"सारा पानी चूस रहे हो, नदी-समन्दर लूट रहे हो, गंगा-यमुना की छाती पर, कंकड़-पत्थर कूट रहे हो...उफ!! तुम्हारी ये खुदगर्जी, चलेगी कब तक ये मनमर्जी, जिस दिन डोलेगी ये धरती, सिर से निकलेगी सब मस्ती...महल-चौबारे बह जायेंगे, खाली रौखड़ रह जायेंगे, बूंद-बूंद को तरसोगे जब, बोल व्यापारी-तब क्या होगा?"... किसने सोचा था कि उत्तराखंड के महान गीतकार और कवि गिरीश चंद्र तिवारी (गिर्दा) की लिखी ये लाइनें आज हमारी आंखों के आगे सच होती दिख जाएंगीं. उत्तराखंड के जोशीमठ में जो हालात बने हैं वो इसी संकट की गवाही दे रहे हैं. 

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फिलहाल देशभर की मीडिया और तमाम लोगों की निगाहें उत्तराखंड के एक छोटे से कस्बे जोशीमठ पर टिकी हैं, क्योंकि यहां सैकड़ों लोग बेघर होने के कगार पर हैं और जिस गली-चौबारे में लोगों ने अपना बचपन बिताया उसे उजाड़ा जा रहा है. यूं तो ये पहली नजर में भू-धंसाव के चलते हुआ लगता है यानी प्राकृतिक आपदा इसे कहा जा सकता है, लेकिन जोशीमठ में रहने वाले लोग जानते हैं कि ये इंसानी हाथों का किया धरा है. 

मुख्यमंत्री को सता रही पर्यटन की चिंताहालांकि ऐसा सिर्फ उत्तराखंड के लोगों का ही कहना है, सरकार अब भी ये मानने के लिए तैयार नहीं है कि इस पूरी आपदा में असली दोष विकास के नाम पर धड़ल्ले से शुरू हुए बड़े प्रोजेक्ट्स का है. अपनी आंखों के सामने विकास के नाम पर हुए विनाश को देखकर भी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री का यही कहना है कि ज्यादा कुछ नहीं हुआ है और लोग अफवाहें फैला रहे हैं. पहले आप उत्तराखंड के सीएम पुष्कर सिंह धामी का ये हैरान कर देने वाला बयान पढ़िए जो आपदा से कराह रहे लोगों के जख्म पर नमक की तरह है. 

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एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उत्तराखंड के सीएम धामी कहते हैं- "ये कहना कि जोशीमठ डूब रहा है, जोशीमठ खत्म हो रहा है ये पूरी तरह से गलत है. कई बार कई जगह पर आपदा आई है और आती है उससे हम बाहर निकलते हैं. हम हर साल आपदा से कहीं न कहीं जूझते हैं, ये राज्य पर्यटन स्थल है लोग यहां चार धाम यात्रा करने आते हैं, आप लोग अगर ऐसी अफवाह उड़ाएंगे तो यहां कोई नहीं आएगा."

जोशीमठ के लोगों के पल-पल टूटते हौसले को बढ़ाने और उनकी आंखों में छलकते आंसुओं को पोंछने की बजाय राज्य के मुख्यमंत्री को इस वक्त पर्यटन की चिंता सता रही है. उनके बयान में लोगों का दर्द नहीं बल्कि सरकार का दर्द नजर आ रहा है. हालांकि ये सिर्फ इस सरकार का दर्द नहीं है, बल्कि ये दर्द पिछली तमाम सरकारों का है, जिन्होंने पर्यावरण और लोगों की चिंता को दरकिनार कर विकास के नाम पर जमकर कमाई की है. इसे अच्छी तरह समझने के लिए थोड़ा पीछे जाना होगा. 

भले ही पूरे देश के लिए जोशीमठ में आई आपदा नई है, लेकिन इसे लेकर आवाजें काफी सालों से उठती रही हैं, बस फर्क ये रहा कि पहाड़ों से उठती आवाजें वहीं दबकर रह गईं... दिल्ली तो दूर राजधानी देहरादून में बैठे नेताओं और अधिकारियों ने भी इन्हें अनसुना कर दिया. जोशीमठ में मौजूद कई पर्यावरण एक्टिविस्ट लगातार सरकार से ये मांग कर रहे थे कि शहर धंस रहा है और तत्काल इसका सर्वेक्षण कराया जाना चाहिए, लेकिन किसी के कान में जूं तक नहीं रेंगी. 

दरअसल जोशीमठ लैंडस्लाइट मैटिरियल पर बसा हुआ शहर है. वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लेशियर के साथ आए मलबे और उसमें हुई लैंड स्लाइड के हजारों साल बाद शहर की बसावट यहां हुई. इसीलिए इसे मोरेन (ग्लेशियर के साथ आया मलबा) पर बसा हुआ शहर भी कहते हैं. करीब 5 दशक पहले ही ये बात साबित हो चुकी थी. मशहूर भू-वैज्ञानिकों ने अपनी किताबों में इसका जिक्र किया. 

