देश में फिलहाल यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान नागरिक संहिता का मुद्दा गरम है. कुछ दिनों पहले दरअसल विधि आयोग ने विभिन्न नागरिकों और योग्य धार्मिक संगठनों, संस्थानों से इस मसले पर राय मांगी थी. उसके बाद कुछ मुस्लिम नेताओं ने यूसीसी के विरोध में बातें कीं और फिर यह बुद्धिजीवी वर्ग के बीच भी बहस का मुद्दा बन गया. मीडिया में भी इस पर बहस होने लगी. आज मंगलवार को प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए लोगों को यूनिफॉर्म सिविल कोड की याद दिलाई. पसमांदा मुसलमानों का जिक्र किया और यह साफ कर दिया कि 2024 के चुनाव की भेरी बज चुकी है और उसमें यूसीसी का मुद्दा भी जमकर चमकेगा. 


यूसीसी बीजेपी का कोर मुद्दा, चुनावी बात नहीं


भारतीय जनता पार्टी, बल्कि उसके पूर्ववर्ती संगठन जनसंघ के समय से ही तीन बड़े लक्ष्य उसके रहे हैं. पहला तो, कश्मीर के लिए जो विशेष अनुच्छेद था, 370. उसकी समाप्ति. दूसरे, राम मंदिर और तीसरा समान नागरिक संहिता. तो, संसद के जरिए वह अनुच्छेद 370 को तो 2019 में हटा चुकी है. राम मंदिर का निर्माण कोर्ट के फैसले से हो रहा है और लगता है कि वह भी अगले साल तक देश को समर्पित हो जाएगा. इसके बाद अब बचा, तीसरा समान नागरिक संहिता का मुद्दा. यह बीजेपी के लिए चुनावी मुद्दा भी नहीं है. हालांकि, याद करना चाहिए कि जब नागरिकता संशोधन कानून में बदलाव करने की कोशिश हुई थी, जिसे सीएए कहा गया तो विपक्षी पार्टियों की शह पर पूरे देश के मुसलमान किस तरह सड़कों पर इकट्ठा हुए थे?  लोगों को यह भी आशंका थी कि जब बीजेपी यूसीसी लाएगी तो कैसा विरोध होगा औऱ इस विरोध को भी दो तरह से देखा जा रहा था. एक खेमा यह मान रहा था कि ये जो विरोध है, वह मुस्लिम मतदाताओं को फिर से कांग्रेस की तरफ ले जाएगा, जैसा कर्नाटक चुनाव में हुआ और उसके बरक्स हिंदू वोट भी एकजुट होगा. हालांकि, अभी तक हिंदू उस तरह से एक वोटबैंक नहीं बना है. 



यूसीसी को पीएम ने बना दिया चुनावी मुद्दा 


एक सवाल यह भी पूछा जा रहा था कि बीजेपी के पास अब कौन सा मुद्दा है, जिसको लेकर वह 2024 में जाएगी, ताकि उसका वोट बैंक बना भी रहे और नया वोट भी जुड़े, जिसकी अपील भी पूरे देश में हो. तो माना जा रहा था कि वह समान नागरिक संहिता के साथ जाएगी. आज भोपाल में जनसभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने जिस तरह यूसीसी का जिक्र किया, उससे यह साफ है कि 2024 के चुनाव में और उससे पहले जो राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के चुनाव हैं, उसकी तैयारी भी बीजेपी कर चुकी है. यह मुद्दा उछाल कर बीजेपी ने दिखा दिया है कि कमोबेश यूसीसी का मुद्दा भी चुनाव में रहेगा जरूर. पीएम ने अपने भाषण में पसमांदा मुसलमानों का भी अलग से जिक्र किया है औऱ यूसीसी को उनकी बेहतरी के लिए एक जरूरी शर्त बताया है. 



पसमांदा का जिक्र रणनीतिक-राजनीतिक चाल


जहां तक मुसलमानों के एक वर्ग पसमांदा मुसलमानों के पीएम द्वारा जिक्र करने की बात है, तो उसको समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. जब भी हिंदू धर्म की आलोचना होती है या इस पर प्रहार होता है तो इसकी जाति-व्यवस्था का उदाहरण दिया जाता है. इसके साथ ही यह भी बताया जाता है कि अब्राहमिक मजहबों इस्लाम और ईसाइयत में जातिवाद नहीं है. हालांकि, जो पसमांदा समुदाय है मुस्लिमों में, जिसमें लोहार, जोलाहे, मोमिन और अंसार जैसी जो जातियां हैं, वे साफ कर देती हैं कि मुस्लिम समाज में भी ऊंच-नीच और जातिभेद बरकरार है. हमने भी अपने टाइम में देखा है और आप भी देख सकते हैं कि जो सैयद या पठान टाइप के ऊंचे मुसलमान हैं, वे छोटी जाति वाले मुसलमानों के साथ उठना-बैठना पसंद नहीं करते. बिहार के एक पत्रकार अली अनवर ने तो बहुत पहले इस पर बहुत काम किया था, बहुत अध्ययन किया और पसमांदा समाज के लिए आंदोलन भी छोड़ा. उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर पसमांदा समाज का मुद्दा उछाला और इसका उनको राजनीतिक पुरस्कार भी मिला. वह जनता दल से सांसद भी बने. बहुतेरे पत्रकार मित्र हैं जो इस बात को स्वीकारते हैं. 


