देश के राजनीतिक इतिहास में यह पहला ऐसा मौका है जब दक्षिण भारत में कमल खिलाने वाले अपने ही एक मुख्यमंत्री को भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व सीएम की कुर्सी से हटने के लिए मजबूर कर दिया, ताकि किसी और को बिठाया जा सके.


ऐसा हुआ और वह भी ठीक दो साल बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री डॉ. बूकानाकेरे सिद्धलिंगप्पा येदियुरप्पा के लिए इस हुक्म को मानने के सिवा कोई और चारा ही नहीं बचा. कर्नाटक के सबसे प्रभावशाली लिंगायत समुदाय से संबंध रखने वाले येदियुरप्पा को सिर्फ बीजेपी ही नहीं बल्कि विपक्षी दल भी राजनीति की जोड़तोड़ का ऐसा माहिर खिलाड़ी मानते हैं जिन्होंने सियासी मौसम को भांपते हुए और हवा के रुख को अपनी तरफ लाने का जतन करते हुए कर्नाटक के सिंहासन पर बैठने के ख़्वाब को एक नहीं बल्कि चार बार सच में बदला है.


येदियुरप्पा को हटाने की वजह उनकी उम्र भी हो सकती है


दक्षिण भारत में 13 साल पहले भगवा पताका लहराने की शुरुआत करने वाले येदियुरप्पा बेशक अब अपनी उम्र के 79वें साल में हैं और हो सकता है कि उन्हें हटाने की बड़ी वजह उनकी बढ़ती उम्र ही हो. वहीं बड़ा सवाल यही है कि क्या बीजेपी के पास वहां इतना कद्दावर नेता कोई है जो सियासी तिकड़मों में इतना माहिर हो कि करीब पौने दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में बीजेपी के इस दक्षिणी किले को बचा सके?


सियासी गलियारों में पिछले सात साल से ये माना जाता है कि मोदी-शाह की जोड़ी कोई भी फैसला जल्दबाजी में नहीं लेती है और लेने से पहले पूरी तस्सली कर लेती है कि इसमें नुकसान होने की रत्ती भर भी गुंजाइश न हो. लिहाजा, ये मानकर चलना चाहिये कि पार्टी नेतृत्व जिस किसी भी नेता को अगला सीएम बनाएगा, वह इनकी कसौटी पर जांचा, परखा ही होगा लेकिन वह कितना खरा साबित होगा ये तो आने वाले चुनावी-नतीजे ही बताएंगे.


दरअसल, कर्नाटक वो राज्य है जहां से बीजेपी ने दक्षिण भारत की राजनीति में प्रवेश किया था. यहां उसकी शुरुआत साल 2004 में हुई थी. राज्य में सरकार बनाने, दूसरी सरकारों को गिराने और अन्य राजनीतिक जोड़-तोड़ की रणनीति और खेल यहां येदियुरप्पा ही बनाते रहे हैं. इसलिये कह सकते हैं कि दक्षिण भारत की राजनीति में बीजेपी की जड़ों को मजबूत करने में उनका योगदान सबसे अधिक रहा है. हालांकि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मोदी सरकार में भी केंद्रीय मंत्री रहे दिवंगत अनंत कुमार भी कर्नाटक बीजेपी के सर्वाधिक लोकप्रिय नेताओं में अव्वल नंबर पर रहे हैं लेकिन वे उस मुकाम तक शायद इसलिए नहीं पहुंच सके क्योंकि उनका सारा फोकस बैंगलोर से सांसद निर्वाचित होने और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी छाप छोड़ने पर ही रहा.


