लोकतंत्र में अविश्वास प्रस्ताव विपक्ष का एक प्रमुख हथियार होता है. विपक्ष का चेहरा हमेशा बदलता रहता है.देश में ये 28वां अविश्वास प्रस्ताव है. सबसे ज्यादा सत्ता में तो कांग्रेस रही है और सबसे ज्यादा अविश्वास प्रस्ताव कांग्रेस की सरकार के खिलाफ आया है. इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ 15 अविश्वास प्रस्ताव आए. मनमोहन सिंह सरकार ने भी हर कार्यकाल में एक-एक बार यानी कुल दो अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया. नरेंद्र मोदी सरकार में भी इस बार को मिला दें तो दोनों कार्यकाल में एक-एक अविश्वास प्रस्ताव आए हैं.


अविश्वास प्रस्ताव को लेकर इस तरह का माहौल बनना कि क्यों आया, ये बात समझ से परे लगती है. सांसदों की संख्या तो लोकसभा में फिक्स है. जो संख्या बल है, उससे नरेंद्र मोदी सरकार की स्थिरता पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा.


बीजेपी के लिए समानांतर नैरेटिव खड़ा करने का अवसर


संख्या बल स्थिर होने के बावजूद अविश्वास प्रस्ताव जनता के प्रति सरकार के उत्तरदायित्व का इजहार करने के लिए लोकतांत्रिक तरीके के रूप में सदन में एक व्यवस्था है. इसका इस्तेमाल विपक्ष कर रहा है.मुद्दों पर चर्चा होगी. मणिपुर के साथ ही दूसरे मुद्दों पर भी चर्चा होगी. सरकार के लिए भी ये अवसर होगा कि विपक्ष के नैरेटिव के समानांतर अपना नैरेटिव खड़ा करे कि उन्होंने क्या किया है.


सदन में राजनीतिक बहस देखने को मिलेगा. मुझे तो लगता है कि विपक्षी गठबंधन I.N.D.I.A. की तुलना में बीजेपी में अच्छे वक्ता ज्यादा हैं, ख़ासकर हिन्दी में बोलने वाले वक्ता. हिंदीभाषी क्षेत्रों में तो बीजेपी के लिए मौका है कि इस अवसर पर वो अपनी बात प्रचारित करे, प्रसारित करे.


अविश्वास प्रस्ताव एक लोकतांत्रिक अधिकार है


अविश्वास प्रस्ताव एक लोकतांत्रिक अधिकार है और हमेशा इसका इस्तेमाल हुआ है. विपक्ष आज कोई और है, कल कोई और होगा. ऐसा नहीं कह सकते हैं कि अविश्वास प्रस्ताव मुद्दों पर बहस कराने के लिए विपक्ष का आखिरी हथियार है, न ही ये बहस कराने का उपकरण या अवसर है. ये वास्तव में सरकार के प्रति जनता की भावनाओं को, जो नकारात्मक भावनाएं होती हैं, एंटी इनकंबेंसी होती हैं, उसे दर्शाने का अवसर होता है.



चूंकि हमारे देश में दल-बदल कानून और व्हिप व्यवस्था है, तो उससे सांसदों को पार्टियों का गुलाम बना रखा है. सांसद अपनी मर्जी से वोट करेंगे नहीं, इसलिए इसके नतीजे भी फिक्स है. अगर सांसद अंतरात्मा की आवाज पर वोट कर पाते, तो शायद स्थिति अलग होती. तब इस अविश्वास प्रस्ताव के मायने भी अलग होते.



मणिपुर का मुद्दा बेहद गंभीर


ये बात सही है कि मणिपुर की घटना पर प्रधानमंत्री जी ने संसद की चौखट पर 36 सेकंड बोला, लेकिन संसद के भीतर उन्होंने नहीं बोला. ये संसद की मान्य परंपरा का घोर उल्लंघन है कि संसद सत्र शुरू हो रहा हो और प्रधानमंत्री संसद के भीतर बोलना पसंद न करें और संसद के बाहर बोलें. इस परंपरा के घोर उल्लंघन पर विपक्ष रिएक्ट करेगा या नहीं करेगा. विपक्ष भी अप्रत्याशित तरीके से रिएक्ट कर रहा है. प्रधानमंत्री ने भी अप्रत्याशित तरीके से बोला.


