बहुत जटिल और संश्लिष्ट संज्ञा या विशेषण है. उसको एक करने के लिए मुसलमानों पर हमला करना या मुसलमानों को कांग्रेस का प्रेय-समूह बताना ज्यादा आसान तरीका है. हमको उम्मीद करनी चाहिए कि लंबा चुनाव है. अभी छह चरण बाकी हैं तो प्रधानमंत्री अपनी यात्रा के दौरान समय निकाल कर कांग्रेस का घोषणापत्र पढ़ेंगे, क्योंकि ये खुद कांग्रेसियों को चौंकाने वाला है.


इसमें ठोस सुझाव हैं, समयबद्ध वायदे हैं, पिछली सरकार की गलतियों से निकालने की कोशिश है. भाजपा के घोषणा पत्र की भी तुलना करनी चाहिए. मतदाता बहुत समझदार है और प्रधानमंत्री का वफादार उनका कार्यकर्ता तो है ही, वह तो उनके साथ लगा ही है. सवाल तटस्थ मतदाताओं को अपनी बात समझाने का है. इसके दो ही तरीके हैं. अपनी लकीर बड़ी कर दें या फिर दूसरे की लकीर को दबंगई से जबरन छोटी कर दें. लोकतांत्रिक तरीके में मतदाता वही तरीका पसंद करता है, जब आप अपनी लकीर को बड़ी करते हैं. 


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