रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग को एक महीना बीत चुका है, लेकिन शुक्रवार को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने यूक्रेन के पड़ोसी देश पोलैंड पहुंचकर रुसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के दिलो-दिमाग में चली आ रही दुश्मनी की ज्वाला को और भड़का दिया है. इतिहास पर नजर डालें, तो पता लगता है कि पहले और दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत यूरोप की धरती से ही हुई थी. लिहाज़ा सवाल ये उठ रहा है कि पुतिन तीसरे विश्व युद्ध का आगाज़ भी क्या पूर्वी यूरोप में बसे पोलैंड पर हमला करने से करने वाले हैं? अंतराष्ट्रीय बिरादरी में ये सवाल इसलिये उठ रहा है कि पोलैंड न सिर्फ यूक्रेन का सबसे करीबी मुल्क है,बल्कि वह नाटो का भी सदस्य देश है और अमेरिका समेत तमाम नाटो देशों ने सीधे यूक्रेन में अपनी सेना भेजने की बजाय उसे पोलैंड में तैनात कर रखा है. युद्ध की इस विभीषिका में अपनी जिंदगी बचाने के लिए तरस रहे यूक्रेन के 20 लाख से भी ज्यादा लोगों ने पोलैंड में शरण ले रखी है. बाइडन ने उनमें से कुछ शरणार्थी कैम्पों का दौरा करके उन्हें मिलने वाली मानवीय मदद की हकीकत जानने की भी कोशिश तो की ही है, साथ ही अपनी सैन्य मदद और बढ़ाने का भी ऐलान किया है.


यूक्रेन की बॉर्डर से महज़ सौ किलोमीटर दूर पोलैंड के शहर में पहुंचे बाइडन के इस दौरे से रुस इस कदर बौखला उठा है कि ये कोई नहीं जानता कि अब पुतिन पहले केमिकल हथियार का इस्तेमाल करेंगे या फिर सीधे परमाणु हमले का फरमान जारी कर देंगे. सामरिक विशेषज्ञ मानते हैं कि अभी तक रुस के निशाने पर सिर्फ यूक्रेन ही था, लेकिन बाइडन के इस दौरे के बाद अब पोलैंड को भी वो अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हुए कोई भी विध्वनस्क कार्रवाई करने से पीछे नहीं हटेगा. इसलिये कि रुस पहले ही ये चेतावनी दे चुका है कि नाटो का जो भी देश यूक्रेन की मदद करेगा, वो भी इसका अंज़ाम भुगतेगा. उस लिहाज से देखें,तो पोलैंड अब रुस के राडार पर आ चुका है, लेकिन इस देश पर होने वाला रुस का पहला हमला ही समूची दुनिया के लिए बेहद खतरनाक स्थिति पैदा कर देगा. उसकी बड़ी वजह ये है कि पोलैंड पर हमला होते ही नाटो के तमाम देशों की सेनाओं को रुस को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए आगे आना ही पड़ेगा. रुस और नाटो देशों के बीच होने वाली आरपार की ये लड़ाई ही तीसरे विश्व युद्ध का बिगुल बजा देगी.


हालांकि कुछ सामरिक विशेषज्ञों के मुताबिक बाइडन ने पोलैंड जाने से पहले बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में जी-7,नाटो और यूरोपियन देशों के नुमाइंदों के साथ जो मीटिंग की है,वो पुतिन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने की अमेरिका की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है. इसलिये कि अमेरिका भी तीसरा विश्व युद्ध छेड़ने के पक्ष में नहीं है लेकिन बाइडन इस पूरी कवायद के जरिये पुतिन को डराने वाले अंदाज़ में ये संदेश दे रहे हैं कि पश्चिमी देशों की ये एकजुट ताकत रूस को तबाह करने के लिए काफी है,भले ही उसे चीन का साथ मिल जाये. वैसे अन्तराष्ट्रीय स्तर पर कई लड़ाइयां देख चुके सामरिक जानकार मानते हैं कि रुस, यूक्रेन पर किये गए केमिकल हमले की बात से भले ही इनकार कर रहा हो लेकिन वहां से आने वाली जमीनी रिपोर्ट बताती हैं कि दो दिन पहले उसने यूक्रेन के जिस थिएटर पर मिसाइल दागी थी,उसमें फास्फोरस का इस्तेमाल किया गया था,जिसे युद्ध की भाषा में केमिकल वार कहा जाता है.उस हमले में सैकड़ों आम नागरिकों के मारे जाने की खबर आई है.


