कांग्रेस राजस्थान में सत्ता बरकरार रखने की चुनौती के साथ आगामी विधानसभा चुनाव में उतरने की तैयारियों में जुटी है. इस बीच सचिन पायलट ने जिस तरह का बयान दिया है, ये राजस्थान में कांग्रेस के लिए सुकून देने वाला बयान है.


पिछले 3-4 साल से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ सचिन पायलट मोर्चा खोले हुए. उनके रवैये को देखते हुए कहा जा रहा था कि विधानसभा चुनाव से पहले कोई बड़ा फैसला कर सकते हैं. राजस्थान की सत्ता को फिर से हासिल करने की तैयारियों में जुटी बीजेपी को भी अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच जारी रार से फायदा मिलने की उम्मीद थी. हालांकि अब सचिन पायलट ने जो कहा है, उससे साफ है कि आगामी चुनाव में वे पूरी मजबूती के साथ कांग्रेस को फिर से सत्ता में लाने के लिए अशोक गहलोत के साथ कदम से कदम मिलाने को बिल्कुल तैयार हैं.


सचिन पायलट के रुख़ में नरमी से पार्टी को राहत


कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने 6 जुलाई को दिल्ली में राजस्थान के तमाम बड़े नेताओं के साथ पार्टी की चुनावी रणनीति को लेकर बैठक की थी. इस बैठक में सचिन पायलट भी शामिल हुए थे, जबकि अशोक गहलोत वर्चुअली बैठक से जुड़े थे. इस बैठक को इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले राजस्थान कांग्रेस में गहलोत-पायलट के बीच जारी खींचतान पर पूर्ण विराम लगाने के लिहाज से अहम बताया गया था.


अब 8 जुलाई को पीटीआई से इंटरव्यू में सचिन पायलट ने ये कहकर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को राहत प्रदान किया कि सामूहिक नेतृत्व ही चुनाव में आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है. पायलट ने भी कहा कि आगामी चुनाव में पार्टी के सभी नेता एकजुट होकर लड़ेंगे.



सचिन पायलट के रुख में बदलाव का संकेत दरअसल दिल्ली में 6 जुलाई को हुई बैठक के बाद ही मिल गया था. बैठक के बाद कांग्रेस महासचिव ने संकेत दिया था कि पार्टी चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं करेगी. एक तरह से पार्टी आलाकमान से मिले इस आश्वासन को ही सचिन पायलट के सुर में बदलाव को सबसे बड़ा कारण माना जा सकता है. शायद यहीं वजह है कि जब सीएम चेहरे पर सवाल किया गया तो सचिन पायलट का कहना था कि दशकों से कांग्रेस की परंपरा बिना सीएम चेहरा घोषित किए चुनाव लड़ते रही है.



अशोक गहलोत से 36 का था आंकड़ा


सचिन पायलट के रुख और अगले कदम को लेकर पिछले तीन साल में कई तरह के कयास और अटकलें लगते रही हैं. आपको याद होगा कि जब सचिन पायलट ने जुलाई 2020 में अपने कई करीबी विधायकों के साथ गहलोत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. उसके बाद से लगातार दोनों ही नेताओं ने एक-दूसरे पर जुबानी तीर चलाने का कोई मौका नहीं छोड़ा था.


जुलाई 2020 के बाद से ही कई बार ये भी कहा गया कि या तो पायलट अपनी खुद की पार्टी बना सकते हैं या फिर बीजेपी का दामन थाम सकते हैं. हालांकि इन अटकलों में कोई ज्यादा दम नहीं था क्योंकि कम उम्र से ही सचिन पायलट की छवि एक सुलझे नेता के तौर पर रही है.


