जंग तो चंद रोज होती है पर जिन्दगी बरसों तलक रोती है. जी हां, ठीक 22 बरस पहले हमने करगिल की ऐसी जंग जीती जो लगभग नामुमकिन ही थी. तबसे लेकर हर साल 26 जुलाई को देश में करगिल विजय दिवस के रुप में मनाने और उन शहीदों को याद करने की रस्म अदायगी होती चली आ रही है. लेकिन सवाल यह है कि ऐसी शहादत को सिर्फ एक ही दिन सलाम करके बाकी पूरे साल उन्हें भुला देने की अहसानफरामोशी से हम कब निज़ात पायेंगे?

शहीद हुए सैनिकों को याद करने और उनके प्रति सम्मान जताने का जज़्बा सिर्फ एक खास दिन पर ही क्यों पैदा होना चाहिए और आख़िर क्यों नहीं ये करोड़ों देशवासियों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा अब तक भी नहीं बन पा रहा है? ये सवाल इसलिये भी अहम है कि ये लाखों जाबांज़ सिर्फ देश की सरहदों की रक्षा ही नहीं कर रहे बल्कि वे हम करोड़ों देशवासियों में ये भरोसा भी पैदा करते हैं कि आप हर रोज चैन की नींद सोइये क्योंकि दुश्मन की गोली का मुकाबला करने के लिए हम यहां मौजूद हैं.

बेशक यह सही है कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में देशभक्ति की भावना जगाना और उसके लिए जज़्बा पैदा करना, बंदूक की नोक पर कोई भी सरकार नहीं करवा सकती. लेकिन इज़रायल और कोरिया जैसे देशों से हमें सबक लेना चाहिये जहां हर नागरिक के लिए कम से कम एक साल के लिए सेना की ट्रेनिंग लेना अनिवार्य है. वह इसलिये कि इससे न सिर्फ अपने देश के प्रति समर्पण करने की भावना जगती है, बल्कि उन सैनिकों के लिये गहरे सम्मान का भाव भी पैदा होता है, जो हर वक़्त देश के लिए कुर्बानी देने को तैयार रहते हैं.इसका नतीजा यह होता है कि वह पूरा देश हई अनुशासन की उस महीन डोरी में बंधा नजर आता है, जिसे देखा नहीं, सिर्फ महसूस किया जा सकता है.

हालांकि देश के स्कूल-कॉलेजों में NCC जॉइन करने का प्रावधान बरसों से है और इसे सेना को समझने की सबसे पहली पायदान माना जाता है लेकिन दुर्भाग्य ये है कि ये ऐच्छिक है, न कि अनिवार्य. साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे, तब सेना के कई अफसरों को यह उम्मीद जगी थी कि वे एनसीसी को हर छात्र-छात्रा के लिए अनिवार्य बनाने की दिशा में कोई ठोस पहल करेंगे. वह इसलिये भी कि खुद मोदी एनसीसी के 'सी' सर्टिफिकेट होल्डर रहे हैं,जि से आर्मी की आधी से भी अधिक ट्रेनिंग पूरा कर लिए जाने का तमगा माना जाता है. लिहाज़ा, ये थोड़ी हैरानी की बात है कि उन्होंने अब तक इस महत्वपूर्ण पहलू की तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया.

करगिल की जंग जीते हमें 22 बरस हो गए लेकिन इस दौरान जो नई पीढ़ी पैदा हुई, उसे स्कूली किताबों के जरिये इसकी जानकारी देने के कोई प्रयास किसी सरकार ने नहीं किये. उस जंग में शहीद हुए नौजवान कैप्टन विजयंत थापर,वि क्रम बत्रा या उन जैसे अनेकों जांबाज़ सैनिकों के बलिदान की शौर्य-गाथाओं को आखिर पाठ्यक्रम का हिस्सा क्यों नहीं बनाया जा सकता? इस पर विपक्षी दल भी भला किस मुंह से ऐतराज़ करेंगे? वह तो भला हो हमारे बॉलीवुड का जिसने करगिल की जंग पर आधारित फिल्में बनाकर हमारी इस नई पौध को रुबरु कराया. आज का नौजवान करगिल जंग के बारे में जितना भी जानता-समझता है, वह सारा ज्ञान उसे इन फिल्मों के जरिये ही मिला और उन्हें देखने के बाद उसकी देशभक्ति का जज़्बा भी दोगुना ही हुआ है.

करगिल जंग के एक सियाह पन्ने को भारतीय पत्रकारिता की लापरवाही से जोड़कर भी याद किया जाता है. तब जंग के मैदान में न्यूज़ चैनल के एक उत्साही पत्रकार ने रात के अंधेरे में कैमरे की लाइट जलाकर अपनी बात रिकॉर्ड की थी. ऊंची पहाड़ी पर बैठे दुश्मन सैनिकों को उस लाइट ने अपना टारगेट दिखा दिया और उन्होंने ताबड़तोड़ फायरिंग करके हमारे कुछ सैनिकों को शहीद कर दिया, हालांकि उन्होंने अपनी जान पर खेलकर उस पत्रकार को बचा लिया. उन अनाम शहीदों को भी सलाम.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)