देश चुनावी मोड में है और सत्तापक्ष-विपक्ष दोनों ही अपने तरकशों से वायदों और आक्रमण के तीर निकाल कर चला रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय मुद्दों से लेकर राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दे तक छुए जा रहे हैं और इन्हीं सब के बीच अचानक ही 'खाना' और खाने की 'चॉयस' भी मुद्दा बन गयी है. शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर के उधमपुरमें आयोजित जनसभा में विपक्षी दल के नेताओं द्वारा सावन में मटन खाने और नवरात्रि में मछली खाने, उसके वीडियो शेयर करने की तुलना उन आक्रमाणकारियों से की जिन्हें किसी राजा को युद्ध में हराकर राज्य पर कब्जा करने भर से संतोष नहीं मिलता था, बल्कि वे उनके धार्मिक स्थलों को तोड़ने के बाद ही "संतुष्ट" होते थे. तेजस्वी यादव के वीडियो और प्रधानमंत्री के बयान के बाद यह बहस शुरू हो गयी कि  'खानपान' पर राजनीति कितनी सही है, कितनी गलत! सही-गलत का फैसला तो अदालत करती है, लेकिन खानपान पर राजनीति को लेकर हैरानी जताने वाले या तो भोले हैं, या फिर भुलक्कड़ या दोनों!


होती रही है खानपान पर राजनीति


इसमें कोई दो राय नहीं कि खानपान पर रोज-रोज राजनीति नहीं होती लेकिन ऐसा भी नहीं है कि खानपान पर राजनीति कभी नहीं होती है. आधुनिक भारत के इतिहास के चार प्रसंग ऐसे हैं, जो खानपान की राजनीति से जुड़े हैं और उन्होंने देश की राजनीतिक धारा बदल दी. पहली घटना है, ईस्ट इंडिया कंपनी के दमनकारी शासन के खिलाफ भारतीयों ने वर्ष 1857 में बगावत कर दी, जिसकी तात्कालिक प्रेरणा बनी थी खानपान से जुड़ी आस्था. उस जमाने में दांत से खींचकर, खोल उतारकर कारतूस चलानी पड़ती थी. ब्रिटिश सेना में यह खबर फैल गयी कि नए कारतूस में गाय और सूअर के चमड़े का खोल इस्तेमाल हुआ है. आस्थावान हिन्दू सिपाही गाय को पवित्र मानते थे और मजहबी मुसलमान सिपाही सूअर को अपवित्र, तो दोनों के लिए दांत से ऐसे जीवों का चमड़ा छूना, भड़काऊ साबित हुआ. उसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है. दूसरा प्रसंग है, मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा वर्ष 1930 में किया गया नमक सत्याग्रह. वैसे तो नमक स्वाद बढ़ाने वाला नन्हा सा खाद्य पदार्थ है लेकिन महात्मा गांधी ने घर-घर खाए जाने वाले नमक पर लगाए टैक्स का असर, समझ लिया था. उस समय भारत की आबादी करीब 28 करोड़ थी. नमक सत्याग्रह के लिए निकली गांधी जी की दाण्डी यात्रा में मुख्यतः 70-80 लोग शामिल थे लेकिन सार्वजनिक रूप से नमक कानून तोड़ने का जो असर हुआ, वह आज भी बच्चों को पढ़ाया जाता है. 


तीसरा प्रसंग बेहद मार्मिक है. बाबासाहब भीमराव आम्बेडकर जब विदेश से पढ़कर लौटे तो उन्होंने एक रियासत में नौकरी कर ली. जब बाबासाहब ने वह नौकरी जॉइन की तो वहां के चपरासी ने उन्हें पीने का पानी नहीं दिया क्योंकि उसकी नजर में बाबासाहब "अछूत" थे. उच्च शिक्षित होने के बावजूद एक कार्यालय सहायक द्वारा पानी न दिए जाने की घटना ने बाबासाहब को गहराई से प्रभावित किया. उसके बाद जो हुआ, इतिहास ही है. चौथा प्रसंग भी मार्मिक है. ईवी रामास्वामी पेरियार का जन्म आज के कोएंबटूर जिले में हुआ था. युवावस्था में वह वाराणसी की यात्रा पर गये थे. वाराणसी में उन्हें एक दिन बहुत तेज भूख लगी. वे एक सार्वजनिक भोजनालय में खाना खाने के लिए प्रवेश करने लगे तो उन्हें रोक दिया गया. ईवीआर से कहा गया कि यह भोजनालाय केवल जाति विशेष के लिए है. ईवीआर के अनुसार इस घटना ने उनके ऊपर कभी न मिटने वाला असर डाला. पेरियार वह घटना आजीवन नहीं भूले और उसके बाद जो कुछ हुआ वह भी इतिहास ही है.