अमेरिका समेत नाटो देशों के और ज्यादा भड़कने की एक बड़ी वजह ये भी है कि इस ताजे हमले के बाद उन्हें यकीन हो गया है कि रुस युद्ध के लिए बनाए गए वैश्विक कानून की खुलेआम धज्जियां उड़ा रहा है.तकरीबन 45 साल पहले यानी साल 1977 में स्विट्ज़लेंड की राजधानी जिनीवा में देश के सभी ताकतवर मुल्कों के बीच एक समझौता हुआ था, जिसे बाद में अन्तराष्ट्रीय कानून की शक्ल दे दी गई थी.उसके मुताबिक युद्ध के हालात में कोई भी देश रिहायशी इलाकों पर किये जाने वाले हमले में व्हाइट फास्फोरस का इस्तेमाल नहीं करेगा और अगर वे ऐसा करता है, तो इसे केमिकल वार माना जायेगा. तब रुस ने भी इस समझौते पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन अब वो ऐसे किसी भी खौफ से बेपरवाह होकर इस तरह के रासायनिक हथियारों का बेहिचक इस्तेमाल करने से बाज़ नहीं आ रहा है. यही वजह है कि अब नाटो देश इसका जवाब देने के लिए रूस के खिलाफ बायो-केमिकल हथियारों का इस्तेमाल करने पर आपसी सहमति बनाने में जुटे हैं. बताया जाता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन की ब्रसेल्स कॉन्फ्रेंस के दौरान भी इस मसले पर चर्चा हुई है लेकिन अमेरिका समेत नाटो देशों ने इस पर फिलहाल अपने पत्ते नहीं खोले हैं.


यूरोपीय यूनियन के देशों की सबसे बड़ी मजबूरी का इस वक़्त रुस फायदा उठा रहा है, क्योंकि वो जानता है कि उसके बगैर यूरोप के लिए अपना गुजारा करना भी बहुत भारी पड़ जायेगा.यूरोपीय यूनियन ने अब तक उसे रूस से मिलने वाले जीवाश्म ईंधन पर पाबंदी नहीं लगाई है जिससे पता लगता है कि सदस्य देशों के उद्योग रूस के तेल, प्राकृतिक गैस और कोयले के भंडार पर किस हद तक निर्भर हैं. ईयू के सम्मेलन में बेल्जियम के पीएम अलेक्जेंडर दे क्रू ने कहा कि हमारी तुलना में रूसी पक्ष पर प्रतिबंधों का हमेशा बड़ा असर होना चाहिए. ऑस्ट्रिया और नीदरलैंड्स जैसे देशों की भी ऐसी ही राय थी लेकिन ये देश उन देशों के खिलाफ जाते दिखे, जो रूस की सीमा के नजदीक स्थित हैं लेकिन उस पर अब और कड़े प्रतिबंधों की मांग कर रहे हैं. गौर करने वाली बात ये है कि यूरोपीय यूनियन के देश बिजली व अन्य उद्योगों के लिए 90 फीसदी प्राकृतिक गैस का आयात करते हैं जिनमें रूस का हिस्सा 40 फीसदी है.लिहाज़ा,उनके लिए रुस से सीधे दुश्मनी मोल लेने का मतलब है,यूरोप के बड़े हिस्से का अंधेरे में डूब जाना. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि बाइडन का ये पोलैंड दौरा इस जंग की ज्वाला को और भड़कायेगा या रुस को पीछे हटने पर मजबूर करेगा?



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