सतीश कौशिक का अचानक निधन हो जाना हम सबके लिए बहुत ही दु:खदायी है. इस विषय पर मेरे लिए कुछ बोलना भी बहुत ही दु:खद है क्योंकि अभी 2 मार्च को ही मैंने उनके साथ मंच को साझा किया था.


हरियाणा को लेकर उनके मन में एक योजना थी कि फ़िल्म की एक संस्कृति हरियाणा में विकसित हो. इसके लिए वे भारतीय चित्र साधना के साथ जुड़े थे. एक लंबी योजना पर हमलोग काम कर रहे थे. इसको लेकर उनके मन में जो विचार थे, उसे उन्होंने मुझसे साझा किया था. ये बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. ये सोचा नहीं था कि जब हम एक वर्ष आगे की योजना बना रहे हैं, उसके सात दिन बाद ही हमें उनके बारे में इस तरह से बात करनी पड़ेगी.


हम सब सदमे की स्थिति में हैं कि एक हंसता-खेलता व्यक्ति अब हमारे बीच नहीं हैं. जिस तरह से रील लाइफ में थे, वे रियल लाइफ में भी उतने ही सहज थे. सतीश कौशिश अपने आसपास के वातावरण को आनंदमय बना देने वाले व्यक्ति थे.


मेरा उनसे पहला परिचय स्क्रीन से ही हुआ था. 1983 में उनकी एक फिल्म आई थी 'जाने भी दो यारों'. इसके संवाद के लेखन से वे जुड़े थे और उसमें छोटी सी भूमिका भी निभाई थी. उस फिल्म के जिन सीन में वे थे, वो मानस पर अंकित हो गए थे. जैसे-जैसे सिनेमा को लेकर मेरी समझ बेहतर होते गई, तो समझ में आया कि भारतीय सिनेमा के लिए  सतीश कौशिक क्या व्यक्तित्व थे.


एक फ़िल्मकार के नाते जीवन भर संघर्ष चलता है क्योंकि आपका जो करेंट प्रोजेक्ट होता है, वही वर्तमान में आपकी जिंदगी की स्थिति और प्रोफेशनल वैल्यू तय करता है. मुझे ध्यान है कि सतीश कौशिक अपनी पहली फ़िल्म 'रूप की रानी, चोरों का राजा' डायरेक्ट कर थे. ये उस जमाने की बहुत बड़े बजट की फ़िल्म थी. उसके अंदर बड़े-बड़े सितारे थे, जिनमें अनिल कपूर, श्रीदेवी और अनुपम खेर शामिल थे. दुर्भाग्य से वो फ़िल्म बहुत बुरी तरह से फ्लॉप हो गई. सिनेमा के एक शब्द इस्तेमाल किया जाता है डिजास्टर, और ये वो फ़िल्म साबित हो गई. एक बार सतीश कौशिक ने इसका जिक्र करते हुए बताया था कि उस फ़िल्म की असफलता के बाद मैं इतना डिप्रेशन में था कि मुझे लगता था कि मैंने बोनी कपूर को बर्बाद कर दिया. इस बात को लेकर सतीश कौशिक के मन में कहीं न कहीं एक गिल्ट था. सतीश कौशिक जी ने कहा था कि इस फ़िल्म के बाद उनको लगता था कि आत्महत्या कर लूं.


लेकिन उनके अंदर एक जीवट था, हरियाणवी जीवट था. वे दिल्ली में पढ़े-लिखे और बड़े हुए थे. उसी का असर था कि उन्होंने 'रूप की रानी, चोरों का राजा' की असफलता के बाद नए रूप में अपने आप को आगे बढ़ाया. दुर्भाग्य की बात ये थी कि इस फ़िल्म के बाद जो उनकी दूसरी फ़िल्म आई थी 'प्रेम', वो भी फ्लॉप साबित हुई थी. इससे उन्होंने खुद को अपने अभिनय से उबारा. अपने अभिनय से एक अलग स्थान बनाया.


मैं जानता और समझता था कि सतीश कौशिक बहुत बड़ी हस्ती हैं और जिस तरीके से सुबह से लोगों की संवेदनाएं और संदेश पढ़ रहा हूं, तो लग रहा है कि वो शख्स वाकई में जितना शालीन और सभ्य थे, वैसे लोग सिनेमा की संस्कृति में बहुत कम मिलते हैं. उनके जीवन में सघर्ष हमेशा चलते रहा. हर फिल्मकार के जीवन में ऐसा चलता है, लेकिन उन्होंने हमेशा अपने जज्बे से उस पर विजय पाई.


मैंने उन्हें सबसे पहले अभिनेता के तौर पर जाना. मैं उनके अभनय की प्रतिभा से बहुत प्रभावित रहा हूं. 'जाने भी दो यारों' में सतीश कौशिक ने पंकज कपूर के असिस्टेंट अशोक का रोल निभाया था. पंकज कपूर इस फ़िल्म में तरनेजा के नाम से मेन विलेन थे. इस फ़िल्म में सतीश कौशिक का जो किरदार था, उसे आप कभी भी देखेंगे तो वो आपको हमेशा उसी तरह से गुदगुदाएगा, वैसे ही हंसाएगा. उस फ़िल्म में उनके संवाद भी थे. अभिनेता के तौर पर स्क्रीन पर उनका काम था लोगों को गुदगुदाना. उनके इस काम के लिए उन्हें दो बार 'राम लखन' और 'साजन चले ससुराल' फ़िल्म के लिए फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला. ये उपलब्धि अपने आप बताता है कि अभिनेता के तौर पर सतीश कौशिक कितने स्थापित थे.


निदा फाजली का एक शेर है कि 'हर आदमी में होते हैं, दस बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना'. सतीश कौशिक को भी आप अलग-अलग नजरिए से देख सकते हैं. अगर आप एक निर्देशक को देखना चाहते हैं, तो वो उसमें भी सक्षम थे. उन्हें अगर हम एक लेखक के तौर पर देखना चाहें, तो वे उसमें भी उतने ही पारंगत थे. उनके व्यक्तित्व में जो जैसा देखना चाहता है, वैसा देख सकता है. ऐसा देखने पर लगता है कि वे सच में हर विधा में माहिर थे और इस वजह से उनका फ़िल्म इंडस्ट्री में बहुत ज्यादा सम्मान भी है. 


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