जैसा कि अपेक्षित था, पीएम नरेंद्र मोदी ने बीते 24 मार्च से जारी 21 दिनों के लॉकडाउन को 14 अप्रैल से आगे 3 मई, 2020 तक बढ़ाने की आधिकारिक घोषणा कर दी है. कोरोना संक्रमण से बिगड़ते हालात के मद्देनजर तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, महाराष्ट्र, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे राज्य पीएम की इस घोषणा के पहले ही लॉकडाउन की अवधि बढ़ाने का कदम उठा चुके थे. लॉकडाउन के सुपरिणामों का आकलन करने के बाद अब केंद्र सरकार ने भी यह कड़वी गोली खाई है.


पीएम ने चेताया है कि कि अगर लॉकडाउन के नियम टूटते हैं और कोरोना का पैर किसी इलाके में पड़ता है तो सारी अनुमति वापस ले ली जाएगी. इसलिए न खुद कोई लापरवाही करनी है और न ही किसी और को लापरवाही करने देना है. इस बारे में सरकार की तरफ से एक विस्तृत गाइडलाइन जारी की जा रही है. केंद्रीय गृह-मंत्री अमित शाह ने भी आश्वस्त किया है कि देश में अन्न, दवाओं और अन्य आवश्यक वस्तुओं का पर्याप्त भंडार है इसलिए किसी को चिंता करने की जरूरत नहीं है. लेकिन पिछला अनुभव बताता है कि जीवनावश्यक वस्तुएं जरूरतमंदों तक पहुंचाने का सरकारी तंत्र इतना ढीला है कि लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं. भदोही की एक महिला ने पति की अत्महत्या के बाद भूख से बिलबिलाते अपने 5 बच्चों को गंगा में फेंक दिया! ऐसे में पीएम के इस कथन ने कि अगले एक सप्ताह के दौरान कोरोना के खिलाफ लड़ाई में कठोरता और ज्यादा बढ़ेगी, घर से सैकड़ों मील दूर महीने भर से अटके लोगों की चिंताएं कई गुना बढ़ा दी हैं.


कष्ट से देश बचाया- पीएम


देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री जी ने आभार माना कि लोगों ने कष्ट सहकर भी अपने देश को बचाया है. किसी को खाने की परेशानी है तो किसी को आने जाने की परेशानी है तो कोई घर परिवार से दूर फंसा हुआ है. आगामी 20 अप्रैल तक हर कस्बे, हर थाने, हर जिले, हर राज्य को परखा जाएगा, वहां लॉकडाउन का कितना पालन हो रहा है, उस क्षेत्र ने कोरोना से खुद को कितना बचाया है, ये देखा-परखा जाएगा. जो क्षेत्र इस अग्निपरीक्षा में सफल होंगे, जो हॉटस्पॉट में नहीं होंगे, और जिनके हॉटस्पॉट में बदलने की आशंका भी कम होगी, वहां पर 20 अप्रैल से कुछ जरूरी गतिविधियों की अनुमति दी जा सकती है. लेकिन फंसे हुए मजबूर लोगों के बारे में उन्होंने एक शब्द नहीं कहा!


मजदूरों की हालत बुरी


जबकि फौरी जरूरत इस बात की है कि लोगों को कार्यस्थलों और अटके होने की जगहों से निकाल कर उनके गांव-घर पहुंचाने की व्यवस्था की जाए. इनमें मजदूरों समेत इलाज के लिए बाहर गए मरीज, सेल्समैन, पर्यटक और प्रोफेशनल्स ही नहीं, विभिन्न संस्थानों के हॉस्टलों और गेस्ट हाउस में रहने तथा कोचिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ने वाले अनगिनत विद्यार्थी भी शामिल हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय, जामिया, गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, हैदराबाद विश्वविद्यालय, कोटा और इंदौर के आवासीय कोचिंग संस्थानों का नजारा दारुण है. इन होस्टलों और विश्वविद्यालयों में न तो पहले जैसा पढ़ाई-लिखाई का कोई माहौल बचा है और न ही कोई घर लौटने में सक्षम हैं. अब जबकि बहुत सारे विश्वविद्यालय परिसरों को क्वारेंटाइन क्षेत्र में तब्दील किया जा रहा है, तमाम छात्र-छात्राओं को वहां से हटाना अपरिहार्य है.


