उल्टी हो गईं सब तबदीरें, कुछ न दवा ने काम किया...कर्नाटक विधानसभा चुनाव 2018 राहुल गांधी के लिए एक बहुत बड़ा झटका है. राहुल ने हर तरह का हथकंडा इस्तेमाल किया. मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या को खुली छूट दी. जिन्होंने स्थानीय मुद्दे, जातिय समीकरण, सोशल मीडिया साधनों का भरपूर इस्तेमाल किया. लेकिन 15 मई 2018 को सबकुछ ध्वस्त हो गया. राहुल जीत के लिए व्याकुल थे. दरअसल, कर्नाटक की जीत राहुल के लिए न सिर्फ राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थिरता प्रदान करती बल्कि कांग्रेस की अंदरुनी राजनीति में उनकी पकड़ मजबूत करती. अब राहुल को कांग्रेस कार्यसमिति से लेकर तमाम मामलों में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर निर्भर रहना पड़ेगा.


कांग्रेस का लिंगायत समुदाय को एक पृथक धर्म के रूप में प्रस्तुत करना महंगा पड़ा. लगता ऐसा है कि इतने बड़े कदम उठाने से पहले राहुल ने प्रयाप्त विचार-विमर्श व होमवर्क नहीं किया. जमीनी स्तर पर बीजेपी, आरएसएस व अन्य दक्षिणपंथी संगठनों ने एक प्रकार से काउंटर ध्रुवीकरण किया. अल्पसंख्यक समुदाय ने भी जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) का साथ नहीं छोड़ा. राहुल आत्मचिंतन की जरूरत है की बड़े फैसले लेने से पहले उसका गुणा-भाग करें.


राहुल की सबसे बड़ी समस्या और चुनौती प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. गुजरात की तरह कर्नाटक में भी राहुल की दो महीने पहले की तैयारी. जो अथक प्रयास व मेहनत नरेंद्र मोदी की 21 जनसभाओं के सामने टिक नहीं सकी. मोदी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में कर्नाटक चुनाव को मोदी बनाम राहुल कर अपनी धाक फिर से जमा ली. राहुल ने अपनी राजनीतिक अनुभवहीनता के चलते अपने आप को प्रधानमंत्री पद का दावेदार के रूप में पेश किया. जो विधानसभा चुनाव में उनके विरुद्ध गया. अति आत्मविश्वास और सोशल मीडिया पर अपनी बढ़त मानते हुए राहुल ने क्षेत्रीय मुद्दों पर फोकस नहीं किया. सोनिया गांधी ने अपने तथाकथित रिटायरमेंट को दरकिनार कर जनसभाएं की, जिसने मोदी के परिवारवाद के हमलों ने मजबूती प्रदान की.


प्रश्न ये उठता है कि गुलाम नबी आजाद, अशोक गहलोत और सिद्धारमैय्या यदि जेडीएस के साथ चुनाव के बाद समझौता करना चाहते थे, तो चुनाव से पहले क्यों नहीं? क्या कारण था कि मायावती का साथ नहीं लिया गया? यदि कांग्रेस एक दलित समाज के व्यक्ति को चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनाना चाहती थी तो चुनाव से पहले क्यों नहीं?


आने वाला समय संपूर्ण विपक्ष के लिए चुनौतियों भरा है. कमजोर कांग्रेस को हाशिये पर लगाने के बाद मोदी-शाह की जोड़ी अब क्षेत्रीय दलों से लोहा लेने के लिए तैयार है. परस्पर प्रतिस्पर्धा और प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, तेलंगाना के सीएम चंद्रशेखर राव (केसीआर) को एकजुट करने में वंचित रख सकती है. भारतीय मध्यम वर्ग तीसरे मोर्च को लेकर आश्वस्त नहीं है और वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को और अधिक शक्ति प्रदान कर सकता है. 2019 के चुनाव में राहुल कांग्रेस तीसरे मोर्च और बीजेपी के बीच में पिस सकती है. 2019 में एक और निराशाजनक प्रदर्शन कांग्रेस के अस्तित्व पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा कर सकती है और कांग्रेस मुक्त भारत को यथार्थ में बदल सकती है.


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