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संघ परिवार और बीजेपी के लिए अचानक वंदे मातरम एक बड़ा एजेंडा बन गया. बंगाल में चुनाव है इसलिए इस पर संसद में 10 घंटे लंबी बहस हो गयी. वहां 26 फीसदी के आसपास मुस्लिम वोट है और मुसलमानों को वंदे मातरम से परहेज है, तो बीजेपी के खेलने का मैदान थोड़ा और बड़ा हो गया. बंगाल के बाद तमिलनाडु में चुनाव है. बीजेपी वहां भी पैठ बनाने की फिराक़ में है. इसलिए संघ ने मदुरै के मुरुगन मंदिर में दीपोत्सव का मुद्दा लपक लिया. खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस पर बयान दिया.

सवाल है कि संघ परिवार को चुनाव चुनाव ही ऐसे मुद्दे क्यों मिलते हैं ? और ये कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का अल्टीमेट लक्ष्य क्या है ? एक ‘जनरल़’ सा जवाब तो यही है कि हिंदू राष्ट्र ! मगर इस ‘जेनेरेलाइजेशन’ से बाहर निकलना पड़ेगा, तब जवाब शायद कुछ और सुनाई दे.

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बंगाल के वरिष्ठ पत्रकार राजीव पांडे कहते हैं कि “पिछले चुनाव में मोदी जी ने गुरूदेव टैगोर जैसी भंगिमा बनायी. इसका बहुत नहीं तो थोड़ा फायदा तो बीजेपी को हुआ ही. मगर टैगोर बंगाल के लिए एक सांस्कृतिक प्रतिमा हैं उनके नाम पर वैसा ध्रुवीकरण नहीं हो सकता, जैसा बंकिम चंद्र चटर्जी के बंदे मातरम पर हो सकता है” वंदेमातरम में भारत माता दुर्गा की तरह चित्रित हैं, इसीलिए अब तक उसके दो स्टैंजा ही चलन में रहे.

11 साल के मोदीराज में पूरे हुए बड़े लक्ष्य

बहरहाल 11 साल के मोदीराज में संघ परिवार ने दो बड़े ‘टारगेट’ पूरे किए. अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाना और कश्मीर से धारा 370 हटाना. तीसरा बचा यूनिफॉर्म सिविल कोड, तो उसकी तकनीकी दिक्कतें तमाम हैं; मगर उसके लिए भी ज़मीन बनाने का काम तो जारी है. ऐसे में बहुत से लोगों को ये सवाल ही बेमानी लगता है, कि संघ का अल्टीमेट लक्ष्य क्या है ?

बीजेपी अभी बिहार से चुनाव जीत कर निकली है. वहां के वरिष्ठ सोशलिस्ट नेता शिवानंद तिवारी बड़ी बेबाकी से कहते हैं ,“हिंदू राष्ट्र तो अल्टीमेट लक्ष्य है. संघ को फिलहाल हिन्दू राष्ट्र नहीं सत्ता पर हिंदुत्व का कब्ज़ा चाहिए. आज़ादी के बाद से ही दिल्ली पर भगवा वर्चस्व उसका सपना है”

आज़ादी के बाद नेहरू सरकार के तमाम कदम उसने अशुभ करार दिए. तिरंगे के तीन रंगों को नकारते हुए, संघ ने भगवा ध्वज की ज़ोरदार पैरवी की. ये भगवा ध्वज शिवाजी की हिंदू पद पादशाही की देन है. नए संविधान की जगह संघ ने मनुस्मृति की डिमांड की. मगर इस सारे छिद्रान्वेषण का मकसद बस एक था सत्ता पर हिंदुत्व का वर्चस्व. अगर जिन्ना ने मुसलमानों के नाम पर पाकिस्तान ले लिया तो बचा हुआ हिंदुस्थान हिंदुओं का है. इसकी बागडोर हिंदुत्ववादियों के हाथ में होनी चाहिए. आप इसे यूं समझिए की मुस्लिम लीग का जो तर्क था-अंग्रेजों ने सत्ता हमसे छीनी तो हमें ही लौटानी चाहिए. (जबकि ये तथ्य पूरी तरह गलत था, अंग्रेजों ने सत्ता लालकिले से नहीं छीनी थी) मगर संघ और हिंदू महासभा की मांग भी दबी ज़बान यही थी. हिंदुस्थान हिंदुओं का ! लेकिन ये तब की बात है, जब सियासत में संघ के पास बहुत छोटी जगह थी. पिछले 11 साल से तो वो लगभग पूर्ण बहुमत में मजबूत सरकार चलवा रहा है. ऐसे में ये कहना कि वो हिंदू राष्ट्र के अपने लक्ष्य से दूर जा रहा है, थोड़ा अजीब लग सकता है. मगर संघ अपने एजेंडे माहौल के मुताबिक बैक बर्नर पर डाल सकता है, या उन्हें हमेशा के लिए भुला सकता है.