बैंगलुरु में अटके बेबस मजदूरों की दुर्दशा के वीडियो वायरल हैं. जमुई जिला के तीन दर्जन लोगों सहित बिहार के 135 प्रवासी सूरत जैसे व्यापारिक केंद्र में फंसे हैं और दाने-दाने को मोहताज हैं. लेकिन सूने में फंसी विशाल निरक्षर आबादी, जिसके पास अपनी व्यथा को सामने लाने के कोई साधन उपलब्ध नहीं हैं, उनका पुरसाहाल कौन होगा? कोरोना से बुरी तरह प्रभावित महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने अपने पिछले टीवी संबोधन के दौरान राज्य में फंसे सभी मजदूरों की पूरी जिम्मेदारी ली थी. यकीनन वे अपनी तरफ से कसर नहीं लगा रहे होंगे, लेकिन मुंबई शहर और आस-पास के नवी मुंबई, ठाणे, कल्याण, पनवेल और पालघर इलाके में ही यूपी, एमपी, बिहार और राजस्थान के लाखों मजदूर अटके हुए हैं.



मेरी जानकारी में मुंबई महानगरपालिका के स्लम एरिया- धारावी, नागपाड़ा, मदनपुरा, ताड़देव, वर्ली, रे रोड, मझगांव डॉक, वडाला, अंटाप हिल, चेम्बूर, गोवंडी, मानखुर्द, शिवाजी नगर, कुर्ला, बांद्रा, सांताक्रूज, साकीनाका, जोगेश्वरी, मालाड (पूर्व), मालवणी तथा बीएमसी के बाहर कलवा, मुम्ब्रा, भिवंडी, दहिसर, मीरा रोड, भायंदर, नालासोपारा, वसई, विरार में ही दस लाख से ज्यादा मजदूर फंसे हुए हैं, जो बैग निर्माण, लेदर और जरी व एम्ब्रॉयडरी वर्क, रेडीमेड गारमेंट, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन, वाचमैनी, टैक्सी-ऑटो ड्रायवरी, वड़ा पाव और सब्जियों की फेरी तथा दुकानों की खुदरा सेल्समैनी करते हैं.


भूखमरी जैसे हालात


उन महिलाओं की संख्या भी बहुत बड़ी है जो लोगों के घरों में झाड़ू-पोंछा लगाकर, अमीरों के छोटे बच्चों की देखभाल करके, बंगलों में मालिनों का काम करके, कारें धोकर, गलियों में फूल और महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधन बेच कर तथा हज़ार तरह के छोटे-मोटे काम करके अपना पेट पाल रही थीं. इन सबकी जेब खाली हो चुकी है और सरकारी सहायता पाने के लिए अधिकतर के पास जरूरी कागजात भी नहीं हैं. दिल्ली, कोलकाता, इंदौर, सूरत, लुधियाना जैसे रोजी-रोटी देने वाले कई शहरों में लाखों मजदूर दड़बों में बंद हैं और बाहर न निकल पाने के कारण भूखे मरने के हालात पैदा हो गए हैं.


गौरतलब यह है कि किसी तरह घर पहुंचने के बाद भी आर्थिक तौर पर सबसे निचली पायदान पर खड़े इन मेहनतकशों के सामने सबसे विकट समस्या दो वक्त का भोजन जुटाने की है. केंद्र सरकार तथा यूपी, बिहार, दिल्ली जैसी कुछ और राज्य सरकारें बीपीएल व निराश्रित पेंशन धारकों, मनरेगा के मजदूरों, महिला जनधन खाताधारकों को नकदी और राशन का सहारा देने का सराहनीय उपक्रम कर रही हैं. लेकिन करोड़ों गरीब ऐसे हैं, जो इन सभी दायरों से बाहर हैं. मात्र नेकनीयती और समाजसेवा के दम पर इन्हें भूखों मरने से नहीं बचाया जा सकता!


पिछले लॉकडाउन का असर यह हुआ कि आवागमन के साधन अचानक ठप हो जाने के कारण जो जहां था, वहीं अटक गया. नई मुसीबत यह है कि विश्व बैंक ने 12 अप्रैल की अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा कि प्रवासी मजदूरों का हुजूम अन्य राज्यों और गांवों में कोरोना वायरस का आसान रोगवाहक बन सकता है. ऐसे में हम छात्र-छात्राओं को भी निरापद नहीं मान सकते. देशबंदी की बढ़ी हुई अवधि में इन सबको उनके मौजूदा स्थलों और गृह-राज्यों की सीमाओं पर संपूर्ण परीक्षण के बाद ही तमाम सावधानियां बररते हुए प्रवेश देना होगा.


अपने देश में जहां कोरोना पीड़ितों की संख्या दिन ब दिन बढ़ रही है वहीं चंगा होने वाले मरीजों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है. यह वक्त डराने, भयातुर होने और आंकड़ेबाजी करने का हरगिज नहीं है, और न ही यह किसी की नुक्ताचीनी करने का मौका है. यह सबके बचने और बचाने का वक्त है और जैसा कि पीएम मोदी जी ने कहा था कि जान है तो जहान है वाले मुहावरे को लॉकडाउन की बढ़ी हुई अवधि में “जान भी जहान भी” के रूप में देखना और अमल करना पड़ेगा.


-विजयशंकर चतुर्वेदी, वरिष्ठ पत्रकार


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