आगामी लोक सभा चुनाव में अब क़रीब 7 महीने का ही वक़्त शेष है. एक तरफ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी लगातार तीसरी बार केंद्र की सत्ता पर क़ाबिज़ होना चाहती है. वहीं दूसरी ओर विपक्ष I.N.D.I.A गठबंधन के तले एकजुटता से बीजेपी के इरादों पर पानी फेरना चाहता है.


फ़िलहाल विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' अपने एक फ़ैसले को लेकर चर्चा में है. इसके तहत विपक्षी गठबंधन ने  14 टीवी एंकर के कार्यक्रमों के बहिष्कार का निर्णय लिया है. इस फ़ैसले के लिए विपक्षी गठबंधन की दलील है कि ये सारे एंकर अपने कार्यक्रमों में नफ़रत के नैरेटिव को आगे बढ़ाते हैं. विपक्षी गठबंधन का ये क़दम चुनावी फ़ाइदा के लिहाज़ से कितना कारगर साबित होगा, यह तो चुनावी नतीजे के बाद ही पता चलेगा. इतना ज़रूर है कि यह फ़ैसला विपक्ष के चुनावी रणनीति का ही हिस्सा है.


एकजुटता विपक्ष की है मजबूरी


बीजेपी की अगुवाई में एनडीए गठबंधन लोक सभा चुनाव में लगातार दो बार बड़ी जीत हासिल करने में सफल रहा है. लोक सभा चुनाव के नज़र से देखें, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और बीजेपी की लगातार बढ़ती ताक़त के सामने कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों के पास एकजुट होने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था. कांग्रेस के साथ ही कई दलों के लिए 2024 का चुनाव एक तरह से अस्तित्व की लड़ाई भी है. विपक्षी गठबंधन एकजुटता दिखाने और इस एकजुटता को चुनाव तक बरक़रार रखने के लिए तमाम प्रयास भी कर रहा है. सीट बंटवारे के पेंच को सुलझाने से लेकर प्रचार का एजेंडा तय करने के लिए इस गठबंधन में शामिल तमाम दलों के प्रतिनिधि नियमित संवाद में भी जुटे हैं.



सीट बंटवारे का मसला पेचीदा


सीट बंटवारे का मसला पेचीदा तो है क्योंकि कांग्रेस को छोड़कर इस गठबंधन में शामिल ज्यादातर दलों का व्यापक जनाधार महज़ एक राज्य तक ही सीमित है. कांग्रेस के बाद बड़ी पार्टियों की बात करें, तो चाहे ममता बनर्जी की टीएमसी हो, या फिर अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी हो. उसी तरह से नीतीश की जेडीयू हो, तेजस्वी यादव की आरजेडी हो, शरद पवार की पार्टी हो या फिर उद्धव ठाकरे की पार्टी हो..इन सभी दलों का मुख्य प्रभाव एक ही राज्य तक है. हेमंत सोरेन की झामुमो, एम. के. स्टालिन की डीएमके समेत जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी पर भी यही बात लागू होती है. यहां तक कि कभी कई राज्यों में कैडर आधारित जनाधार वाली सीपीएम भी अब मुख्य तौर से केरल में सिमट कर रह गई है.


कांग्रेस को छोड़ दें, तो विपक्षी गठबंधन में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ही है, जिसका जनाधार या प्रभाव एक से ज्यादा राज्यों में ही. आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब की सत्ता पर क़ाबिज़ है. वहीं गुजरात समेत कुछ राज्यों में आम आदमी पार्टी का प्रभाव धीरे-धीरे ही सही, लेकिन बढ़ रहा है. विपक्ष के गठबंधन में कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है, जिसका जनाधार पैन इंडिया है.


पार्टियों का निजी हित पर ख़ास ज़ोर


यही वो मुद्दा है, जिसकी वजह से सीट बंटवारे का मसला विपक्षी गठबंधन के लिए जटिल हो सकता है क्योंकि एक राज्य तक ही सीमित हर पार्टी चाहेगी कि उसे उसके प्रभाव वाले राज्य में ज्यादा सीटें मिले. इसके लिए बाक़ी दलों को तो नहीं, लेकिन कांग्रेस को बड़ा दिल दिखाते हुए कुछ राज्यों में क़ुर्बानी देनी पड़ेगी. विपक्षी गठबंधन की तमाम बड़ी पार्टियों की भी यही चाहत रही है. गठबंधन बनने की प्रक्रिया में ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल ने इस पहलू को अपने-अपने तरीके से स्पष्ट भी किया था.