राजस्थान की राजनीति का पायलट को है भान


भले ही सियासी गलियारों में चर्चा हो रही थी कि पार्टी आलाकमान से मन मुताबिक फैसला नहीं लेने पर चुनाव से पहले वो अपना रास्ता अलग कर सकते हैं, लेकिन सचिन पायलट को ये बात पता है कि कांग्रेस से अलग रास्ता बनाना इतना आसान नहीं है. राजस्थान जैसे राज्य में जहां सिर्फ़ दो ही दलों कांग्रेस और बीजेपी  का शासन रहा हो, उस राज्य में नई पार्टी का सफर काफी लंबा और मुश्किल है. सचिन पायलट इस वास्तविकता से भली-भांति वाकिफ होंगे.


सचिन पायलट ने संयम का दिया परिचय


जहां तक बीजेपी के साथ जाने की बात थी, तो ये भी सचिन पायलट के राजनीतिक भविष्य और मुख्यमंत्री बनने की इच्छा के नजरिए से कोई अच्छा विकल्प नहीं था. इस बात का भी सचिन पायलट को बखूबी अंदाजा होगा. राजस्थान में बीजेपी के पास पहले से वसुंधरा राजे समेत कई ऐसे नेता हैं, जिनकी मुख्यमंत्री पद पर नज़र है. ऐसे में बीजेपी के पाले में जाने पर भी सचिन पायलट को ज्यादा से ज्यादा ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह केंद्र में मंत्री का पद मिल सकता था. अशोक गहलोत की उम्र 72 साल हो चुकी है और 45 साल के सचिन पायलट की गिनती देश के सबसे तेज-तर्रार नेताओं में होती है. उम्र के हिसाब से पायलट के पास अभी राजनीति मंसूबों को पूरा करने के लिए काफी मौका है. ये भी एक पहलू है, जिसकी वजह से अशोक गहलोत से भारी नफरत होने और शीर्ष नेतृत्व से बार-बार अनदेखी के बावजूद सचिन पायलट ने पार्टी से बाहर जाने का रास्ता नहीं चुना.


कर्नाटक में पार्टी की जीत से भी बदला रवैया


सचिन पायलट के रुख में नरमी आने के पीछे एक बड़ी वजह कर्नाटक में कांग्रेस को मिली बड़ी जीत भी है. गहलोत-पायलट की तर्ज पर ही माना जाता था कि कर्नाटक में भी सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार के बीच खींचतान जारी है. हालांकि चुनाव से पहले आपसी कलह को किनारे रखते हुए मजबूती से पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए दोनों नेताओं ने मिलकर जी तोड़ मेहनत की और इसका कांग्रेस को फल भी मिला. कर्नाटक का रिजल्ट एक तरह से जहां-जहां कांग्रेस की सरकार है या कांग्रेस की स्थिति थोड़ी अच्छी है, वहां के नेताओं के लिए सीख या सबक का काम कर रहा है. कहीं न कहीं सचिन पायलट और अशोक गहलोत पर भी इसका असर जरूर हुआ होगा.


पायलट के नरम रुख से कांग्रेस को मिली है मजबूती


राजस्थान में पिछले ढाई दशक से एक बार बीजेपी और एक बार कांग्रेस की सरकार बनने का सिलसिला है. इस परिपाटी के हिसाब से इस बार बीजेपी का नंबर है और कांग्रेस इसी परिपाटी को तोड़ना चाहती है. इस लक्ष्य के लिए ये जरूरी है कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट की खींचतान चुनाव से पहले खत्म हो. कांग्रेस नेता के तौर गहलोत और पायलट दोनों का ही राजस्थान में अच्छा-खासा प्रभाव है. सचिन पायलट की चुनावी रणनीति का कौशल पार्टी  2018 के विधानसभा चुनाव में ही देख चुकी है. सचिन पायलट के बतौर पार्टी प्रदेश अध्यक्ष रहने के दौरान ही पिछले चुनाव में कांग्रेस, बीजेपी को करारी मात देते हुए राज्य सरकार बनाने में कामयाब हुई थी. अब सचिन पायलट के नरम होते रुख से कांग्रेस की उम्मीदों को एक बार फिर से मजबूती मिली है.


