मंडल कमीशन के लागू होने के ढाई दशक बाद मोदी सरकार ने मंडल-टू की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं. देश की अन्य पिछड़ा वर्ग यानि ओबीसी की राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन आने वाला है. साथ ही ओबीसी के भीतर की जातियों में ही आपसी संघर्ष की आशंका भी सिर उठाने लगी है. कुल मिलाकर मोदी सरकार का यह कदम बीजेपी को उत्तर भारत में नई दिशा दशा दे सकता है. मोदी सरकार ने नेशनल कमीशन फॉर सोशल एंड एजुकेशनली बैकवर्ड क्लासिस (एनसीएसईबीसी) का गठन कर दिया है. पांच सदस्यीय आयोग चार हफ्तों में अपनी रिपोर्ट देगा. यानि रिपोर्ट नंवबर के पहले हफ्ते तक आएगी. रिपोर्ट को अगले कुछ दिनों में मोदी सरकार स्वीकार कर लागू करने की हालत में होगी. यह वही दिन होंगे जब चुनाव आयोग गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधान सभा चुनाव को तारीखों की घोषणा कर चुका होगा. गुजरात में पटेल खुद को ओबीसी में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. मोदी सरकार उम्मीद कर रही है कि रिपोर्ट के बाद पाटीदार समाज उसके साथ वापस आ जाएगा जो गुजरात की आबादी का बीस फीसद है, जो वहां की 182 में से 73 सीटों पर असर रखता है, जिसके वोट से बीजेपी पिछले 20 सालों से गुजरात में जीत का परचम लहराती रही है.


आप सोच रहे होंगे कि आखिर क्या है ओबीसी के नये कमीशन में. यह कमीशन तय करेगा कि ओबीसी में शामिल जातियों को क्या आनुपातिक आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जा सकता है. यह कमीशन तय करेगा कि ऐसी कौन सी जातियां हैं जिन्हें ओबीसी में शामिल होने के बाद भी आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिला और ऐसी कौन सी जातियां हैं जो आरक्षण की मलाई खा रही हैं. कुल मिलाकर कोटा में कोटा की व्यवस्था की जा रही है जिसके परिणाम ओबीसी आरक्षण को बदल कर रख देंगे. अभी देश में ओबीसी को 27 फीसद आरक्षण हासिल है. इसमें सभी ओबीसी जातियां आती हैं. पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया था. मंडल कमीशन का कहना था कि देश की 52 फीसद आबादी ओबीस के तहत आती है और जनसंख्या के इस अनुपात के हिसाब से उसे 27 फीसद आरक्षण दिया जाना चाहिए. इस प्रकार हमारे देश में ओबीसी, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति को कुल मिलाकर अधिकतम 49.5 आरक्षण देने की व्वस्था लागू हो गयी.


अब सवाल उठता है कि मोदी सरकार को इतना बड़ा राजनीतिक दांव लगाने की जरुरत क्यों पड़ी. सरकार ने 1993 के नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लास एक्ट,1993 को रद्द कर दिया. इसके साथ ही मौजूदा अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग भी भंग हो गया. सरकार ने संविधान में संशोधन कर इसमें अनुच्छेद 338 बी भी जोड़ दिया. ऐसा होने पर नये कमीशन को संवैधानिक मान्यता भी प्रदान हो गयी. आसान शब्दों में कहा जाए तो अब संसद तय करेगी कि किस जाति को ओबीसी में शामिल किया जाना चाहिए और किस जाति को ओबीसी से हटा दिया जाना चाहिए. (वैसे यह बिल राज्यसभा में विपक्ष के कुछ संशोधन पारित होने के कारण फिलहाल अधर में है. और इस पर पक्ष विपक्ष के बीच जमकर राजनीति हो रही है.) मोदी सरकार को इस बिल के लटक जाने पर गहरा झटका लगा है. उस दिन राज्यसभा में बीजेपी के सभी सदस्य मौजूद नहीं थे और इसी का फायदा उठाकर विपक्ष ने अपने कुछ संशोधन पारित करवा लिए. इससे सरकार की किरकिरी भी हुई थी. प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने सांसदों की जमकर क्लास ली थी और उन्हें कारण बताने को कहा था. आमतौर पर कुछ संशोधनों के पारित होने पर सरकार और दल के सर्वोच्च नेता इस तरह आपा नहीं खोते हैं. लेकिन चूंकि यह बिल मोदी सरकार की 2019 में वापसी तय करने और बीजेपी का विस्तार करने की अपार क्षमता रखता है इसीलिए गैर मौजूद सासंदों को लताड़ा गया.


फिर वही सवाल आखिर ऐसा क्या है इस नये कानून में जो देश की ओबीसी राजनीति की दशा दिशा बदल कर रख देगा, जो मोदी सरकार और बीजेपी की दलित वोटों में पैठ बढ़ाएगा और जो ओबीसी राजनीतिक करने वाले क्षेत्रीय दलों को हाशिए पर डाल देगा. इस समय हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुर्जर और राजपूत, महाराष्ट्र में मराठे, गुजरात में पटेल और आन्ध्र प्रदेश में कापू जैसी जातियां खुद को ओबीसी में शामिल करने के लिए संघर्षरत हैं. इनमें से राजस्थान के गुर्जरों को छोड़कर बाकी सारी जातियां सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रुप से प्रभावशाली रही हैं.