तेजस्वी ने दे दिया मौका


फुटबॉल और हॉकी जैसे खेलों का रणनीतिक जुमला है, 'मैन टू मैन मार्किंग' यानी विपक्षी टीम के हर खिलाड़ी की काट के तौर पर एक खिलाड़ी अपनी टीम का होना चाहिए. अगर विपक्षी टीम का ऐसा कोई खिलाड़ी है, जिसको मार्क करने वाला खिलाड़ी आपकी टीम में नहीं है तो वही विपक्षी खिलाड़ी गोल दाग देगा और आप भौंचक रह जाएंगे. राजनीति में भी यही रणनीति चलती है, बस यहाँ खिलाड़ी की जगह 'इशू टू इशू मार्किंग' करनी पड़ती है. यदि आप नहीं करेंगे तो कौन सा इशू ईवीएम में गोल दाग देगा, यह पता चलते-चलते नेता भूतपूर्व हो चुके होते हैं. याद रखें कि जब समस्या खानपान से जुड़ी होगी तो समाधान भी उसी से जुड़ा होगा. उपरोक्त चारों प्रसंगों के परिणाम को लेकर चिंतित जन ने उनका समाधान भी खानपान के रास्ते ही किया. मसलन, कारतूस में गाय या सूअर की चर्बी नहीं रहेगी, खानपान में छुआछूत नहीं चलेगी इत्यादि. 


मौजूदा प्रसंग के सभी खिलाड़ी पेशेवर राजनेता हैं. सबको पता है कि घर के अन्दर किया गये खानपान और ऑन कैमरा खानपान के बीच क्या अन्तर है!  शुक्रवार को जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर में आयोजित चुनावी जनसभा सावन में मटन और नवरात्रि में मछली खाने का वीडियो शेयर करने पर कटाक्ष किया तो सुधी जनों को यह समझते देर नहीं लगी कि मोदी जी के व्यंग्य बाण का लक्ष्य कौन हैं?. कथित तौर पर सावन में मटन बनाने का वीडियो शेयर करने वाले लोग साधारण जन नहीं थे. लालू प्रसाद यादव बिहार के पूर्व सीएम और केंद्र में कैबिनेट मिनिस्टर रह चुके हैं. उनकी पत्नी राबड़ी देवी भी मुख्यमंत्री रह चुकी हैं. मटन वाले वीडियो में उनके साथ दिख रहे थे, देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी जिनके परिवार में तीन पीएम (जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी) हो चुके हैं. नवरात्रि के नजदीक मछली खाने का वीडियो शेयर करने वाले दो नेता थे, लालू के पुत्र एवं बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव, दूसरे बिहार सरकार के पूर्व मंत्री मुकेश सहनी. मटन और मछली वाले वीडियो अलग-अलग समय पब्लिक डोमेन में डाले गये, लेकिन दोनों का टेम्पलेट एक ही था. जिनके घर में दो पूर्व सीएम और दो बार के पूर्व डिप्टी सीएम हों, ऐसे नेता कोई काम सोचे-समझे बगैर नहीं करते. मामूली लगने वाले कृत्यों से महीन राजनीतिक मैसेज देने में लालू की महारत किसी से छिपी नहीं है. तेजस्वी ने वही टेम्पलेट उठाया और बाद में एक दिन पहले, दो दिन पहले कहकर दिन गिनाने लगे. तेजस्वी भूल गए कि मोदी की बाकी किसी प्रतिभा में आप शक करें, उनके शानदार कम्युनिकेटर होने पर कोई संदेह नहीं कर सकते और मोदी ऐसे मौकों की ताक में ही रहते हैं. उन्होंने ढीली गेंद देखते ही छक्का लगा दिया. 