फायदा मिलने की बीजेपी की उम्मीदों को धक्का


जहां सचिन पायलट के नरम होते रुख से कांग्रेस को राहत मिली है, वहीं इससे बीजेपी की चिंता जरूर बढ़ गई होगी. दिसंबर 2018 से सत्ता से गायब रहने के दौरान राजस्थान में बीजेपी के भीतर ही कई गुट बन चुके हैं. इनमें पार्टी की वरिष्ठ नेता और दो बार राज्य की मुख्यमंत्री रह चुकीं वसुंधरा राजे और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया के बीच रार पिछले 3-4 साल से सुर्खियों में रहा है. इनके अलावा केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के मुख्यमंत्री बनने की लालसा को लेकर भी खबरें आते रही हैं.


बीजेपी भी जूझ रही है आपसी खींचतान से


वसुंधरा राजे की मर्जी नहीं होने के बावजूद सितंबर 2019 में अंबर से विधायक सतीश पूनिया को राजस्थान बीजेपी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया जाता है. इस घटना के बाद से तो राजस्थान की बीजेपी इकाई और वसुंधरा राजे के बीच खींचतान और भी बढ़ जाती है.


वसुंधरा राजे और सतीश पूनिया के बीच तनातनी


वसुंधरा राजे और सतीश पूनिया के बीच तनातनी का असर पार्टी पर पड़ सकता था. इसको देखते हुए पार्टी ने दोबारा प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी के लिए सतीश पूनिया पर भरोसा नहीं जताया. इस साल मार्च में उनकी जगह चित्तौड़गढ़ से सांसद चंद्र प्रकाश जोशी को राजस्थान बीजेपी का अध्यक्ष बना दिया जाता है और यहीं से वसुंधरा राजे को लेकर पार्टी के रवैये में बदलाव का सिलसिला भी दिखने लगता है.


वसुंधरा के नाम पर ही बीजेपी लड़ेगी चुनाव!


चाहे राजस्थान में बीजेपी के तमाम बड़े नेता ये दावा करें कि उनकी भी दावेदारी सीएम पद को लेकर है, लेकिन अभी भी वसुंधरा जैसा कद वहां किसी और बीजेपी नेता में नहीं दिखता है. यहीं वजह है कि पिछले विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद कुछ साल तक अनदेखी करने के बावजूद चुनावी साल यानी मार्च 2023 में सतीश पूनिया की जगह सीपी जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व ने पहला संकेत दे दिया था कि पार्टी वसुंधरा राजे को आगे रखकर ही चुनाव लड़ेगी.


पीएम मोदी और अमित शाह दे चुके हैं संकेत


इस प्रकरण के बाद 31 मई को अजमेर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हुई रैली से भी वसुंधरा राजे की दावेदारी को मजबूती मिली. इस रैली में वसुंधरा राजे भी मंच पर मौजूद थी. इस दौरान दोनों नेताओं के हाव-भाव से ही ये संकेत मिल गए थे कि बीजेपी राजस्थान में कर्नाटक वाली ग़लती नहीं दोहराएगी. इसकी भरपूर संभावना है कि वसुंधरा राजे को ही आगे कर विधानसभा चुनाव के दंगल में उतरेगी.


कुछ दिन पहले ही उदयपुर की रैली में वरिष्ठ नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने वसुंधरा राजे को लेकर जैसा रुख दिखाया, उससे भी इसके भरपूर संकेत मिलते हैं कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व वसुंधरा राजे पर सीएम चेहरे का दांव खेल सकता है. इस रैली में वसुंधरा राजे का भाषण नहीं होने पर खुद अमित शाह ने उन्हें टोका और अपने से पहले वसुंधरा को बोलने का मौका दिया. इतना ही नहीं अमित शाह ने जनसभा को संबोधित करते हुए कई बार पूर्व सीएम वसुंधरा राजे की तारीफ भी की.


