पुरानी कहावत है कि जब दो लोगों के बीच लड़ाई सिर्फ अपनी मूंछें ऊंची रखने तक पहुंच जाए, तो उससे हासिल तो ज्यादा कुछ नहीं होता लेकिन जमाने में तमाशा जरुर बन जाता है. आजकल वही हाल पंजाब कांग्रेस का बना हुआ है जहां मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू की आपसी कलह ने पार्टी को एक मजाक बनाकर रख दिया है.
दोनों नेताओं को राजनीति का नौसिखिया खिलाड़ी नहीं कह सकते लेकिन अपनी नाक ऊंची रखने के अहं से शुरु हुई यह लड़ाई उस मुकाम तक आ पहुंची है कि इसे सुलझाने के लिए उस प्रियंका गांधी को मैदान में कूदना पड़ा, जो अभी सियासत के पथरीले पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश कर रही हैं.
उम्र व अनुभव के लिहाज से कम परिपक्व एक नेता के लिए पार्टी के ऐसे दो उम्रदराज व सियासी धूप में अपने बालों को पका चुके नेताओं का मामला सुल्टाना अगर मजबूरी बन जाये, तो यह स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होती है और अक्सर देश की सबसे पुरानी कहलाने वाली पार्टी कांग्रेस में ही ऐसा देखने को मिलता आया है.
जाहिर है कि प्रियंका गांधी व सिद्धू की आज हुई मुलाकात के बाद गांधी परिवार पार्टी के अन्य नेताओं से मंथन के बाद कोई ऐसा बीच का रास्ता निकाल ही लेगा जो दोनों नेताओं को मंजूर हो.हो सकता है कि अगले दो-तीन दिन में इसका ऐलान भी कर दिया जाए.पर,इन दोनों नेताओं के मन में पनपी खटास इतनी जल्दी ख़त्म नहीं होने वाली जिसका अक्स पंजाब की जनता को चुनाव-प्रचार के दौरान देखने को मिल सकता है.
एक बड़ा सवाल ये भी है कि आखिर ऐसी नौबत ही क्यों आने दी गई? दिल्ली में बैठे आलाकमान ने इस तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया कि पंजाब सरकार में मंत्रीपद से इस्तीफा देने के बाद सिद्धू चुप नहीं बैठने वाले हैं क्योंकि यह उनके मिज़ाज में ही नहीं है.सिद्धू से भड़की चिंगारी को शांत करने के लिए अगर समय रहते ही अमरिंदर को दिल्ली से हिदायत दी गई होती,तो आज वह इतना बड़ा शोला न बन पाती कि उसे बुझाने के लिए गांधी परिवार को अपनी पूरी ताकत लगानी पड़ रही है.
दिल्ली में बैठे नेताओं को शायद अन्दाजा न हो कि पिछले करीब तीन महीने से वहां इन दोनों नेताओं की कलह और सरकार व संगठन के बीच चल रही तनातनी का जनता के बीच किस कदर गलत संदेश गया है. अगले साल होने वाले चुनाव में पार्टी को इसका कितना खामियाजा भुगतना पड़ सकता है, यह तो वक़्त ही बतायेगा. लेकिन इतना तय है कि भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद,नशीले पदार्थों का अवैध कारोबार जैसे मुद्दों के साथ ही सरकार की यह कलह भी अकाली दल के लिए एक चुनावी मुद्दा बनेगा और वो इसका भरपूर फायदा उठाने की कोशिश करेगा.
वैसे भी अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल ने आज ये कहते हुए इसकी शुरुआत भी कर दी है कि "नवजोत सिद्धू एक मिस गाइडेड मिसाइल हैं और वे कभी किसी के सगे नहीं रहे." अब सिद्धू भले ही चाहे जो सफाई देते रहें लेकिन आखिरकार इसका नुकसान तो पार्टी को ही झेलना पड़ेगा.
पंजाब की सियासी नब्ज़ समझने वाले मानते हैं कि अगर सिद्धू पर गांधी परिवार का वरदहस्त न होता,तो वे कैप्टन के खिलाफ इतनी खुली बग़ावत न कर पाते.जबकि बताते हैं कि कैप्टन के काम करने व सरकार चलाने का अंदाज़ आज भी "महाराजा" वाला ही है और वे हाइकमान की बजाय खुद के औरा पर ही ज्यादा भरोसा करते हैं.
शायद यही वजह है कि पिछले साढ़े चार साल में कैप्टन ने "दिल्ली दरबार" की कभी बहुत ज्यादा परवाह नहीं की है.इसलिये कह सकते हैं पंजाब में कैप्टन,कांग्रेस की मजबूरी हैं और उनके बगैर पार्टी दोबारा किला फतह नहीं कर सकती. लिहाज़ा,पार्टी आलाकमान बीच का रास्ता निकालते वक़्त उनकी शर्तों को नजरअंदाज करने की हिम्मत शायद ही जुटा पाये.