हालांकि विपक्षी गठबंधन की समन्वय समिति का मानना है कि सीट बंटवारे पर कोई ज्यादा समस्या नहीं आने वाली है. मुख्य मकसद बीजेपी को हराना है और सीट बंटवारे में इस पहलू का ख़ास ख़याल रखा जाएगा.नई दिल्ली में शरद पवार के आवास पर 13 सितंबर को हुई बैठक में विपक्षी गठबंधन की समन्वय समिति ने सीट बंटवारे से जुड़े फ़ॉर्मूले को तय करने की प्रक्रिया शुरू करने का भी फ़ैसला किया था. 


चेहरा और नैरेटिव बीजेपी का मज़बूत पक्ष


विपक्षी गठबंधन का मकसद बीजेपी को राज्यवार ज्यादा से ज्यादा सीट पर मिलकर घेरना है. हालांकि यह इतना आसान नहीं है क्योंकि केंद्र की राजनीति के लिहाज़ से बीजेपी बेहद ताक़तवर नज़र आ रही है. दो पहलू हैं, जिनसे विपक्षी एकजुटता के बावजूद बीजेपी को चुनौती देना आसान नहीं है. पहला चेहरा और दूसरा नैरेटिव.



प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता बड़ी ताक़त


बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं, यह बे-शक-ओ-शुब्हा या'नी निःसंदेह है. विपक्ष के पास आइंदगाँ या'नी आगामी आम चुनाव के लिए नरेंद्र मोदी जैसे चेहरे की कमी उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है. विपक्ष कितनी भी कोशिश कर ले, इस पहलू का तोड़ नहीं निकाल सकता है. देश के बड़े तबक़े में 2014 से प्रधानमंत्री होने के बावजूद नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में कमी नहीं आई है, ये तथ्य है. वहीं 26 दलों का जो विपक्ष का कुनबा बना है, उस गठजोड़ की मजबूरी है कि 2024 चुनाव से पहले किसी चेहरे को प्रधानमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं कर सकता है. ऐसा कोई भी प्रयास विपक्षी गठबंधन के अस्तित्व पर ही ख़तरा पैदा कर सकता है.


नैरेटिव गढ़ने और फैलाने में बीजेपी है माहिर


जो दूसरा पहलू है, वो बेहद महत्वपूर्ण है. बीजेपी नैरेटिव गढ़ने में माहिर हो चुकी है. यह हम सब पिछले दो लोक सभा चुनाव से देखते आ रहे हैं. पिछले 9 साल में हमने केंद्रीय स्तर पर देखा है कि विपक्ष मोदी सरकार के ख़िलाफ़ कोई ठोस नैरेटिव नहीं गढ़ पाया है, जो लंबे वक्त तक टिका रह सके. कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की ओर से कोशिश ज़रूर हुई है, लेकिन जब-जब विपक्ष की ओर से किसी भी मसले पर मोदी सरकार को घेरने की कोशिश केंद्रीय स्तर पर की गई है, बीजेपी साफ़-गोई से विपक्ष के उस नैरेटिव को भी अपने पक्ष में पलटते नज़र आई है.


हिंदुत्व, सनातन, राष्ट्रवाद  का नैरेटिव


बीजेपी का सबसे बड़ा हथियार या कहें नैरेटिव...हिंदुत्व, सनातन, राष्ट्रवाद ..है. इनको माध्यम बनाकर बीजेपी पिछले 9 साल से विपक्ष के सरकार को घेरने से जुड़े हर मुद्दे को बेअसर साबित करते आ रही है. चाहे मुद्दा महँगाई का हो, बेरोजगारी का हो, नफ़रत के माहौल का हो या फिर साम्प्रदायिक सद्भाव का हो..बीजेपी विपक्ष के हर प्रयास को अपने नैरेटिव...हिंदुत्व, सनातन, राष्ट्रवाद ..से जोड़ते हुए उसे भी अपने फायदे का मुद्दा बनाते आ रही है.


'इंडिया' नैरेटिव की काट के लिए 'भारत'


ताज़ा मामला विपक्षी गठबंधन के नाम से जुड़ा है. अगर इस मुद्दे पर ग़ौर, तो यह बात सही है कि जुलाई में अपने गठबंधन का नाम I.N.D.I.A रखकर कुछ समय के लिए विपक्षी पार्टियों ने बीजेपी के खेमे में हलचल बढ़ा दी थी. अपने गठबंधन का नाम I.N.D.I.A रखकर विपक्ष 2024 चुनाव से पहले देश की जनता में भावनात्मक बढ़त बनाना चाहती थी, इस बात पर राजनीतिक विश्लेषकों के बीच शायद ही कोई मतभेद हो. इसे एक तरह से विपक्ष की ओर से बीजेपी के राष्ट्रवाद से जुड़े नैरेटिव की काट के तौर पर भी देखा जा सकता है. विपक्ष को लगा था कि इस शब्द के माध्यम से वो बीजेपी पर भावनात्मक बढ़त बना सकता है.