गुर्जर राजस्थान में बीजेपी को वोट देते रहे हैं. इन जातियों को साधना जरुरी है क्य़ोंकि यह सभी ओबीसी में शामिल करने के लिए मरने मारने पर उतारु हैं. हरियाणा में तो पिछले साल जाट आरक्षण में तीस जानें गयी थी. महाराष्ट्र में मराठों को नाराज करके बीजेपी की सत्ता में वापसी मुश्किल है. यही बात गुजरात के पटेलों पर लागू होती है जहां दो महीने बाद चुनाव होने हैं. पिछले चुनावों में 70 फीसद से ज्यादा ने बीजेपी को वोट दिया था लेकिन इस बार हार्दिक पटेल जैसे नौजवान पटेल नेता कांग्रेस को समर्थन देने की बात कर रहे हैं. राजस्थान में अगले साल चुनाव हैं और वहां राजपूतों और गुर्जरों की नाराजगी बीजेपी को भारी पड़ सकती है.


ऐसा नहीं है कि इन जातियों को खुश करने के लिए वहां की बीजेपी की राज्य सरकारों ने कुछ नहीं किया हो. राज्य ओबीसी आयोग से सिफाऱिश करवाई , विधानसभा में प्रस्ताव पारित किया और ओबीसी में आरक्षण देने के आदेश भी जारी कर दिए लेकिन हर जगह हाई कोर्ट ने स्टे लग गया. इसकी वजह यही रही कि आरक्षण तय सीमा से ज्यादा हो गया. राज्यों ने संविधान की नवीं अनुसूची में इन जातियों को डालने के प्रस्ताव केन्द्र सरकार को भेजे लेकिन बात बनी नहीं. केन्द्र सरकार राज्यों की मांग मान कर ऐसी  नई पंरपंरा की शुरुआत नहीं करना चाहती थी जहां ओबीसी के लिए नवीं अनुसूची में शामिल करवाने वालों की कतार ही न लग जाए और ओबीसी आरक्षण का मतलब ही खत्म हो जाए. लेकिन हाई कोर्ट में स्टे के चलते गुजरात , राजस्थान , हरियाणा , महाराष्ट्र में इन प्रभावशावी जातियों को मनाना भी जरुरी था. इसके लिए ही नया रास्ता निकाला गया है. इसके दो फायदे होंगे. एक , चूंकि नये आयोग को संवैधानिक दर्जा हासिल होगा लिहाजा उसकी सिफारिश को किसी अदालत में चुनोती नहीं दी जा सकेगी. दो , चूंकि ओबीसी में जातियों के शामिल होने का अंतिम फैसला संसद करेगी लिहाजा राज्य सरकारों पर से आरक्षण का सिरदर्द खत्म हो जाएगा.


लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है. अभी तक जो प्रभावशाली जातियां ओबीसी में शामिल हो आरक्षण की मलाई खा रही हैं वह किसी भी हाल में कोटा में कोटा की व्यवस्था स्वीकार नहीं करेंगी. इससे उनके लाभ का दायरा कम हो जाएगा. लेकिन बीजेपी को शायद इसकी परवाह नहीं है. उसकी नजर ओबीसी में शरीक सबसे पिछड़ी जातियों के वोट बैंक पर है. आसान शब्दों में कह सकते हैं कि बिहार मे नीतीश कुमार ने जिस तरह महापिछड़ा , महादलित , पसमांदा मुस्लिम जैसा नया वोटबैंक तैयार किया , वैसा ही कुछ मोदी सरकार पूरे देश में करने जा रही है. एक नया वोट बैंक बनान जा रही है.


जातीय संघर्ष की जिस आशंका की तरफ हम इशारा कर रहे हैं उसे राजस्थान की जनता भुगत चुकी है. वहां मीणा अनुसूचित जन जाति ( एसटी) में शामिल हैं और गुर्जर ओबीसी में. लेकिन प्रभावशाली जाटों को ओबीसी में शामिल करने पर गुर्जर नाराज हो गये. उनका कहना था कि पहले ही उन्हें ओबीसी का लाभ कुछ प्रभावशाली जातियों के कारण नहीं मिल रहा है और जाटों ने तो गुर्जरों को कहीं का नहीं छोड़ा लिहाजा गुर्जरों को एसटी में शामिल किया जाए. उधर मीणा इस मांग के खिलाफ सड़क पर आ गये. उनका कहना था कि वह किसी भी कीमत पर गुर्जरों को एसटी में शामिल नहीं होने देंगे. बीजेपी  सरकार ने इस तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया. उधर गांव गांव आंदोलन और प्रतिआंदोलन की आग फैल गयी. आमतौर पर जयपुर, दौसा, हिंडौन, भरतपुर , करौली , सवाई माधोपुर जिलों में एक गांव गुर्जर का मिलता है और एक मीणा का.दोनों के बीच परंपरागत रुप से प्यार और भाईचारा भी था लेकिन एक मांग ने भाईचारे को बिगाड़ कर रख दिया.  राज्य सरकार ने गुर्जरों की मां नहीं मानी क्योंकि वह प्रभावशाली मीणा जाति को नाराज नहीं करना चाहती थी. गुर्जर धऱने पर बैठ गये. दो बार की पुलिस फायरिंग में 70 गुर्जर मारे गये.


इस सच्चाई को भी समझ लेना जरुरी है. आरक्षण का लाभ उठाने वाला इस लाभ से वंचित नहीं रहना चाहता और आरक्षण से वंचित लाभ उठाने के मौके को चूकना नहीं चाहता. ऐसे गर्म तवे पर राजनीति की रोटियां सेंकना अंगुलियों को भी जला सकता है.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)