बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार को समझना कतई आसान नहीं है. नीतीश कुमार को ऐसा राजनीतिज्ञ माना जाता है जो लीक से हटकर राजनीति करते हैं. राजनीति में विरले ही है जो नीतीश के शह और मात के खेल को समझते हैं. जिस कांग्रेस पार्टी का विरोध कर उन्होंने अपने आप को राजनीति में स्थापित किया, जिस आरजेडी सरकार के जंगलराज का विरोध कर वे सत्ता पर काबिज़ हुए. आज उसी कांग्रेस और आरजेडी के साथ वे गलबहियां कर रहे हैं. 


नीतीश इन दिनों अपनी सभी सियासी चाल चलकर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर रहे हैं. इन दिनों कई नए कीर्तिमान बना कर अपने आप को वे नए गठबंधन आईएनडीआईए में भी अपनी सार्थकता को साबित करना चाहते हैं. हाल में बिहार में एक दिन में ही 1.20 लाख नियुक्ति पत्र देकर वे रिकॉर्ड बना चुके हैं और इसी के सहारे 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के सियासी समर के लिए नीतीश नए प्लान में जुट गए हैं. जिस संयोजक पद के लिए आईएनडीआईए गठबंधन में रस्साकशी चल रही, नीतीश वहां भी ये बताने की कोशिश में लगे हुए हैं कि उनका चेहरा वर्तमान भारतीय राजनीति में सबसे सशक्त और प्रभावशाली है जो नरेंद्र मोदी को टक्कर दे सकता है. इसके अलावा उनका बिहार मॉडल भी सबसे प्रभावी है जहां इन दिनों वे और नए कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं.



रोजगार सृजित करना


हाल में ही नीतीश कुमार ने बिहार में रिकॉर्ड संख्या में शिक्षकों को नियुक्ति पत्र बांटे हैं. राज्य के 3 लाख 68 हजार नियोजित शिक्षकों को भी राज्यकर्मी बनाए जाने का उन्होंने एलान किया है. वहीं आने वाले दो महीने के अंदर ही सरकार की तरफ से 1 लाख से अधिक और शिक्षकों की भर्ती की जाएगी. इसके साथ ही, बीते कुछ महीने में नीतीश ने हर विभाग में रिक्त पदों पर भर्ती का आदेश दिया है. नीतीश ये संदेश दे रहे हैं कि उनकी सरकार की ओर से किया गया वादा पूरा किया जाएगा और राज्य में साल 2024 के अंत तक राज्य के युवाओं को 10 लाख नौकरियां और 10 लाख से अधिक रोजगार के अवसर प्रदान करने का लक्ष्य सरकार हासिल करेगी. नीतीश ये बताना चाहते हैं कि बेरोजगारी देश में सबसे बड़ा मुद्दा है और वे अपने बिहार में दिए गए रोजगार को एक मॉडल के रूप में विकसित करेंगे.


जातीय गणना का मुद्दा


नीतीश कुमार ने बिहार में जातीय गणना करा कर मास्टरस्ट्रोक खेला है. नीतीश ने एक तीर से ही बिहार से दिल्ली तक बीजेपी के विजय रथ को रोकने का तरकश साध लिया है. नीतीश ने जातीय गणना की रिपोर्ट को जारी करके अपनी मंशा जाहिर कर दी है. ये इतना बड़ा मुद्दा हो गया है कि आने वाले हर चुनाव में इसकी गूंज सुनाई देगी. पूरे देश में भी जातीय गणना कराने की मांग सभी विपक्षी पार्टियों की तरफ से की जा रही है. विधानसभा चुनावों में भी अब ये चुनावी घोषणा पत्र में शामिल हो चुका है. बीजेपी के महिला आरक्षण और राष्ट्रवाद के मुद्दे पर यह हावी दिख रहा है. समाज में जिस जाति की जितनी संख्या होगी उसकी राजनीतिक हिस्सेदारी भी अब चुनाव में उतनी ही हो, इसकी मांग भी उठने लगी है. कई साक्ष्य ऐसे पाए गए है जिसमें जातीय गणना में कई लोगों की गिनती छूट गई है. अलग-अलग पार्टियों के नेताओं ने भी इसके लिए आवाज उठाई है कि इस गणना को सही तरीके से नहीं कराया गया है, लेकिन ये बात भी है कि अब फिर से कोई गणना बिहार में नहीं होनी वाली है.