आजादी के बाद मुसलमानों को विभिन्न दलों ने वोटबैंक बना कर रखा. उनको कोई आर्थिक या सामाजिक फायदा नहीं मिला. मिला भी तो उनको जो उनमें भी उच्च वर्ग के थे, या मुस्लिमों के सवर्ण थे. इस विरोधाभास को भी पीएम के भोपाल वाले बयान में देखना चाहिए. आप जानते ही हैं कि राजनीति तो विरोधाभास ही पैदा करती है. वह विरोधाभास के चुनिंदा दृश्य बनाती है और उन्हीं में से अपने चुनिंदा दृश्य का निर्माण करती है. इस बयान में भी उसी प्रवृत्ति को देखा जा सकता है. इसको आप प्रधानमंत्री की रणनीतिक-राजनीतिक चाल भी कह सकते हैं. कुछ महीनों पहले हालांकि बीजेपी के अध्यक्ष जे पी नड्डा ने भी वंचित, शोषित मुस्लिम समुदाय के लिए सभा करने की घोषणा की थी और उसके बाद से इंटेलेक्चुअल समाज में डिबेट शुरू हो गयी. राजनीतिक चौपालों पर भी बात शुरू हो गयी. कोशिश तो इस विरोधाभास को उभारने की पहले से ही रही है. रणनीति के हिसाब से तो चुनाव लड़े ही जाते हैं और जनता को अपने पाले में खींचने की कोशिश भी होती है, तो उस वोटबैंक को इस विरोधाभास के जरिए साधने की कोशिश हो रही है. 


मातृ-संस्था के मुताबिक बीजेपी में भी बदलाव


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गठन से अबतक उनकी वैचारिक यात्रा देखिए. पहले सब कुछ कहीं मुस्लिम-विरोध की सीमा को छू जाता था. संघ के बड़े विचारक भी इस बात को मानते हैं कि तब ये वक्ती मांग थी. उस समय चूंकि हिंदू-मुस्लिम के झगड़े होते थे, तो संघ को हिंदू समाज को एक करना था तो ऐसी बातें होती थीं. अब जरूरत नहीं है तो बदलना होगा. आप अगर याद करें तो एक मुस्लिम बुद्धिजीवी की किताब का विमोचन करते हुए संघचालक मोहन भागवत तो एक साल पहले ही कह चुके हैं कि जितने लोग इस देश में हैं, सबके जीन एक हैं, गुणसूत्र एक हैं. तो, जब मातृ-संस्था में बदलाव है तो बीजेपी में भी बदलाव होगा ही. जहां तक बोहरा मुसलमानों के मोदी-प्रेम की बात है, तो उनको तो मुस्लिम समाज में भी थोड़ा अलग ही माना जाता है. पसमांदा मुसलमान तो केवल उस नैरेटिव का जवाब है, जिसके बारे में कहा जाता है कि मुसलमानों में जातिगत भेदभाव नहीं है. मेरे अपने गांव में यह भेद देखने को मिलता है. वहां जो दो-तीन सैयद परिवार हैं, उनका कथित पिछड़े मुसलमानों के साथ लागडांट उस तरह से नहीं होती.


बात यह समझने की है राजनीति और यथार्थ की बात अलग होती है. आदर्श दिखने के लिए बात तो की जाती है 100 प्रतिशत की. हालांकि, सबको पता है कि यूटोपियन बातचीत में तो सबकी बात, सबका साथ किया जा सकता है, लेकिन जीत के लिए तो वोटबैंक बनाना ही होगा. यह सच है कि किसी भी समहू या जाति में हर तरह के लोग होते हैं औऱ उसमें से 100 फीसदी समर्थन भी नहीं मिलता किसी एक को, हां मेजॉरिटी की पसंद आप जरूर हो सकते हैं. सबका साथ एक मिथ है जो किसी को नहीं मिलता है. वोट पाने के लिए विसंगति उभारनी होगी और वो तो सारे दल करते हैं. बीजेपी भी अपने ढंग से इस मामले में काम कर रही है. 


आसान नहीं होगा यूसीसी लागू करना


समान नागरिक संहिता को लागू करवाना थोड़ा आसान नहीं होगा. हमने किसान आंदोलन और सीएए-विरोधी आंदोलन के समय देखा ही है. किसान-आंदोलन के समय तो मोदीजी ने खुद स्वीकार किया कि वह किसानों को अपनी बात नहीं समझा सके. तो, चुनौती बड़ी है. हालांकि, संविधान का अनुच्छेद 44 ही यह कहता है कि राज्य की यह प्राथमिक जिम्मेदारी है कि वह हरेक नागरिक को एक समान कानून, एक समान नागरिक संहिता के तहत लेकर आए. संविधान सभा में तो खुद बाबासाहेब अंबेडकर ने कहा है कि उनको यह समझ नहीं आता कि धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर कानून अलग कैसे हो सकते हैं? 


तो फिर, जिसके हितों पर आंच आएगी, जिनके अपने लॉ बोर्ड हैं, वह तो समान नागरिक संहिता के लागू होते ही खत्म हो जाएगा. तो, वे तो आंदोलन करेंगे ही. चुनौती यही है और राजनीतिक दल तो चुनौतियों से रास्ता निकालते ही हैं. देखना यही है कि बीजेपी कैसे इससे निबटती है? 


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