जनवरी की शुरुआत हो चुकी है। आज से ठीक 22वें दिन वहाँ बन रहे श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में रामलला विराजमान हो जाएंगे, वह मंदिर लोकार्पित हो जाएगा, लोगों के लिए खुल जाएगा. इसका एक आर्थिक पक्ष तो है ही, जहां हजारों करोड़ रुपयों की परियोजना अयोध्या में शुरू हो रही है, बन रही है या बन चुकी है. इसका राजनीतिक पक्ष तो है ही, जिसे लेकर फिलहाल सत्ताधारी भाजपा और उसके विरोधी दलों में तलवारें खिंची हुई हैं, लेकिन इसका एक सांस्कृतिक पक्ष भी है, जिस पर बात नहीं हुई है, इसका एक लौकिक पक्ष भी है, लोकाचार का एक आयाम भी है, जिस पर बात करने की जरूरत है. 


राम मंदिर की है लोकसंस्कृति


एक सांस्कृतिक सभ्यता के रूप में देखा जाए तो भारत हजारों वर्षों पुरनी सभ्यता और संस्कृति का केंद्र है. यह संस्कृति ज्ञान की है, अध्यात्म की है, विविधता की है और इसमें विज्ञान भी समाहित है. इस संस्कृति में कला और नैतिकता तो है ही. यानी हम कह सकते हैं कि जीवन का शायद ही कोई पक्ष अछूता बचा है, जो इस सभ्यता और संस्कृति में जगह न पा सके.  एक विशिष्ट बात देखने की यह है कि यह सार्वभौमिक होते हुए भी समावेशी है और यही इसका अद्भुत होना दिखाता है. यह अपने दिव्य अवतारों से जुड़ा होता है. उनसे खेल सकता है, उनसे बात कर सकता है, शिकायत कर सकता है, उनसे लड़-झगड़ भी सकता है. यही इसका लोक के साथ तादात्म्य है. हम अगर शास्त्रों की बात करें तो वाल्मीकि के राम हैं, कभी तुलसी के राम हैं, जो अवतारी पुरुष हैं, देवता हैं. हालांकि, वही राम जब लोक में उतरते हैं तो वह राजा राम हो जाते हैं, पुरुष राम हो जाते हैं और एक सामान्य मानव की तरह ही लोक उनसे बरतता है, लोक उनसे वैसा ही व्यवहार भी करता है. 



लोक में व्याप्त हैं राम 


कभी उदासी में वह दुखी राम हो जाते हैं, जो पत्नी जानकी के विरह में जंगल के पेड़-पत्तों से उसका पता पूछते हैं, विरह में व्याकुल होकर विलाप भी करते हैं, तो कभी खुशी में वह ठहाका लगाने वाले राम हो जाते हैं. यानी, लोक उनके साथ अपनी भाषा सीख लेता है.  राम तो दिनचर्या का हिस्सा हैं और वह लोकमानस के पीछे पानी की सी तरलता से बहता है. राम वहां भाषा और संस्कृति का हिस्सा हो जाते हैं. संस्कृति के मूल्यों को, विश्वासों को, परंपराओं और रीति-रिवाजों को अपने भीतर संजोकर यह भाषा पहुंचाती है. राम के जरिए आपकी संस्कृति लगातार बढ़ती है, चढ़ती है. शब्द गढ़े भी जाते हैं, बढ़े भी जाते हैं.


अब लोकव्यवहार की भाषा में राम की उपस्थिति को देखिए. गीतों की भाषा में एक अलग संस्कार है, जहां हर मां कोसल्या हो जाती है और बच्चा तो खैर राम है ही. इसी को अगर आगे बढ़े तो जिस भी बच्चे का उपनयन होता है, वह राम ही है- "राम बरुआ गोदिया ले लें, जेक्कर जनेऊआ होखे", शादी-विवाह की बात करें तो मिथिला की हरेक शादी में दूल्हा राम ही तो है- "अरे बता द बबुआ, लोग देत काहें गारी, एक भाई गोर काहें, एक भाई कारी", तो यहां राम दामाद भी हो गए. 



राम हैं भारत के कण-कण में


संस्कारों और रिवाजों की, परंपरा की अगर बात करें तो दिन की हरेक भाषा में राम हैं. दो लोग एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं, तो "राम-राम" या जय राम जी की कहते हैं. जीवन-दर्शन की बात करें तो सब "राम जी की माया, कहीं धूप कहीं छाया" पर लोग उसे समाहित कर देते हैं, लोकाचार में तो "होली खेले रघुबीरा अवध में..."है ही. खेत पर अगर पहुंचे तो वहां अगर चिड़िया फसल खा रही है, तो किसान उसे "रामजी की चिरई" मानकर खाने भी देता है. हर संज्ञा के साथ विशेषण के तौर पर राम हैं और जब सनातनी की अंतिम यात्रा होती है, तो भी "राम नाम सत्य है" के साथ ही उसे अंतिम यात्रा पर भेजा जाता है, उसे चिता पर लिटाया जाता है. 


जय श्रीराम नहीं है आक्रामक 


जो लोग "जय श्रीराम" को आक्रामक उद्घोष या नारा लगता है. यह उन लोगों की नासमझी है, जिन्होंने रामलला को नहीं खिलाया है, जिन्होंने राम के बालरूप की परिकल्पना को समझा है, जिन्होंने किशोरावस्था में राम की कल्पना की और न ही विवाह के समय बरुआ बने देखने की कल्पना की. उसने तो कोदंडधारी राम को ही देखा और देखा उस वानर सेना को जो जय श्रीराम के उद्घोष के साथ युद्ध में कूद जाती है. यह बात नासमझी की है. अगर आप रामजी की चिरई को देखेंगे तो जय श्रीराम कहीं से युद्धघोष नहीं लगेगा. जरा लोकोक्तियां देखिए- "मुंह में राम, बगल में छुरी", "राम-राम जपना, पराया माल अपना", "रामभरोसे" ...इत्यादि क्या है? तो, जो राम के इतने स्वरूपों को नहीं समझेगा, नहीं जिएगा, जो राम की राजनीति करने के बजाय राम पर राजनीति करेगा, उसके लिए तो हमेशा ही रावण का संहार करने वाले, असंख्य वानरी सेना के साथ आक्रमण करने वाले आक्रामक राम के तौर पर ही जानेगा, क्योंकि वह खुद आक्रामक है. 


लोकजीवन में तो राम गणित और व्यापार तक में हैं. गौर करने की बात है कि जब गिनती शुरू की जाती है तो शुरुआत एक से नहीं करते हैं, रामइ राम, रामइ दू, रामइ तीन...करते हैं. सोहर से लेकर श्मशान तक राम हैं. इसलिए, राम पर राजनीति जो हो रही है, वह ठीक नहीं है. यहां तक कि दिग्गज समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया तक ने यह कहा है कि राम, कृष्ण और शिव को इस भारत-भूमि से अलग नहीं किया जा सकता. राम तो भय की विषय-वस्तु हो ही नहीं सकते, वह तो जीवदायी नाम हैं, अमृत हैं. 


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]