आप क्या खाएंगे, क्या पहनेंगे और कहां नहीं जाएंगे? ये तीन सवाल अगर आपकी निजी जिंदगी में आपके मां-बाप के अलावा कोई और पूछता है और वो ऐसा करने से आपको रोकता है, तो फिर समझ लीजिए कि आप अब तक जिस आजाद देश की हवा में सांस ले रहे हैं, उसका मिज़ाज़ बदल चुका है. अब वो एक ऐसा नया इंडिया बन रहा है, जो जुबान से लेकर पैरों तक धार्मिक कट्टरता की बेड़ियों में आपको जकड़ना चाहता है. तय आपको ही करना होगा कि आज़ादी चाहिए या मज़हबी बेड़ियों में जकड़ी हुई जिंदगी जीने की भीख! अगर आपमें हिम्मत होगी, तो आप विरोध की आवाज़ उठाएंगे और अगर ऐसा करते हैं तो फिर आपको अपना खून बहाने के लिए भी तैयार रहना होगा, बगैर ये सोचे कि आगे और कितना सितम झेलना होगा.

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देश ही नहीं बल्कि समूचे दक्षिण एशिया की सबसे नामी व प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी माने जाने वाले जवाहरलाल नेहरु विश्विद्यालय यानी जेएनयू में रविवार की शाम नॉनवेज खाने को लेकर नफ़रत से भरी सियासत का जो नंगा नाच खेला गया, उसे देख-पढ़ कर सिर्फ मोदी सरकार के कुछ मंत्रियों, आला नौकरशाहों और विदेशी नेताओं समेत नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अभिजीत बनर्जी ने भी अपना माथा पीट लिया होगा कि क्या ये वही जेएनयू है, जहां से पढ़कर आज हमने ये मुकाम हासिल किया है.

दरअसल, रविवार को राम नवमी का पर्व था. इस दिन जो खबरें आईं हैं, उसके मुताबिक इस मौके पर विश्विविद्यालय के सबसे चर्चित 'कावेरी होस्टल' की कैंटीन में छात्रों के एक समूह ने वहां के खानसामाओं को सुबह ही धमका दिया कि आज यहां कोई नानवेज खाना नहीं बनेगा. दलील दी गई कि आज कैंटीन के बाहर ही रामनवमी की पूजा होगी. कैंटीन चलाने वाला बेचारा भी क्या करता, सो उसने हर रविवार की तरह ही नॉनवेज की सप्लाई देने आए शख्स को बैरंग ही लौटा दिया. लेकिन सप्लाई देने आया शख्स इसलिये हैरान रह गया कि बाकी सभी होस्टल के कैंटीन संचालकों ने तो इसे लेने से मना नहीं किया, फिर 'कावेरी' में ही ऐसा क्या बखेड़ा हो गया? उसे सुबह तो इसका जवाब नहीं मिला था लेकिन रविवार की देर शाम न्यूज़ चैनलों पर आई खबरों में मारपीट करते और ज़ख्मी छात्राओं के सिरों से गिरते लहू वाली तस्वीरें देखकर उसे अपने सवाल का जवाब जरुर मिल गया होगा. लेकिन गौर करने वाली बात ये है कि वहां अधिसंख्य हिन्दू छात्र-छात्राएं ही हैं, जो रविवार को नॉनवेज भोजन का स्वाद चखते हैं. इसलिए मसला हिन्दू-मुस्लिम नहीं बल्कि वेज-नॉनवेज का है, जो और भी ज्यादा गम्भीर इसलिए है कि कोई भी किसी के खाने की आज़ादी पर शर्तें कैसे थोप सकता है कि वो क्या खाएगा और क्या नहीं.

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खैर, शाम होते ही पूजा शुरू हो गई लेकिन हमेशा की तरह हर रविवार को नॉनवेज भोजन का स्वाद चखने वाले छात्रों को जब वह नहीं मिला, तो सवालों से शुरू हुई दो गुटों के बीच इस लड़ाई ने ऐसा हिंसक रूप धारण कर लिया कि कई छात्र-छात्राएं जख्मी हो गए. कुछ छात्राओं के सिर से खून बहने वाली तस्वीरें ट्वीटर पर पोस्ट करते हुए कई न्यूज़ चैनलों में रह चुके वरिष्ठ पत्रकार विनोद कापड़ी ने उन्हें सीधे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को टैग करते हुए ये तक लिख डाला कि"लाज नहीं आती ऐसी तस्वीरों पर? @narendramodi नफ़रत, ज़हर, खून से भर दिया है देश को!! #JNU"

उनके गुस्से को कोई एक गुट तो अवश्य ही दुर्भावनापूर्ण और अपने खिलाफ ही बताएगा लेकिन देश के संविधान से मिले अधिकार और लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की आत्मा को जिंदा रखने के लिए हर पत्रकार का पहला धर्म ये बनता है कि वो शिक्षा के सबसे बड़े मंदिर में होने वाली ऐसी किसी भी गुंडई के ख़िलाफ़ खुलकर लिखे, दिखाए और बोले. ताकि देश की युवा पीढ़ी को भी ये अहसास हो कि मीडिया आज भी निष्पक्ष है और वो किसी शहंशाह के दरबार में बिछे लाल कालीन पर नंगे पैरों चलने का मोहताज नहीं है.