प्रदेश कार्यकारिणी की नई टीम से भी संकेत


अभी हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी ने प्रदेश कार्यकारिणी की नई टीम बनाई है. कहा जा रहा है कि इसमें वसुंधरा के समर्थकों को ज्यादा जगह मिली है और सतीश पूनिया के समर्थकों को प्रदेश कार्यकारिणी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है. राज्य में पार्टी के वरिष्ठ नेता माने जाने वाले और वसुंधरा राजे के आलोचक मदन दिलावर को भी इसमें जगह नहीं दी गई है. वे सतीश पूनिया के समय प्रदेश कार्यकारिणी में थे और मदन दिलावर को सतीश पूनिया का करीबी भी माना जाता है. राजस्थान की राजनीति को अच्छे से समझने वाले लोगों का कहना है कि शीर्ष नेतृत्व से मिले संकेत के बाद ही प्रदेश संगठन में वसुंधरा राजे की टीम को मजबूती मिल रही है. ये एक तरह से आगामी चुनाव में वसुंधरा राजे की अगुवाई को स्वीकारने सरीखा है.


गुटबाजी का बीजेपी कैसे निकालेगी तोड़?


राजस्थान विधानसभा चुनाव में अब महज़ 4 महीने बचे हैं, उसके बावजूद सतीश पूनिया और वसुंधरा राजे के बीच खींचतान किसी न किसी बहाने मीडिया की सुर्खियां बन ही जा रही है. अभी भी जहां प्रदेश इकाई की ओर से कोई कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है तो वहां वसुंधरा राजे और सतीश पूनिया दोनों के तरफ से ये कोशिश रहती है दोनों का आमना-सामना न हो. जैसे 23 जून को अशोक गहलोत सरकार के खिलाफ जयपुर में बीजेपी का बड़ा प्रदर्शन हुआ था. सभी बड़े नेता पैदल मार्च कर राजभवन पहुंचे थे, लेकिन वसुंधरा राजे और सतीश पूनिया दोनों ही इसमें शामिल नहीं हुए थे. 13 जून को बीजेपी के सचिवालय घेराव कार्यक्रम से भी दोनों नेता गायब रहे थे. मई में नागौर में प्रदेश कार्यसमिति की बैठक से भी वसुंधरा राजे दूर रहीं थीं.


मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक के बाद एक लोकलुभावन वादे और घोषणाओं की एलान कर रहे हैं, वो साफ दिखाता है कि कांग्रेस इस बार राजस्थान में हर पांच साल पर सत्ता परिवर्तन की परंपरा बदलने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है. उसके साथ ही इस वक्त कांग्रेस के लिए ये एक बड़ी ताकत है कि राजस्थान में उसके पास गहलोत और पायलट के तौर पर दो ऐसे बड़े स्थानीय नेता मौजूद हैं, जिनका सूबे में बड़ा जनाधार है. अब तो सचिन पायलट के नरम होते रुख से भी पार्टी की ताकत और बढ़ने की संभावना है.


ऐसे में बीजेपी को आपसी गुटबाजी भारी पड़ सकता है. हालांकि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व इस कोशिश में है कि आपसी खींचतान का असर चुनाव पर न पड़े. इसी नजरिए विधानसभा चुनाव से पहले बीजेपी सांसद किरोड़ी लाल मीणा और सतीश पूनिया को राष्ट्रीय कार्यसमिति का सदस्य बनाया गया है. जाट वोट बैंक को साधने के लिहाज से सतीश पूनिया पार्टी के लिए काफी अहम हैं.


गुटबाजी से निपटना वसुंधरा के लिए भी चुनौती


अगर वसुंधरा राजे चाहती है कि राजस्थान में बीजेपी की सत्ता में वापसी हो, उनके सामने आपसी गुटबाजी से निपटने की एक बड़ी चुनौती होगी. ये भी एक तथ्य है कि राजस्थान में वसुंधरा राजे के तौर पर बीजेपी के पास बहुत बड़ा चेहरा है, इसको आगे रखकर अशोक गहलोत-सचिन पायलट की साझा ताकत का मुकाबला बीजेपी कर सकती है. कर्नाटक चुनाव के बाद बीजेपी नहीं चाहेगी कि राजस्थान में सिर्फ पीएम मोदी के चेहरे को आगे बढ़ाकर चुनाव लड़ा जाए. कर्नाटक में बीजेपी की हार का एक प्रमुख कारण दमदार स्थानीय चेहरे का अभाव भी था.  इसलिए राजस्थान में बीजेपी स्थानीय चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ने की रणनीति पर बढ़ेगी, इसकी पूरी संभावना दिख रही है.


