राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने मुस्लिमयुक्त हिंदुत्व की व्याख्या कर सबको चौंका दिया है. कई ने इसमें से उपसंहार निकाला कि संघ शायद बीजेपी से किनारा कर रहा है. एक व्याख्या ये भी है कि संघ ने समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने और अपनी उग्र हिंदुत्व की छवि को सुधारने के लिए ये कहा है. कुछ विश्लेषक का यह भी मानना है कि संघ ने नई युवा पीढ़ी को साधने के लिए यह कवायद की है. जितने विश्लेषक उतनी बातें. ये ठीक भी है. लेकिन संघ को जानने वाले यह अच्छी तरह से जानते हैं कि मोहन भागवत ने हिंदुत्व की उसी व्याख्या को आगे बढ़ाया है जो संघ के विचार का मूल केंद्र रहा है. उसमें थोड़ा भी बदलाव नहीं है. न ही कुछ अलग कहा है. संघ प्रमुख ने संघ के खिलाफ उसके हिंदुत्व की गलत प्रचार से उपजे आशंकाओं का निदान किया है और हिंदुत्व के दार्शनिक और मौलिक चिंतन को सबसे सामने रखा है.


संघ प्रमुख की तरफ से मुसलमानों को भी हिंदुत्व का भाग बताना कहीं से भी अतिश्योक्ति नहीं है बल्कि हिंदुत्व के दार्शनिक आधार के अनुरूप है. विश्व में पाए जाने वाले सभी धार्मिक दर्शनों में से मात्र हिंदुत्व ही एक ऐसा दर्शन है जो न केवल विविधताओं से भरा हुआ है बल्कि उन सभी विविधताओं के समावेशन का दम भी रखता है. हिंदुत्व का दार्शनिक आधार ही उपासना की सभी पद्धतियों का सम्मान है, जो इसके बहुलवादी स्वरुप का परिचायक है. इसमें चयन की स्वतंत्रता है, जिसके तहत आप कोई भी आराध्य चुन सकते हैं और उसके उपासना की पद्धति भी चुन सकते है. विश्व में मात्र हिंदुत्व ही एक ऐसी पद्धति है जो आस्तिकों के साथ साथ नास्तिकों को भी न केवल अपने दर्शन में समावेशित करती है बल्कि उनके प्रति सम्मान का भी भाव रखती है.


हिंदुत्व कोई सजातीय दर्शन नहीं है बल्कि विजातीयता और भिन्नता इसकी पहचान रही है. वैचारिक भिन्नता को संवाद के द्वारा दार्शनिक समरूपता में बदलना हमेशा से आर्यावर्त की एक समृद्ध परंपरा रही है. संघ प्रमुख का संबोधन और संवाद का यह प्रयास उसी परंपरा का निर्वहन है. चूंकि हिंदुत्व दर्शन सभी आराध्यों और उपासना की सभी पद्धतियों के सम्मान में निहित है अतः किसी भी उपासना या आराध्य के प्रति द्वेष रखना खुद हिंदुत्व के मूल्य से पलायन होगा. दूसरे शब्दों में, मुस्लिम ही नहीं बल्कि प्रत्येक वह व्यक्ति, संगठन या दर्शन हिंदुत्व का भाग नहीं हो सकता जो दूसरी दार्शनिक पद्धतियों को स्वीकार्य नहीं करें.


आज जो लोग हिंदुत्व के समावेशी दर्शन को बिना जाने समझे एकतरफा रूप से दोष-प्रत्यारोप करते हैं, उनके लिए संघ प्रमुख का वक्तव्य सत्यता का बोधक हो सकता है. हिंदुत्व कभी भी दार्शनिक श्रेष्टता का दावा नहीं करता बल्कि दार्शनिक बहुलता की वकालत करता है. वर्तमान में समस्या यह है कि तथाकथित बुद्धिजीविओं द्वारा एकपक्षीय अवधारणाओं का सामान्यीकरण और सामान्य अवधारणा का विशेषीकरण करने की प्रवृति बढती जा रही है. यही कारण है कि हिंदुत्व के सार्वभौमिक समानता और बंधुता के दर्शन को नजरंदाज कर दिया जा रहा है. जबकि प्राणियों में सद्भावना और विश्व का कल्याण हिंदुत्व दर्शन का आधार है और मुस्लिम या कोई भी अन्य मतावलंबी उसी प्राणी जगत व विश्व का भाग है. जहां दूसरे धर्मावलंबियों ने अपने विस्तार के लिए विविधता को नष्ट किया वहीं हिंदुत्व इसका निषेध करता है. हिंदुत्व की आक्रामकता उसके विस्तार के लिए नही बल्कि अपने बचाव के लिए हैं.


जब सरसंघचालक मोहन भागवत या संघ यह कहता है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है तो इसका मतलब सांस्कृतिक संबोधन है. विविधता को स्वीकारना और सम्मान देना हिंदू संस्कृति का घोष वाक्य और मौलिक आधार है. चूंकि ये सोच सनातन धर्म और उसके मानने वालों की देन है. इसलिए यह हिंदू धर्म का प्रर्याय बन जाता है. भारतीय धर्म और भारतीय संस्कृति में कोई भेद नहीं रह जाता है. भारत अथवा अपने को हिंदू मानने वालों का राष्ट्रबोध विश्वबोध के बिना अधूरा है. संघ ये नहीं कहता है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है. संघ यह कहता है कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है. हिंदुत्व की सोच भारत की आत्मi है. अगर ये चला गया तो भारत भारत नहीं रहेगा.


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)