23 जुलाई को मायावती ने दिल्ली में अपने घर पर बीएसपी (बहुजन समाज पार्टी) के बड़े नेताओं की एक बैठक बुलाई है. यूपी के नेता तो इस मीटिंग में रहेंगे ही. देश के बाकी राज्यों में पार्टी का काम देख रहे नेताओं को भी बुलाया गया है. संसद से बहनजी ने इस्तीफा क्यों दिया और अब आगे वे क्या करेंगी, इन सब पर माया अपनी पार्टी के नेताओं से बातचीत करेंगी.


वैसे तो राज्यसभा में मायावती का कार्यकाल आठ महीने और बचा था, लेकिन संसद में बोलने से रोके जाने से पर 18 जुलाई को उन्होंने इस्तीफा दे दिया. उनका त्यागपत्र तीन पन्नों का था, इसीलिए राज्यसभा के सभापति हमीद अंसारी ने मायावती से एक लाइन का हाथ से लिखा हुआ इस्तीफा मांगा और फिर ये मंजूर भी हो गया. अब राज्यसभा में बीएसपी के सिर्फ पांच सांसद ही बचे रह गए हैं.


बहनजी के इस्तीफे से कई सवाल खड़े हो गए हैं. उनकी आगे की रणनीति को लेकर जितने मुंह उतनी बातें कही जा रही हैं. 2014 के लोक सभा चुनाव में बीएसपी का खता तक नहीं खुला और इस साल हुए विधान सभा चुनाव में बीएसपी के बस उन्नीस नेता ही चुनाव जीत पाए. पार्टी को सिर्फ 22.21% वोट मिले. जबकि 2007 के विधानसभा चुनाव में 25.65 फीसदी वोट पा कर बीएसपी के 80 विधायक चुने गए थे. पार्टी के पास तो अब यूपी में इतने एमएलए भी नहीं बचे कि अब कोई राज्य सभा पहुंच पाए.





विधायकों की संख्या के हिसाब से तो बीएसपी अब किसी को एमएलसी भी नहीं बना सकती. 33 साल पुरानी बीएसपी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. हाल में हुए राष्ट्रपति चुनाव ने मायावती की मजबूरी की पोल खोल दी. जिस दिन वोट डाले जा रहे थे उस दिन बहनजी बोली "मीरा कुमार और रामनाथ कोविंद में जो भी जीतेगा, दलित ही देश का राष्ट्रपति बनेगा." एनडीए के दलित उम्मीदवार का मायावती ना तो खुल कर समर्थन कर पायी और ना ही विरोध ही.


यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और डीप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या दोनों लोकसभा सांसद हैं. इनके इस्तीफे से गोरखपुर और फूलपुर में उपचुनाव होंगे. ऐसे में क्या मायावती इस चुनाव में किस्मत आजमाएंगी? उनके करीबी एक सांसद बताते है, "बहनजी चुनाव नहीं लड़ेंगी, वैसे भी दस सालों से हम उपचुनाव नहीं लड़ते."


यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती का हर दांव इन दिनों उलटा पड़ रहा है. सारे फॉर्मुले बेकार साबित हो रहे हैं. सहारनपुर में ठाकुरों और दलितों के बीच हुए झगडे में मायावती धर्म संकट में फंस गयी. देखते ही देखते भीम आर्मी दलितों की रहनुमा बन गयी और चद्रशेखर उनके हीरो हो गए. बहनजी के लिए ये मुद्दा ना उगलते बना और ना ही निगलते.


अखिलेश यादव उन्हें बुआ कहते है लेकिन सपा (समाजवादी पार्टी) का साथ मायावती को अभी मंजूर नहीं. कांग्रेस से भी वे दूरी बनाये रखना चाहती है. उन्हें डर है कि अगर कांग्रेस से हाथ मिलाया तो फिर दलित न खिसकने लगे. तो ऐसे में वे क्या करें?


बहिनजी जब लखनऊ में थी तो कई नेताओं को बुला कर उनसे सपा से गठबंधन पर बातचीत की. अतिपिछड़ी जातियां बीएसपी की स्टेपनी और दलित बेस वोट बैंक हुआ करती थीं. पिछड़े अब बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) के साथ हैं. यूपी (उत्तर प्रदेश) के रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बना कर बीजेपी ने मायावती के वोट बैंक (दलितों) पर भी निशाना साधा है. वैसे भी जाटव को छोड़ कर बाकी दलित जातियां मोदी मैजिक के प्रभाव में है.