पिछले 9 साल से तमाम मिशन में 'इंडिया' शब्द


हालांकि विपक्ष के इस मंसूबे को पंख लगने से पहले ही बीजेपी ने उसकी काट में समानांतर नैरेटिव खड़ा कर दिया. बीजेपी ने पलटवार करते हुए 'इंडिया' की काट के लिए 'भारत' का नैरेटिव गढ़ दिया. इस नैरेटिव को सनातन परंपरा और राष्ट्रवाद से जोड़ते हुए 'इंडिया' शब्द को औपनिवेशिक मानसिकता और ग़ुलामी का प्रतीक तक क़रार दे दिया. जबकि यह वही मोदी सरकार है, जो पिछले 9 साल में तमाम योजनाओं, कार्यक्रमों, मिशन और उनसे जुड़े नाम, लोगो (LOGO) से लेकर विज्ञापन में 'इंडिया' शब्द का प्रयोग करते आ रही है. चाहे 'डिजिटल इंडिया' हो, 'स्किल इंडिया' मिशन हो या फिर 'मेक इन इंडिया' अभियान हो.


एक बड़ा तबक़ा हर परिस्थिति में साथ


मोदी सरकार के साथ ही बीजेपी को यह बात भलीभांति पता है कि देश का एक बड़ा तबक़ा उसके साथ है. बीजेपी इससे भी वाक़िफ़ है कि वो बड़ा तबक़ा कभी यह सवाल नहीं पूछने वाला है कि इस साल 17 जुलाई से पहले 'इंडिया' शब्द के स्थान पर 'भारत' शब्द का नैरिटेव किस गुफा में बंद पड़ा था.


बीजेपी या मोदी सरकार हो, अपने नैरेटिव को सिर्फ़ गढ़ती ही नहीं है, उसको जल्द ही आज़माती भी है. जी 20 समिट से जुड़े एजेंडे में अपने इस नैरेटिव जगह देते हुए मोदी सरकार ने जनता का मूड भी भांप लिया. जी 20 समिट से पहले राष्ट्रपति भवन में होने वाले रात्रि भोज के निमंत्रण पत्र पर  'President Of India' की जगह 'President Of Bharat' लिखा गया. उसके बाद जब 9 और 10 सितंबर को नई दिल्ली के भारत मंडपम में जी 20 का सालाना शिखर सम्मेलन हुआ, तो उसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कुर्सी के सामने जो देश की नाम पट्टिका लगी थी, उस पर 'इंडिया' शब्द की जगह 'भारत' शब्द का इस्तेमाल किया गया था. मोदी सरकार के इस पहल पर सोशल मीडिया से लेकर तमाम टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में गहमागहमी देखने को मिली. बीजेपी का  पक्का समर्थन करने वाले तबके ने मोदी सरकार के इस पहल की जमकर सराहना की.


बीजेपी मुद्दा बनने ही नहीं देती है


बीजेपी की यही ख़ासियत है, जिसका तोड़ एकजुट विपक्ष के पास फ़िल-वक़्त नहीं दिख रहा है. बीजेपी ने पिछले 9 साल में न तो महँगाई को, न ही बेरोजगारी को, न तो नफ़रत के माहौल को, न ही भ्रष्टाचार के मुद्दे को लंबे वक्त तक मीडिया की सुर्खियां बने रहने दिया है. अपने नैरेटिव के जरिए हर मुद्दे को सनातन परंपरा या राष्ट्रवाद से जोड़कर बेअसर साबित करते रही है.


कोई भी अगर महँगाई का मुद्दा उठाता रहा है और उस पर बहस करता है, तो बीजेपी के नेता और कार्यकर्ता उसे राष्ट्र की उन्नति से जोड़कर मुद्दा बनिने ही नहीं देते हैं. जबकि हम सब जानते हैं कि पिछले 9 साल में  ग़रीब और मिडिल क्लास के लोगों की आय उस रफ़्तार से नहीं बढ़ी है, जिस तेज़ गति से जीने के लिए ज़रूरी खाने-पीने के सामानों और दवाइयों की कीमतें बढ़ी हैं. इसके बावजूद महँगाई पिछले 9 साल में कभी भी लंबे वक्त तक के लिए मुख्यधारा की मीडिया का मुद्दा नहीं रहा है. यही हाल बेरोज़गारी जैसे मुद्दे का भी होता रहा है.