इस पूरे मामले को शुरू करने वाला, उसे धार्मिकता का चोला ओढ़कर दूसरे की निजी आज़ादी छीनने वाला और उसे हिंसा का रूप देने के लिए छात्रों का कौन-सा गुट कसूरवार है. इसका फैसला आप या हम नहीं बल्कि कानून ही करेगा. इसलिए कोई भी समझदार इंसान इस पचड़े में नही पड़ेगा कि इसकी शुरुआत लेफ्ट विंग के गुट से हुई या फिर राइट विंग के गुट ने ऐसा माहौल पैदा किया. लेकिन जेएनयू से निकले हजारों छात्रों ने जब न्यूज़ चैनलों पर ये तस्वीरें देखी होंगी, तो एक बारगी तो ये जरूर सोचा होगा कि हमारा इतना बड़ा संस्थान आज किस पतन के रास्ते की तरफ जा रहा है.

लेकिन यहां सवाल ये नहीं है कि जेएनयू में इस हिंसक गुंडई की शुरुआत किसने की. बड़ा सवाल ये है कि ऐसे हालात पैदा करने की शह उन्हें किसने दी और वे कौन हैं, जो पर्दे के पीछे से अपने नापाक सियासी मंसूबों को अंजाम देने के लिए एक पूरी ऐसी पीढ़ी के भीतर नफ़रत का जहर घोल रहे हैं, जो कल इस देश की ब्यूरोक्रेसी से लेकर शिक्षा, विज्ञान और न जाने कितने क्षेत्रों को संभालने के क़ाबिल बनने वाली है.

सच तो ये है कि जेएनयू देश का इकलौता ऐसा संस्थान है, जो 1969 में अपने वजूद में आने से लेकर अब तक देश को हर फील्ड में लगातार प्रतिभाओं की ऐसी सौगात देता आया है, जिनका फलसफा अपने धर्म-मजहब से पहले इंसानियत को मानना और इंसाफ करना रहा है. आज भी देश में सैकड़ों ऐसे आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अफसर हैं, जो इस पर फख्र करते हैं कि वे जेएनयू के छात्र रहे हैं. आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक में अपनी सेवाएं दे चुके अर्थशास्त्री आज तक जेएनयू को एक ऐसा संस्थान मानते आए हैं, जहां न सियासत है, न नफ़रत है और न ही किसी दूसरे को अपने से नीचा साबित करने की आदत है.

जेनयू में पढ़ने वाले छात्र इस तथ्य से तो वाकिफ़ होंगे ही कि इस देश का खज़ाना संभालने वाली वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और रूस-यूक्रेन के बीच चल रही इस जंग में पीएम मोदी को भारत की विदेश नीति समझाने वाले विदेश मंत्री एस. जयशंकर भी इसी जेनयू से निकलकर उस मुकाम तक पहुंचे हैं. बेशक अब वे पूर्व मंत्री हो चुकी हैं लेकिन बीजेपी सांसद मेनका गांधी ने भी यहीं से जर्मन भाषा में अपनी डिग्री हासिल की है. अगर विदेशी नेताओं की बात करें, तो नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई ने भी यहीं से पीएचडी की है. उन्होंने अपनी बेटी को भी यहां से पढ़ाया है. लीबिया के पूर्व प्रधानमंत्री अली जैदान भी यहां के पढ़े हुए हैं. अफगानिस्तान की तत्कालीन सरकार में रहे मिनिस्टर ऑफ इकोनॉमी अब्दुल सैतार मुराद भी यहां पढ़ाई कर चुके हैं. एतिहाद एयरवेज के चेयरमैन अहमद बिन सैफ अल नहयान भी यहां पढ़ चुके हैं. तो फिर ऐसा क्या हो गया कि पिछले 53 सालों से जो संस्थान अपना नाम रोशन करता आया है, उसके मुंह पर कालिख पोतने में 53 मिनट लगाने की देर करने में भी शर्म नहीं आई?

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)