प्रहलाद जोशी मुख्यमंत्री बनने की रेस में शामिल हैं


अनंत कुमार के चले जाने से पार्टी में जो रिक्तता महसूस हो रही थी उसे काफी हद तक प्रहलाद जोशी ने भरने की कोशिश की है, जो फिलहाल केंद्रीय संसदीय मामलों के मंत्री हैं. ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं कि वे भी मुख्यमंत्री बनने की रेस में शामिल हैं लेकिन बताते हैं कि पार्टी आलाकमान ऐसी कोई रिस्क नहीं लेना चाहेगा. इसलिये ज्यादा संभावना यही है कि किसी विधायक को ही वह सीएम की कुर्सी पर बिठाएगा. चूंकि लिंगायत समुदाय को भी नाराज नहीं करना है लिहाजा येदियुरप्पा की कुछ शर्तों को मानना भी इस वक़्त पार्टी की मजबूरी है,सो संकेत यहीं हैं कि वह इसे पूरा करने से पीछे नहीं हटेगी.


वैसे यह याद दिलाना भी ज़रुरी है कि साल 2004 में जब कर्नाटक विधानसभा त्रिशंकु हुई थी तो उस वक़्त कई तरह के प्रयोग हुए थे. कांग्रेस और जेडीएस की सरकार बनी थी, फिर विफल हुई, इसके बाद फिर से जेडीएस और बीजेपी की सरकार बनी. कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बनाए गए लेकिन जब बीजेपी को सत्ता सौंपने की बारी आई तो उन्होंने मना कर दिया और इस्तीफ़ा दे दिया. राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था.


लेकिन सारा राजनीतिक खेल असल में 2008 से शुरू होता है. इस साल हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बहुमत से महज तीन सीटें कम मिलीं और येदियुरप्पा ने सरकार बनाने का दावा किया. राज्यपाल ने उनका यह दावा मंजूर कर लिया और अल्पमत की सरकार बनी और उनका खेल तभी शुरू हो गया था. सियासत में दुश्मन समझे जाने वाले नेता भी येदियुरप्पा की इस एक बात के कायल हैं कि उन्होंने अपनी सरकार बचाने के लिये जो तोड़ निकाला वह राजनीति में कम ही हो पाता है.


कांग्रेस और जेडीएस के कुल सात विधायकों को येदियुरप्पा ने तोड़ा था


दरअसल, दल-बदल क़ानून 1985 में लागू हुआ था लेकिन साल 2008 में येदियुरप्पा ने इस क़ानून का भी तोड़ निकाल लिया और चोर दरवाजे से दूसरे पार्टी के विधायकों को अपने पाले में लाने के लिए पहले इस्तीफ़ा दिलवाया और फिर बाद के उपचुनाव में खड़ा कर उन्हें जीत दिलवा दी. उस वक़्त येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जेडीएस के कुल सात विधायकों को तोड़ा था, जिसमें से पांच उपचुनाव जीते थे. इस तरह येदियुरप्पा की सरकार बच गई और सदन में बहुमत हासिल करने में वे सफल रहे. येदियुरप्पा के इसी फार्मूले को बीजेपी ने पिछले साल मध्य प्रदेश में दोहराया, जहां बहुमत वाली कमलनाथ सरकार गिर गई और शिवराज सिंह चौहान की फिर से मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी हुई.


ऐसा नहीं कह सकते कि सीएम रहते हुए येदियुरप्पा का दामन हमेशा पाक-साफ ही रहा हो क्योंकि उनके ही कार्यकाल में देश का सबसे चर्चित खनन घोटाला हुआ. उसकी गहन जांच हुई, बड़े आरोप लगे और कर्नाटक के मुख्यमंत्री के रूप में येदियुरप्पा को लोकायुक्त ने संगीन आरोपों में लिप्त पाया. उन्हें इस्तीफ़ा तक देना पड़ा. इस्तीफ़ा तो बीजेपी ने लिया लेकिन इससे येदियुरप्पा बहुत नाराज़ हुए. नाराज़गी इतनी बढ़ गई कि बाद में उन्होंने पार्टी छोड़ दी. उन्हें जेल तक जाना पड़ा लेकिन केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद उनकी घर-वापसी भी करवाई गई और कर्नाटक की कमान भी सौंपी गई.


अब बड़ा सवाल ये है कि बीजेपी के पास प्रदेश में ऐसा कौन-सा नेता है,जो येदियुरप्पा की बराबरी कर सके?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)