बीजेपी के नैरेटिव पर आँख मूँदकर भरोसा


हम सबने देखा है कि 'इंडिया' वाले मुद्दे पर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने कैसे इस विपक्षी गठबंधन को इंडी अलायंस या घमंडिया गठबंधन तक क़रार दे दिया है. यहां तक कि बीजेपी अपने नैरेटिव के जरिए विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में शामिल दलों को देश विरोधी और सनातन विरोधी तक बताने का कोई मौक़ा नहीं चूक रही है. उसे ब-ख़ूबी मालूम है कि उसके नैरेटिव पर बिना कोई सवाल किए आँख मूँदकर भरोसा करने वाला एक बड़ा तबक़ा है. चुनावी गुणा गणित का अपना महत्व है, लेकिन लोक सभा चुनाव को जीतने के लिए नैरेटिव गढ़ना और उसके आधार पर पूरे देश में एक माहौल बनाना, चुनावी गुणा गणित से कम महत्व नहीं रखता है.


आम चुनाव में माहौल है बेहद महत्वपूर्ण


इस माहौल का काम शत-प्रतिशत मतदाताओं को अपने पक्ष में करना नहीं होता. भारत में जिस तरह की संसदीय व्यवस्था है, उसमें 40 से 50 फ़ीसदी मतदाताओं पर भी अगर आपके नैरेटिव और उससे बने माहौल का प्रभाव बना रहता है, तो फिर सत्ता हासिल करना आसान हो जाता है. अगर दो से तीन प्रतिशत वोट भी किसी ख़ास नैरेटिव से बने माहौल की वजह से इधर से उधर हो जाए, तो उससे भारत में लोक सभा चुनाव में विजय हासिल करने में ख़ासी मदद मिल जाती है. विधान सभा के मुकाबले लोक सभा चुनाव में यह पहलू ज्यादा कारगर होता है. बीजेपी इसमें माहिर है. अगर विपक्ष ने इसका तोड़ नहीं निकाला तो आगामी लोक सभा चुनाव में बीजेपी इसका फायदा मिलने की पूरी संभावना है.


विपक्ष कैसे गढ़ेगा बीजेपी विरोधी नैरेटिव?


ग़ौरतलब है कि विपक्ष का गठबंधन चुनावी रणनीति के तहत देश के अलग-अलग हिस्सों में साझा जनसभा भी करेगा. इसके तहत गठबंधन की पहली सार्वजनिक रैली अक्टूबर के पहले हफ्ते में भोपाल में होगी. महंगाई, बेरोजगारी और बीजेपी के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर यह जनसभा केंद्रित होगी. यह भी तय है कि आगे विपक्षी गठबंधन अपने चुनाव प्रचार अभियान में जातिगत जनगणना, नफ़रत का माहौल जैसे और भी मुद्दे उठाकर मोदी सरकार के ख़िलाफ़ नैरेटिव बनाने का प्रयास करेगा. लेकिन सवाल है कि क्या उसका असर लंबे वक़्त तक देशवासियों पर रहेगा.


ये सवाल इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि पिछले 9 साल में चाहे कांग्रेस हो या फिर कोई और विपक्षी पार्टी..किसी भी मुद्दे पर लंबे वक़्त तक संघर्ष करते हुए नज़र नहीं आई है. चंद एंकर के बहिष्कार का ही मुद्दा ले लें. विपक्षी दलों को भलीभांति पता है कि एंकर अपनी-अपनी संस्था के कर्मचारी मात्र हैं, वे कोई तानाशाह नहीं हैं कि अपनी मनमर्जी करते रहें. इस तरह के फ़ैसले से विपक्षी गठबंधन ने बीजेपी को एक और नैरेटिव तैयार करने का मौक़ा दे दिया है.


नैरेटिव बनाने के लिए संघर्ष से भागता विपक्ष


जो भी पार्टियां  I.N.D.I.A गठबंधन के तले साथ आई हैं, वो सभी ऊपरी तौर से कह तो यही रही हैं कि उनके साथ आने का मकसद नरेंद्र मोदी सरकार को लगातार तीसरी बार सत्ता में आने से रोकना है. हालांकि बीजेपी जनता के बीच इस नैरेटिव को आगे ले जाने में सफल दिख रही है कि अपनी-अपनी पार्टी के अस्तित्व को बचाने के लिए इन विपक्षी दलों ने गठजोड़ किया है. राजनीतिक विश्लेषक की नज़र से देखें तो पिछले दो लोक सभा चुनाव में प्रदर्शन के मद्द-ए-नज़र बीजेपी के नैरेटिव में बहुत हद तक सच्चाई भी है.