 आधिकारिक रूप में तो कम से कम हर जाति की कितनी संख्या है यह आंकड़ा सामने आ गया है. सरकार का पूरा ध्यान अब उन्हीं आंकड़ों के सहारे नीति निर्माण में लगा हुआ है. आगे बिहार विधानमंडल के सत्र में हो सकता है कि सदन के पटल पर इस गणना को पेश कर नीतीश कुमार आरक्षण बढ़ाने का बिल भी विधानसभा में लाकर फिर से एक नया दांव खेल सकते हैं. अगर ऐसा होता है तो यह बीजेपी के लिए गले की फांस बन जाएगा.


महिलाओं को आरक्षण


नीतीश ये जानते हैं कि महिलाओं का वोट प्रतिशत लगभग आधी है. उनका परंपरागत वोट बैंक भी महिलाओं का रहा है. महिलाओं के हक के लिए उन्होंने कई काम भी किए हैं. उन्हें सशक्त, समृद्ध और शिक्षित करने के लिए राज्य में कई योजनाएं चलाई जा रही है और नीतीश की यह  ईमानदार कोशिश भी लगती है. चाहे जीविका दीदीयों की बात हो, बिहार में सरकारी सेवाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण या स्कूली लड़कियों की शिक्षा के लिए विशेष योजनाएं चलाई जानी हो. नीतीश हर वर्ग के लिए समान रूप से विकसित करने की बात करते आए हैं. उनकी महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं में से एक शराबबंदी के बारे में भी वे कई बार सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि ऐसा उन्होंने महिलाओं के आग्रह पर ही किया है. ऐसे में यह साफ है कि नीतीश की पकड़ महिला वोट बैंक में भी अच्छी खासी है. अब आगे वाले चुनावों में इसका फायदा नीतीश को कितना मिलता है वह देखने वाली बात होगी.


गठबंधन पर दबाव की राजनीति


नीतीश कुमार ने विपक्षी गठबंधन आईएनडीआईए की नींव रखी और सभी को एकजुट करके पहली बैठक पटना में की. कांग्रेस ने उसके बाद भी अब तक नीतीश कुमार को संयोजक पद नहीं दिया और आगे अब गठबंधन पर कोई ध्यान नहीं दे रही है. नीतीश ने खुद बीते दिन इस बात को जनता के बीच रखा कि बड़ी उम्मीद के साथ आईएनडीआईए का गठन पटना में हुआ. कांग्रेस इन दिनों राष्ट्रीय पार्टी की तरह व्यवहार नहीं कर रही है. आजकल गठबंधन का कोई काम नहीं हो रहा, अभी कांग्रेस गठबंधन पर ध्यान नहीं देकर पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव पर पूरा ध्यान केंद्रित कर रही है. हमलोग सभी को साथ लेकर चलते हैं, और एकजुट करते हैं. दरअसल, वे गठबंधन पर दबाव की राजनीति कर स्वयं को आगे लाना चाहते है. 


सार्वजनिक मंच से हालांकि उन्होंने अपने आप को इस पद से अलग रखने की बात की है, लेकिन उनकी पार्टी के तरफ से भी नीतीश को पीएम उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने की मांग कई बार उठ चुकी है. जी 20 की बैठक में पीएम मोदी से मिलने के बाद तमाम तरह की अटकलें लगाई जा रही थी. ये सब दरअसल प्रेशर पॉलिटिक्स का ही हिस्सा था. बिहार में उनके सहयोगी आरजेडी प्रमुख लालू प्रसाद यादव खुद ये नहीं चाहते कि नीतीश को संयोजक पद दिया जाए. कांग्रेस के साथ लालू के नीतीश की तुलना में ज्यादा अधिक अच्छे रिश्ते हैं, इसका बखान स्वयं लालू ने अखिलेश सिंह के सांसद बनवाए जाने को लेकर किया था. सोनिया गांधी भी लालू यादव की बात को गंभीरता से लेती हैं. 


ऐसे में ये तो साफ है कि नीतीश बिहार में आरजेडी और कांग्रेस गठबंधन के सहयोगी दलों की आलोचना भले मंच से कर रहे हो, लेकिन नीतीश कुमार इस बार पलटी मारने के मूड में कतई नहीं हैं. वे समय समय पर बस अपनी बात प्रभावशाली ढंग से अपने गठबंधन दल के नेताओं को कराते रहते हैं और दबाव बनाते रहते हैं. नीतीश की स्वीकार्यता आज भी सभी दलों में है यथार्थ है. इसी एजेंडा को आज भी वे सेट करने में लगे है इसलिए वे अपनी नजदीकी दोनों जगहों पर बना कर कर राजनीति करते रहते हैं ताकि प्रभावशाली ढंग से वे सत्ता में बने रहें. लोकसभा चुनाव के लिए भी वे इसी तर्ज पर अपनी रणनीति बना रहे हैं.



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