जब कोई रास्ता नहीं दिखा तो विपक्ष ने ये रास्ता चुना. लोकसभा में नियम 193 और राज्यसभा में नियम 176 के तहत चर्चा का मतलब कि पूरी बहस डेढ़-दो घंटे में खत्म हो जाना है. विपक्ष का कहना है कि मणिपुर देश की प्राथमिकता है. इस पर मुकम्मल चर्चा होनी चाहिए. उन्होंने राज्यसभा में नियम 267 के तहत चर्चा मांगी, लेकिन  चर्चा करने के लिए चर्चा करनी है, ये तो नहीं हो सकता.


मुद्दे की गंभीरता को भी देखनी होगी. मणिपुर में कानून व्यवस्था की समस्या है, महिलाओं के सम्मान का प्रश्न है, जातीय नरसंहार का सवाल है, धार्मिक या सांप्रदायिकता का मुद्दा है. इनके अलावा व्यवस्था को कोलैप्स होने का सवाल है. सरकार और प्रशासन के नाकामी का सवाल है. लोकतंत्र का कोई पहलू नहीं है जो मणिपुर में हो, इसलिए चिंता है. प्रधानमंत्री जी ने संसद को लोकतंत्र का मंदिर बताया, उस मंदिर में मणिपुर पर प्राथमिकता के आधार चर्चा नहीं होगी, तो चर्चा कहां होगी.


मुझे लगता है कि भले ही मणिपुर के बहाने विपक्ष ने अविश्वास प्रस्ताव लाया है, लेकिन वो लोकतांत्रिक अधिकार का सर्वोत्तम उपयोग है.


दोनों पक्षों के पास एकजुटता दिखाने का मौका


ये एकजुटता दिखाने का विपक्ष के साथ ही सत्ता पक्ष दोनों के लिए ही मौका है. विपक्ष भी एकजुटता दिखा सकता है और सत्ता पक्ष भी. आप ऐसा भी कह सकते हैं कि विपक्ष ने सत्ता पक्ष को एक मौका दे दिया है कि आप और मजबूत होकर आइए. राजनीति के लिए भी अच्छी बात है कि मुद्दों पर एकजुटता हो रही है, चाहे इधर हो या उधर हो.


जब प्रधानमंत्री जी ने पिछली बार दावा किया था कि अगली बार विपक्ष 2023 में अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए, ये हम कामना करते हैं...तो यहां पर थोड़ा ठहरकर सोचने की जरूरत है. ये कामना क्या है. इंदिरा गांधी के खिलाफ 15 बार अविश्वास प्रस्ताव आया. इंदिरा गांधी ने तो कभी इतना एरोगेंस नहीं दिखाया कि विपक्ष 5 साल बाद फिर से तैयारी करके आना. उन्होंने कभी विपक्ष के लिए ऐसी भावना का इस्तेमाल नहीं किया. ये मौजूदा प्रधानमंत्री के एरोगेंस को दर्शाता है. ये शुभकामना नहीं है.


संख्या में विपक्ष तो हमेशा कम होगा, इसलिए तो विपक्ष है. अगर संख्या में अधिक होगा तो सत्ता में होता. कम होने के लिए विपक्ष को लानत तो नहीं भेज सकते हैं कि और तैयारी करके आओ. दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित कर रहे हैं. वे प्रधानमंत्री के तौर पर नहीं बोल रहे हैं, वे बीजेपी नेता के तौर पर बोल रहे हैं क्योंकि प्रधानमंत्री के तौर पर कोई भी विपक्ष के लिए ऐसी बात नहीं कहेगा.


ये बात अपने आप में बहस योग्य है कि मणिपुर हिंसा के मामले में रिजिड कौन है. विपक्ष तो हमेशा मांग करेगा बहस की. ये तो विपक्ष का स्वभाव है. सदन को चलाने के लिए विपक्ष को साथ लेकर सरकार का स्वभाव होना चाहिए. सरकार अगर विपक्ष की बात सुनने को तैयार नहीं है, तो लोकतंत्र में विपक्ष की व्यवस्था ही खत्म कर दीजिए. एक पार्टी की सरकार हो, वो सदन को चलाए, विपक्ष की कोई जरूरत ही नहीं है.


[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.]