मोदी का बयान और जगह का चयन


हर दूसरे खेल की तरह राजनीति में भी, किसी भी खिलाड़ी के स्किल सेट का रियल टेस्ट तब होता है, जब उसकी टक्कर का या बेहतर, खिलाड़ी विपक्षी टीम में खेल रहा हो. लालू के कूट सन्देश को कैच करने के लिए मोदी से बेहतर विपक्षी कौन होगा! मोदी ने लालू, राहुल और तेजस्वी के कूट वीडियो सन्देश का जवाब देने के लिए जम्मू-कश्मीर की रैली को चुना, जहां पर स्थित माता वैष्णो देवी पूरे देश में प्रसिद्ध हैं.  मोदी द्वारा जम्मू-कश्मीर में यह बयान देना महज संयोग नहीं है. लालू और तेजस्वी के समर्थक उनके बचाव में देश के कुछ देवी मन्दिरों में दी जाने वाली पशु बलि का उल्लेख करते रहे हैं. वैष्णो देवी की ख्याति का एक कारण यह भी है कि उन्होंने अपने भक्तों को उन्हें खुश करने के लिए पशु बलि देने से मना किया था. जाहिर है कि मोदी ने जानबूझकर उस देवी के नजदीक जाकर यह बयान दिया, जो देवी पशु बलि की आज्ञा नहीं देतीं. यहां नेताओं के राजनीतिक परास की भी बड़ी भूमिका है. तेजस्वी-लालू को बिहार की राजनीति करनी है, लेकिन मोदी को पूरे देश की राजनीति करनी है. इसलिए उन्होंने मटन और मछली के वीडियो के जवाब में जो बयान दिया, वह भी पूरी तरह कैलकुलेटेड था, और उन प्रदेशों को ध्यान में रखकर दिया गया जहां की बड़ी आबादी नवरात्रि में मांसाहार नहीं करती. फिर भी मोदी ने अपने बयान में सावन और नवरात्रि में मांसाहार छोड़ने और नहीं छोड़ने वाले, दोनों तरह के वोटरों का ख्याल रखा.


मनाही नहीं, लेकिन भावनाओं का खयाल रखें


मोदी का बयान सुनकर गैंग्स ऑफ वासेपुर 2 की मोहसिना याद आती हैं, जिन्होंने फैजल खान से कहा था, 'कोई मना थोड़ी है, लेकिन परमिशन लेनी चाहिए.' मोदी जी ने भी वही लाइन ली है, कोई मना थोड़ी है लेकिन पब्लिक प्लेटफॉर्म पर वीडियो डालकर आस्थावान हिन्दुओं को चिढ़ाना नहीं चाहिए! इस बयान से जाहिर है कि मोदी समकालीन 'फूड डिस्कोर्स' से भी भलीभाँति परिचित हैं. उन्होंने इंडिविजुअल फूड चॉइस का बचाव करते हुए, दूसरों को भड़काने के लिए, सार्वजनिक दिखावा करने वाली मानसिकता को लक्ष्य बनाया. सांप भी मर गया लाठी भी नहीं टूटी. महीन सन्देश देने में मोदी तो लालू से कम थोड़े ही हैं. लालू  से राजनीतिक हमदर्दी रखने वालों को मोदी का जवाब पसन्द न आना स्वाभाविक है, लेकिन मोदी की राजनीति से सहानुभूति रखने वालों को याद होगा कि पीएम दशकों से नवरात्रि में व्रत करते हैं. बीती नवरात्रि में उनका खुद का लिखा देवी मां को समर्पित गरबा वायरल हुआ था. उनकी दशकों पहले लिखी गुजराती कविताओं में कई कविताएं देवी मां को समर्पित-सम्बोधित हैं. ऐसे में मोदी समर्थकों को उनकी प्रतिक्रिया बहुत ही सामान्य लगेगी, जैसे लालू-तेजस्वी समर्थकों को मटन-मछली खाने का वीडियो सावन-नवरात्रि में डालना 'नॉर्मल' लगेगा.


एक पंक्ति में कहें तो दोनों नेता अपने-अपने वोट बैंक की भावनाओं का तुष्टीकरण करने में सफल रहे. राजनीति इसी का नाम है. यह भी याद रखें कि मंगल पाण्डे, महात्मा गांधी, पेरियार और बाबासाहब आम्बेडकर देश के चार कोनों से आते थे. यानी खानपान से सबकी भावनाएँ जुड़ी हुई हैं. फर्क इतना है कि किसकी फीलिंग किसी खान और किस पान से आहत होती है, यह मायने रखता है.


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