चौबीस बरस के बाद गांधी परिवार से बाहर के दलित नेता मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के अध्यक्ष तो बन गये लेकिन सियासी गलियारों में एक बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि गांधी परिवार के साये से मुक्त होकर क्या वे स्वतंत्र होकर अपने मनमाफ़िक फैसले ले पायेंगे? इस सवाल उठने की अपनी वजह भी है क्योंकि सोनिया के बाद राहुल-प्रियंका गांधी के जो सियासी तौर तरीके हैं, उससे नहीं लगता कि वे इतनी आसानी से पार्टी पर से अपनी पकड़ छोड़ने के लिए मानसिक रुप से तैयार हो पाएंगे.
हालांकि राहुल गांधी ने जोर देकर कहा कि कांग्रेस के हर सदस्य की तरह, वह भी "खड़गे-जी" को रिपोर्ट करेंगे लेकिन राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कुछ दावे सिर्फ लोगों को दिखाने के लिए ही किये जाते हैं, जबकि उसकी हक़ीक़त कुछ और ही होती है. वैसे भी जिस दिन खड़गे ने अपनी उम्मीदवारी का ऐलान किया था, उसी वक्त कांग्रेस की निचली पंक्ति तक ये संदेश पहुंच गया था कि उनको दस जनपथ का वरदहस्त प्राप्त है, लिहाजा उसी समय से उनकी जीत तय मानी जा रही थी. लेकिन खड़गे की इस जीत और उनके प्रतिद्वंदी शशि थरुर की हार में कांग्रेस के लिए एक संदेश छुपा हुआ है.
शशि थरुर को जो 1072 वोट मिले हैं, उसका बड़ा संदेश यही है कि पार्टी में एक धड़ा ऐसा भी है जो कांग्रेस अध्यक्ष को पूरी तरह से गांधी परिवार के साये से मुक्त हुआ देखना चाहता है. दरअसल, थरुर को मिले इस अल्प समर्थन से 10 जनपथ को ये सबक लेना होगा कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र अभी भी पूरी तरह से नहीं आया है और ऐसे सदस्यों को यही आशंका है कि खड़गे भी गांधी परिवार के महज रबर स्टैंप बनकर ही रह जाएंगे.
हालांकि सोनिया गांधी ने ऐसी आशंकाओं को खत्म करने के मकसद से ही पार्टी की पुरानी परंपरा को तोड़कर ये दिखाने की कोशिश की है कि खड़गे हर फैसला लेने के लिए पूरी तरह से आज़ाद होंगे. दरअसल, अध्यक्ष चुने जाने के बाद खड़गे ने जब सोनिया गांधी से उनके 10 जनपथ स्थित आवास पर मिलने के लिए अपॉइंटमेंट मांगा, तो सोनिया ने उनको अपॉइंटमेंट देने की बजाय कुछ ऐसा करने के लिए सोचा, जिसका पार्टी के भीतर और बाहर एक बड़ा सकारात्मक सियासी संदेश जाए.
सोनिया ने तय किया कि कांग्रेस के नये अध्यक्ष को अपने घर बुलाने की बजाय क्यों न खुद ही उनके घर जाकर बधाई दी जाये. सो, वे अपनी अपनी बेटी और पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे के आवास, 10 राजाजी मार्ग जा पहुंचीं. जाहिर है कि सोनिया का ये शिष्टाचार चौंकाने वाला था क्योंकि कांग्रेस में अभी तक यही परंपरा रही है कि पार्टी नेतृत्व इस तरह से कभी किसी नेता के घर नहीं गया है. लेकिन सोनिया के इस फैसले का विशुद्ध राजनीतिक मकसद था.
हालांकि इस संबंध में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के घर तक निकाले गए मार्च को अपवाद माना जा सकता है. साल 2015 में जब कोयला घोटाला मामले में मनमोहन सिंह को तलब किया गया था,तब सोनिया गांधी ने एकजुटता दिखाने के लिए पार्टी कार्यालय सेमनमोहन सिंह के घर तक कांग्रेस मार्च का नेतृत्व किया था.
अगर ईमानदारी से आकलन करें, तो खड़गे के लिए लिए कांग्रेस अध्यक्ष बनना फिलहाल एक ऐसा ताज पहनने की तरह है जिसमें चुनौतियों भरे कांटों के सिवा और कुछ नहीं है.उनका सबसे पहला इम्तिहान तो हिमाचल प्रदेश और गुजरात में होने वाले विधानसभा चुनाव हैं,जहां से पता चलेगा कि वे पार्टी का प्रदर्शन सुधार पाने में किस हद तक कामयाब हुए हैं.
उसके बाद अगले साल आठ राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे तय करेंगे कि 50 बरस का उनका सियासी अनुभव पार्टी में कितनी जान फूंक पाया है.राजस्थान में पार्टी के भीतर मची उथल-पुथल को थाम पाने में वे अपना राजनीतिक कौशल दिखा पाने में अगर सफल नहीं हुए,तो कांग्रेस का ये किला ढहने का बड़ा खतरा उनके सिर मंडरा रहा है,जहाँ अगले साल के अंत में चुनाव हैं. मोदी सरकार के खिलाफ अपने बयानों-भाषणों के तीर चलाना अलग बात है लेकिन जमीनी स्तर पर बीजेपी को पछाड़ फेंकना कोई खालाजी का घर नहीं है, इसलिए 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए पार्टी के लिए उन्हें कोई ऐसा प्लान पेश करना होगा,जिसका असर जनता में भी हो.
उदयपुर मे हुए कांग्रेस के चिंतन शिविर के उन सभी एजेंडों को सिरे तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी अहम है, जिसके दम पर पार्टी ने अगले कई सालों का पूरा विजन तैयार किया है. लेकिन फिलहाल तो देखना ये है कि वे शशि थरुर को कांग्रेस कार्यसमिति का सदस्य बनाकर उन 1072 सदस्यों के विरोध की आवाज़ को अपने साथ ला पाते हैं कि नहीं,जिहोंने खड़गे के ख़िलाफ़ वोट देकर पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की आवाज बुलंद की है.
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