उत्तरप्रदेश की सियासत में हाशिये पर आ चुकी कांग्रेस में फिर से नई जान फूंकने के लिए प्रियंका गांधी पूरी ताकत लगा रही हैं. सरकार के खिलाफ आवाज उठाने और लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए एक विपक्षी दल को जो तरीका अपनाना चाहिए, वो आज उन्होंने लखनऊ में गांधी प्रतिमा पर मौन धरना देकर कर दिखाया. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि अगले कुछ महीने में होने वाले विधानसभा चुनावों में वे अपनी पार्टी को उस हैसियत में ला सकेंगी कि वह मुख्य विपक्षी दल कहलाने लायक भी बन सके?

इसकी वजह ये है कि पिछले दो दशक में वहां कांग्रेस का ढांचा पूरी तरह से चरमरा चुका है. राजधानी लखनऊ या कुछ और बड़े शहरों में तो कांग्रेस का झंडा थामने वाले कार्यकर्ता दिख जाएंगे लेकिन छोटे शहरों व कस्बों में हालत इतनी खराब है कि शायद ही कोई आगे होकर ये बतायेगा कि वो कांग्रेस से जुड़ा हुआ है.

प्रियंका गांधी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कांग्रेस का मुकाबला सत्ता में बैठी बीजेपी से ही सिर्फ नहीं है बल्कि उस समाजवादी पार्टी व बहुजन समाज पार्टी से भी है जिसने सत्ता में आने के बाद अपने समर्थकों के इतने काम तो किये ही हैं कि वे अब बूथ स्तर तक अपनी पार्टी के लिए खुलकर डटे नजर आते हैं. हालांकि तीन दशक पहले तक यूपी में कांग्रेस की भी उतनी ही मजबूत स्थिति थी, जो आज बीजेपी की है.

लेकिन अब हालात बहुत बदल चुके हैं क्योंकि कांग्रेस के पास बूथ स्तर पर निष्ठावान कार्यकर्ताओं का अकाल है. कुछ साल पहले तक जो हुआ भी करते थे, उनमें से बहुतेरे पाला बदलकर दूसरी पार्टियों का दामन थाम चुके हैं. इसमें कोई शक नहीं कि यूपी के हरेक चुनाव में धनबल व बाहुबल का ही प्रभाव रहता है लेकिन जमीनी स्तर पर समर्पित कार्यकर्ताओं की टीम के बगैर कोई चुनाव नहीं जीता जा सकता.

साल 2017 में बीजेपी के सत्ता में आने की एक बड़ी वजह उसका यह प्रयोग भी था- 'एक बूथ,पांच यूथ.' दरअसल, बीजेपी ने चुनाव जीतने के ट्रेंड को काफी हद तक बदल दिया है क्योंकि उसके पास संघ के समर्पित लोगों की ऐसी फौज़ है जो मतदान वाले दिन बगैर कोई ढिंढोरा पीटे साइलेंट होकर सारा फोकस अपने पक्ष में वोट डलवाने की तरफ ही रखते हैं. लिहाज़ा कांग्रेस अगर यह मानकर चल रही है कि उसकी मुख्य लड़ाई बीजेपी से है,तो तब उसे बीजेपी की रणनीति वाले रास्ते पर ही चलना होगा. इसलिये सवाल उठता है कि प्रियंका गांधी महज छह महीने के भीतर बूथ लेवल तक इतनी बड़ी फौज़ तैयार कर पायेंगी?

एक जमाने में कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक समझा जाने वाला मुसलमान यूपी में तो अब उससे बहुत दूर जा चुका है. अखिलेश यादव की सपा उसकी पहली पसंद बनी हुई है और अगर दलितों व पिछड़ों की बात करें तो कमोबेश वो अभी तक मायावती की बसपा को ही अपना खैरख्वाह समझते आए हैं. लेकिन 2017 में हुए चुनावों में बीजेपी ने छोटे दलों के साथ मिलकर ऐसी रणनीति बनाई कि अब वो भी बसपा से काफी हद तक छिटक चुका है.

लिहाजा,प्रियंका के लिए यह भी एक बड़ी चुनौती होगी कि वे इन वर्गों के वोटरों में किस तरह से कांग्रेस के लिए सहानुभूति पैदा कर पाएंगी. कुल मिलाकर कांग्रेस के लिए यूपी की जंग जीतना फिलहाल तो दिन में तारे देखने जैसा ही कह सकते हैं लेकिन अगर प्रियंका की मेहनत से पार्टी को सम्मानजनक सीटें भी मिल जायें, तो कांग्रेस के लिए ये एक बड़ी जीत के समान ही होगी.

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)