सत्ता में आने के लिए संघ ने हिंदू राष्ट्र का ख्वाब दिखाया, मगर आज संघ का सपना और लक्ष्य दोनों बदल चुके हैं. बीजेपी जब पावर में है तो संघ बदलता हुआ ‘ग्लोबल आर्डर’ भी देख रहा है. इस वर्ल्ड ऑर्डर में यहूदी - ईसाई वर्चस्व साफ़ दिख रहा है. ख़ुद को दुनिया का चौधरी कहने वाले अमेरिका में फैसलकुन ताक़त कौन है सबको पता है. उसका सबसे मजबूत मिलिट्री कॉम्प्लेक्स ही यहूदियों के कब्ज़े में है, जिनके पास ‘सेकेंड वर्ल्ड वॉर’ तक अपना होम लैंड नहीं था. आज वो हथियारों से लेकर मीडिया तक के बिजनेस मे हैं. अब यहां एक तथ्य पर ग़ौर करिए नाटो देशों को जो थ्रेड आपस में जोड़ता है, उसमें ईसाइयत का भी बड़ा रोल है. दुनिया में 120 मुल्क ईसाई बहुल हैं, बावजूद इसके वैटिकन और ग्रेट ब्रिटेन समेत 8 देश ही घोषित तौर पर ईसाई हैं.

आप कह सकते हैं कि दुनिया के चौधरी - यानि मास्टर्स ऑफ द वर्ल्ड - अगर बिना रिलीजियस ब्रांडिंग के एवेंजलिस्ट बने हुए हैं - चर्च का काम स्मूथली चल रहा है - तो क्रॉस को राज चिन्ह में शामिल करने की जरूरत क्या है ?

जबकि वहीं आधी दुनिया उम्मा के नाम पर जिहाद में है. डेमोग्राफी बदलते और मुस्लिम डॉमिनेंस होते ही मुल्क इस्लामिक रिपब्लिक बन जाते हैं और पश्चिम की निगाह में चढ़ जाते हैं. आज घोषित तौर पर 57 मुस्लिम देशों का संगठन ओआईसी है, जिनमें एक पाकिस्तान भी है जिसके पास एटम बॉम्ब है. मगर पश्चिमी देशों ने इन्हें इतना लाचार बना रखा है कि ये साल भर में एक अधिवेशन करते हैं और फिर अमेरिका और नाटो मुल्कों से वैलिडेशन की बाट देखते हैं. इज़रायल गज़ा पर कहर ढा देता है तो ट्रंप कुछ खास नहीं कहते. ईरान अटैक करता है तो उसके एटमी ठिकानों पर हमला हो जाता है. भारत में एक मणिपुर होता है तो उस पर पश्चिम का सख्त रिएक्शन आ जाता है.

अब ऐसे ग्लोबल हालात में संघ घोषित हिंदू राष्ट्र का सपना देखे, ये ‘पॉलिटिकली परफेक्ट’ तो नहीं लगता. वो भी तब जबकि उसके पास ‘प्रैक्टिकली साउंड’ अंग्रेजी दां थिंक टैंक हैं.

संघ के टॉप ऑर्डर का नया कथन

यही वजह है कि संघ का टॉप ऑर्डर कहने लगा है, भारत तो हिंदू राष्ट्र है ही, उसे बनने की ज़रूरत क्या है ? जाहिर है संघ ये बात हिंदू बहुसंख्या के आधार पर कह रहा है, मगर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के एक्सपर्ट प्रो पुष्पेश पंत कहते हैं, “संघ के लोग यथार्थवादी हैं. उन्हें पता है कि अखंड भारत का नारा जोश जगा सकता है, मगर अब ये संभव नहीं है. उसी तरह हिंदू राष्ट्र का मामला है. हिंदुत्व के एजेंडे के तहत जो काम होने हैं वो हो ही रहे हैं, फिर खुद को हिंदू राष्ट्र घोषित कर दुनिया की निगाह में चढ़ना क्या ?”

(यह लेखक के निजी विचार हैं.)