श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराकर राहुल गांधी ने एक हुंकार भरी है देश की सत्ता को बदलने के लिए. 135 दिनों तक 4 हजार किलोमीटर तक चली इस भारत जोड़ो यात्रा के जरिये क्या सचमुच वे देश का मानस बदलते हुए "मोदी मैजिक" को इतनी आसानी से तोड़ पाएंगे? दरअसल, राहुल ने बीजेपी से मोर्चा लेने के लिए 22 साल पुरानी जिस कहानी को दोहराया है वो तो उनसे ज्यादा पीएम नरेंद्र मोदी के पक्ष में जाती दिख रही है. 


इसलिए कि साल 1990 में मोदी पार्टी के एक मामूली पदाधिकारी थे लेकिन तब बीजेपी के अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी की कन्याकुमारी से कश्मीर तक शुरू हुई उस यात्रा के वही संचालक थे. उस यात्रा का मकसद भी देश को एक सूत्र में बांधने के अलावा आतंकवादियों को कड़ा संदेश भी देना था. तब कश्मीर घाटी में सिर्फ आतंकियों की ही तूती बोला करती थी लेकिन उसके बावजूद 26 जनवरी 1991 को जोशी और मोदी ने श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा ध्वज लहराकर ये संदेश दिया था कि हम आतंकवाद के सामने घुटने टेकने वालों में से नही हैं. उस लिहाज़ से ये समझना भी जरुरी है कि जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटने के बाद वही घाटी पहले से ज्यादा सुरक्षित बनी है या नही?


हालांकि राहुल गांधी की इस यात्रा पर बहुत सारे सियासी सवाल उठाए गए और उनमें भी सबसे बड़ा आरोप ये लगाया गया कि यह यात्रा सिर्फ राहुल की छवि को चमकाने के लिए है ताकि वे विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बनकर उभरें जो 2024 में मोदी को टक्कर दे सके. वे इसमें कितना कामयाब होंगे ये फिलहाल तो कोई नहीं जानता. कमोबेश इसका अहसास राहुल को भी है. शायद इसीलिए रविवार को श्रीनगर में हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्हें ये सफाई देनी पड़ी कि 'विपक्ष बिखरा हुआ नहीं है, सिर्फ आपसी संवाद की कमी है, जिसे मिल-बैठकर सुलझा लिया जायेगा. लेकिन ऑपोजिशन एक साथ लड़ेगी एक साथ खड़ी होगी और विचारधारा की लड़ाई है जो एक तरफ आरएसएस-बीजेपी वाले हैं दूसरी तरफ नॉन आरएसएस-बीजेपी वाले हैं.'


चलिए, हम राहुल के इसी दावे पर यकीन कर भी लेते हैं लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि ममता बनर्जी, के.चंद्रशेखर राव और अरविंद केजरीवाल जैसे क्षत्रप उनकी हां में हां मिलाते हुए अपना और समूचे विपक्ष का भी नेता उन्हें मान ही लेंगे. अगर ये नहीं मानते तो मतलब ये कि समूचा विपक्ष एकजुट नहीं है. ऐसे कमजोर विपक्ष का मोदी को सत्त्ता से बाहर करने का सपना पालना दिन में तारे देखने जैसा ही होगा. हालांकि दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक की गई राहुल की इस लंबी यात्रा को कोई भी सियासी विश्लेषक गलत नहीं ठहरायेगा और न ही इसकी तीखी आलोचना करेगा. इसलिये कि राहुल ने मीडिया के जरिए नहीं बल्कि सीधे लोगों के बीच जाकर सरकार की नीतियों और उसके लिए कुछ फैसलों के खिलाफ आवाज उठाते हुए विपक्ष के नेता की भूमिका को असरदार तरीके से साबित करने में सफलता पाई है. 


दुनिया के बहुत सारे मनोवैज्ञानिकों का ये विश्लेषण है कि राजनीति में जो नेता जमीन पर उतरकर लोगों से सीधा संवाद स्थापित करता है वो उस देश के सत्ताधीशों के लिए सबसे खतरनाक बन जाता है. इसलिये कि परेशान-दुखियारे लोगों की एक बड़ी जमात उसकी मुरीद हो जाती है और वो उसमें ही अपने भविष्य का नायक तलाश लेती है. हम नहीं जानते कि करीब साढ़े चार महीने तक चली राहुल गांधी की इस यात्रा से कांग्रेस को 2024 के चुनाव में कितना फायदा होगा लेकिन जमीन से आने वाली रिपोर्ट बताती है कि माहौल को बदलने की कोशिश तो हुई है. हालांकि अपनी यात्रा खत्म करते-करते राहुल गांधी ने सरकार को सीधी चेतावनी देते हुए एक तरह से मुश्किल में डाल दिया है. 


दरअसल, श्रीनगर की प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी से पूछा गया था कि बीजेपी का दावा है कि धारा 370 हटने के बाद यहां सुरक्षा की स्थिति काफी सुधरी है. क्या आप सहमत हैं बीजेपी के इस दावे से? इस पर राहुल गांधी ने जवाब दिया, ''नहीं, यहां पर तो टारगेटेड किलिंग्स हो रही हैं, बम बलास्ट हो रहे हैं, अगर सिक्योरिटी सिचुएशन इंप्रूव होती तो जो कॉन्वर्सेशन सिक्योरिटी वाले मेरे से कर रहे हैं वो तो होते ही नहीं. बीजेपी के लोग यात्रा क्यों नहीं कर देते? जम्मू से लाल चौक.. अगर हालात इतने ही अच्छे हैं तो अमित शाह जम्मू-कश्मीर में क्यों नहीं चलते हैं. जम्मू से श्रीनगर के लाल चौक तक.''


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