विपक्षी गठबंधन को बीजेपी के इस नैरेटिव का तोड़ खोजना होगा. इसके लिए तमाम विपक्षी दलों को जनता से जुड़ी समस्याओं और दुश्वारियों के लिए सड़क पर संघर्ष करते हुए दिखने की ज़रूरत है. संघर्ष एक दिन या चंद दिनों का नहीं, लगातार जारी रहने वाले संघर्ष की दरकार है. देश की जनता ने कभी नहीं देखा कि कांग्रेस हो या कोई और विपक्षी पार्टी..महँगाई को लेकर लगातार सड़क पर रही हो. कभी-कभार मुद्दा उठाने और उसके लिए एक-दो दिन धरना-प्रदर्शन कर देने भर से किसी सरकार के ख़िलाफ़ नैरेटिव नहीं बनाया जा सकता. उसमें भी जब सामने बीजेपी जैसी माहिर पार्टी हो, तब तो और भी नहीं.


इसके उलट जनता के बीच अवधारणा ऐसी बन रही है कि विपक्षी गठबंधन में शामिल पार्टियों का प्रमुख ज़ोर अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में ज्यादा से ज्यादा सीट सुनिश्चित करने पर है.


चुनावी मुद्दा बनाने में असफल रहा है विपक्ष


हमने पिछले दो लोक सभा चुनाव में भी देखा था  कि विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार के ख़िलाफ़ चुनावी मुद्दा बनाने में सफल नहीं हो पाया था. उन चुनावों में बीजेपी की यही सबसे बड़ी ताक़त रही थी. इस बार भी बीजेपी के नैरेटिव के सामने चुनावी मुद्दों को लेकर विपक्षी गठबंधन का हाथ तंग नज़र आ रहा है. सरल और सपाट शब्दों में कहें तो विपक्ष नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ वैसा चुनावी मुद्दा नहीं बना पा रहा है, जिसको आधार बनाकर बीजेपी को मात दे सके. यही पहलू 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सबसे बड़ी ताक़त साबित होने वाला है.


ऐसा नहीं है कि विपक्षी गठबंधन के लिए मुद्दों की कमी है, लेकिन उन मुद्दों को लेकर लगातार संघर्ष करने की क्षमता और उसे जनता के बीच पहुंचाने की रणनीति का अभाव जरूर विपक्षी दलों में दिखता है. बीजेपी मुद्दों को गढ़ने और जनता के बीच उनको पहुंचाने में विपक्ष से कोसों आगे नज़र आती है.


बीजेपी के पास माहौल के लिए मुद्दों की भरमार


नरेंद्र मोदी सरकार समान नागरिक संहिता, 'एक देश, एक चुनाव', जैसे मुद्दे को तो बढ़ावा दे ही रही है, इसके साथ ही विपक्षी गठबंधन को यह नहीं भूलना चाहिए कि 2024 के लोकसभा चुनाव के पहले बीजेपी के पास एक और तगड़ा मुद्दा होगा, जिसकी बदौलत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में लगातार तीसरी बार सरकार बनाने पार्टी के दावे को काफी बल मिल सकता है. ये ऐसा मुद्दा है, जिसके सामने विपक्ष के सारे आरोप और मुद्दे बौने साबित हो सकते हैं. हम सब जानते हैं कि अगले साल जनवरी में अयोध्या में भव्य राम मंदिर का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उद्घाटन करेंगे. बीजेपी इस पल को ऐतिहासिक और स्वर्णिम बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी, ये भी तय है.


ये वो वक्त होगा, जब पूरे देश में लोकसभा चुनाव का माहौल छाया रहेगा क्योंकि अगला लोकसभा चुनाव अप्रैल-मई 2024 में ही होना है. ये भी किसी से छिपा नहीं है कि ऐसा होने के बाद देश में किस तरह का चुनावी माहौल बनेगा और बीजेपी के हिंदुत्व कार्ड के लिहाज से ये एक नई ऊंचाई होगी और इसका काट खोजना विपक्ष के काफी मुश्किल काम होगा. कह सकते हैं कि इसके बरअक्स कोई और मुद्दा खड़ा करना विपक्ष के लिए दिन में तारे देखने जैसा दुरूह कार्य होगा.


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