1976 में आई मिश्रा कमेटी की रिपोर्टअगर आप ये सोच रहे हैं कि मामला कुछ महीने पहले का है तो आप गलत हैं, ये मामला कई दशक पहले का है. साल 1970 के बाद से ही जोशीमठ में भू-धंसाव की घटनाएं सामने आने लगी थीं, कुछ सालों तक ये सिलसिला चला और आखिरकार 1976 में एक कमेटी बनाई गई. तब तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर महेश चंद्र मिश्रा की अध्यक्षता में भू-धंसाव को लेकर उत्तर प्रेदश सरकार की तरफ से ये कमेटी बनाई गई थी. इस कमेटी में भू-गर्भ वैज्ञानिक, भूमि विशेषज्ञ, आईटीबीपी अधिकारी और जन प्रतिनिधि शामिल थे.

पूरी जांच-पड़ताल के बाद मिश्रा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कड़ी चेतावनी देते हुए कहा कि जोशीमठ काफी सेंसिटिव है और ये मोरेन पर बसा हुआ है और लगातार नीचे की तरफ खिसक रहा है. कमेटी ने हिदायत दी कि जोशीमठ और उसके आसपास के इलाके में छेड़छाड़ खतरनाक साबित हो सकती है. रिपोर्ट में कहा गया था कि जोशीमठ में बड़े कंस्ट्रक्शन नहीं होने चाहिए और बड़ी परियोजनाओं पर रोक लगाई जानी चाहिए. यानी तब ये पूरी तरह साबित हो चुका था कि जोशीमठ एक ऐसे टाइम बम पर बैठा है, जिससे छेड़छाड़ करने पर बड़ा हादसा हो सकता है. 

रिपोर्ट को दरकिनार कर धड़ल्ले से हुई छेड़छाड़मिश्रा कमेटी की चौंकाने वाली रिपोर्ट पर सरकार (तब यूपी) ने बिल्कुल भी ध्यान नहीं दिया और इसे दरकिनार कर यहां धड़ल्ले से निर्माण कार्य किए गए. इसके बाद यहां बड़े होटल बनाए गए, कई तरह की परियोजनाओं की शुरुआत हुई, हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स चलाए गए और काफी ज्यादा छेड़छाड़ शुरू हो गई. 

जोशीमठ के पास चमोली जिले में ही स्थित रैणी गांव में आई आपदा ने 206 लोगों की जान ले ली थी. यहां चल रही एनटीपीसी की जलविद्युद परियोजना में काम कर रहे कई मजदूर मलबे के साथ बह गए थे और कई टनल के अंदर फंसे रह गए. इस आपदा के बाद ग्रामीणों ने इस परियोजना का जमकर विरोध किया था और आरोप लगे थे कि एनटीपीसी की टनल से गांव खतरे में हैं. तब लोगों की इस आवाज को दबा दिया गया. 

जोशीमठ में घरों से रिसते पानी का कौन जिम्मेदार?अब जोशीमठ में आई आपदा के बाद एक बार फिर एनटीपीसी के इस प्रोजेक्ट की चर्चा शुरू हुई, जब घरों के नीचे से पानी रिसने लगा. दरअसल 2009 में एनटीपीसी के टनल में एक बड़ी मशीन (टनल बोरिंग मशीन) फंस गई थी, जिसने जमीन के अंदर मौजूद पानी के स्त्रोत को डैमेज कर दिया. इसके बाद काफी ज्यादा मात्रा में पानी अंदर रिसता रहा. अब जोशीमठ आपदा को इस घटना से भी जोड़कर देखा जा रहा है. हालांकि सरकार पूरा जोर लगा रही है कि ऐसे प्रोजेक्ट्स को बेदाग रखा जाए, इसीलिए इसे प्राकृतिक आपदा का नाम देकर और कुछ तथाकथित पर्यावरणविदों को सामने लाकर इस थ्योरी को पूरी तरह से नकारने की जोरदार कोशिश जारी है. 

उत्तराखंड के कई गांव-कस्बों पर मंडरा रहा खतराभले ही उत्तराखंड के सीएम धामी पर्यटन का हवाला देते हुए ये दावा कर रहे हों कि राज्य में बाकी जगहों पर कोई खतरा नहीं है और ये तमाम तरह की अफवाहें फैलाई जा रही हैं, लेकिन जानकार इस सच्चाई को बेबाक तरीके से सामने रख रहे हैं. कॉलेज ऑफ फॉरेस्ट्री रानीचौरी में डिपार्टमेंट ऑफ बेसिक एंड सोशल साइंस के एचओडी डॉ एसपी सती ने उत्तराखंड के यू-ट्यूब चैनल बारामासा से बातचीत में बताया कि कैसे कई गावों और कस्बों के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. 

डॉ एसपी सती उस मिश्रा कमेटी का भी हिस्सा रहे हैं, जिसका जिक्र हमने ऊपर किया था. एसपी सती ने अपने इंटरव्यू में बताया, जोशीमठ ही नहीं उत्तराखंड के कई कस्बे टाइम बम पर बैठे हैं. जिनमें भटवाड़ी, पौड़ी, नैनीताल, थराली, धारचूला, मुनसियारी, गोपेश्वर और कर्णप्रयाग जैसे इलाके शामिल हैं. इनके अलावा कई गावों पर भी यही खतरा मंडरा रहा है. इसके सबूत हर जगह मिले हैं, जहां जमीन खिसकती नजर आ रही है. डॉ सती ने ये भी साफ तौर पर कहा कि उत्तराखंड में आ रही ऐसी आपदाओं में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स का रोल है. 

नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.