वसुंधरा राजे का विकल्प खोजना मुश्किल


ऐसे भी वसुंधरा राजे का कद राजस्थान में इतना बड़ा है कि बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व चाहकर भी उनकी उपेक्षा चुनाव में नहीं कर सकता है. ढाई दशक से राजस्थान की सत्ता वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत के इर्द-गिर्द ही घूमते रही है. गहलोत-पायलट की साझा ताकत का काट वसुंधरा राजे ही बन सकती हैं. दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रह चुकीं 70 साल की वसुंधरा राजे का प्रभाव राज्य के हर इलाके में है. पिछले 25 साल से बीजेपी की सिर्फ वहीं एक नेता हैं जिन्हें राजस्थान के हर वर्ग का समर्थन मिलते रहा है.  वसुंधरा राजे राजस्थान की राजनीति की माहिर खिलाड़ी मानी जाती हैं. भैरो सिंह शेखावत को छोड़ दें, तो वसुंधरा राजे ही एक मात्र नेता हैं, जिनके पास बीजेपी की ओर से राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का अनुभव है. वसुंधरा राजे दो बार राजस्थान की मुख्यमंत्री रही हैं.


2013 में वसुंधरा राजे की अगुवाई में बीजेपी ने राज्य की 200 में से 163 सीटों पर जीत दर्ज की थी. कांग्रेस सिर्फ 21 सीट पर सिमट गई थी. राजस्थान में इतनी बुरी स्थिति कांग्रेस की कभी नहीं हुई थी. वसुंधरा राजे का ही करिश्मा था कि 2013 में बीजेपी ने राजस्थान में अब तक का सबसे बढ़िया प्रदर्शन किया था. राजस्थान में ये बीजेपी की सबसे बड़ी जीत थी. राजस्थान के राजनीतिक इतिहास में अब तक कोई भी पार्टी इतनी सीटें नहीं जीत पाई है. सूबे में वसुंधरा राजे से बड़े कद का बीजेपी के पास फिलहाल कोई नेता नहीं दिखता. तमाम विरोधाभासों के बावजूद अभी भी वसुंधरा राजे राजस्थान में जननेता के तौर पर बेहद लोकप्रिय हैं.


हालांकि इन सभी बातों के पक्ष में होने के बावजूद वसुंधरा राजे और बीजेपी दोनों के लिए आपसी गुटबाजी सबसे बड़ी चुनौती है, जिसका समाधान नहीं अगर वक्त रहते वसुंधरा राजे नहीं निकाल पाई तो फिर उनके लिए भी राजस्थान की सत्ता से जुड़े सियासी दंगल को साधना आसान नहीं होगा.


2024 के लोकसभा चुनाव को देखते हुए भी राजस्थान विधानसभा का आगामी चुनाव बीजेपी के लिए काफी महत्वपूर्ण है. ये वो राज्य है, जहां बीजेपी 2014 और 2019 दोनों ही लोकसभा चुनाव में शत-प्रतिशत सीटें जीत चुकी है. राजस्थान में कुल 25 लोकसभा सीटें हैं. ऐसे में 2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से भी बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए राजस्थान काफी महत्वपूर्ण है. जहां बीजेपी की नज़र एक बार फिर से 2024 में सभी सीटों पर जीत पर रहेगी, वहीं विधानसभा चुनाव जीतकर उसके प्रभाव से कांग्रेस चाहेगी कि आगामी आम चुनाव में भी पार्टी कुछ बेहतर प्रदर्शन कर सके.


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