मज़हब के नाम पर आतंक फैलाने वालों को जवाब देने के लिए मशहूर शायर राहत इंदौरी ने कभी ये लिखा था, जिसे वे अक्सर मुशायरों भी सुनाया करते थे-- "फिर एक बच्चे ने लाशों के ढेर पर चढ़कर ये कह दिया कि अभी ख़ानदान बाक़ी है." लेकिन दो वक्त की रोटी कमाने की जुगाड़ में बिहार से कश्मीर घाटी गए उन तीन बेगुनाह लोगों का कोई भी बच्चा शायर की इस बात को दोहराने की हिम्मत शायद कभी नहीं जुटा पायेगा, जिन्हें आतंकियों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया है. दरअसल, कश्मीर घाटी में प्रवासी मजदूरों को जिस दहशत के दम पर वहां से पलायन करने के लिए मजबूर किया गया है, वो आतंकवाद की एक नई इबारत लिखने की शुरुआत है. इसका मकसद सिर्फ इस्लामी जिहाद से ही नहीं है, बल्कि अब इसका दायरा इतना फैलाया जा रहा है, जहां एक इंसान की जान लेने के साथ ही पूरे देश के सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त करके और समूची अर्थव्यवस्था को उथल-पुथल करके रख देने को आतंकवादियों ने एक नया हथियार बनाने का एक प्रयोग किया है.


जाहिर है कि आतंक फैलाने का ये नया प्रयोग करने की रणनीति सिर्फ किसी एक आतंकी संगठन के दिमाग की उपज नहीं है. ये पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के आकाओं की एक नई खुराफ़ात है कि सिर्फ चंद लोगों को मारकर भारत के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को कितनी करारी चोट पहुंचाई जा सकती है. पाकिस्तान के पाले-पोसे और उसके कैम्पों से ट्रेनिंग लेकर निकले आतंकवादियों के मंसूबों के जानकार विशेषज्ञ मानते हैं कि तबाही के इस नए प्रयोग को कुछ हद तक इसलिये भी कारगर माना जा सकता है कि कम लोगों की जान लेकर भी बहुत बड़े स्तर पर दहशत फैलाने और गैर कश्मीरियों को घाटी छोड़ने पर मजबूर करने के अपने इरादे में वे कामयाब हुए हैं.


तीन बेकसूर लोगों को मारने के बाद महज़ दो दिन में ही पूरी कश्मीर घाटी  बिहार व उत्तर प्रदेश के कामगारों से अब खाली हो चुकी है. आतंकी चाहते भी यही हैं कि घाटी में न तो कोई गैर कश्मीरी रहे और न ही कोई हिंदू. शायद इसीलिए खुफिया व सुरक्षा एजेंसियों को आशंका है कि 'टारगेट किलिंग' जैसी वारदातें अभी और भी हो सकती हैं, जिसमें वहां रह रहे कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया जा सकता है. हालांकि बताते हैं कि वहां डर का आलम ये है कि घाटी के मुकाबले में आतंकी वारदातों से सुरक्षित समझे जाने वाले जम्मू और कटरा से भी इन प्रवासी मजदूरों व छोटा रोजगार करने वाले लोगों ने बड़ी संख्या में वापस अपने घरों का रुख कर लिया है. उन्हें रोकने और समुचित सुरक्षा उपलब्ध कराने की स्थानीय प्रशासन की सारी कोशिशें भी बेकार ही साबित हुईं हैं.


पर, ये माहौल एक बुनियादी व बड़ा सवाल खड़ा करता है कि प्रवासी मजदूर अपनी जान बचाकर कश्मीर से तो बाहर निकल आये लेकिन अब वे जाएंगे कहाँ? अगर अपने प्रदेश में ही उन्हें काम-धंधा मिल गया होता,तो फिर सैंकड़ों किलोमीटर दूर आतंकियों की शरणगाह कहलाने वाले कश्मीर जाने की जरुरत ही आख़िर क्यों पड़ती? वहां से निकलकर अपनी जान तो किसी तरह से बचा ली लेकिन अब उनके परिवारों का पेट भरने का इंतज़ाम आखिर कौन-सी सरकार करेगी. जाहिर है कि उनमें से ज्यादातर लोग अपने घरों को नहीं लौटेंगे बल्कि कामकाज व बेहतर मजदूरी मिलने की तलाश में वे अन्य प्रदेशों को अपना नया बसेरा बनाने के लिए मजबूर होंगे. हालांकि इसकी एक और बड़ी व सामाजिक वजह ये भी है कि बिहार में रोजगार व मजदूरी, दोनों ही कम है, जिसके कारण सिर्फ गरीब कामगार ही नहीं बल्कि शिक्षित प्रतिभाओं को भी वहां से पलायन के लिए मजबूर होना पड़ता है.


टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज की जर्नल ऑफ माइग्रेशन अफेयर्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 1951 से 1961 तक बिहार के करीब चार फीसदी लोगों ने दूसरे राज्यों में पलायन किया. जबकि 2001 से 2011 के बीच 93 लाख लोग बिहार छोड़कर दूसरे राज्यों में गए जो उस वक़्त बिहार की आबादी का करीब 9 फीसदी था. देश में पलायन करने वाली कुल आबादी का 13 फीसदी हिस्सा अकेले बिहार से है,जो उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर है.साल 2011 में हुई  जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि बिहार से रोजगार और जीवनयापन के लिए पलायन करने का प्रचलन पूरे देश में सबसे ज्यादा है. जहां देश में पलायन करने वाले पुरुषों में औसतन 24 फीसदी लोग नौकरी या रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं,तो वहीं बिहार से पलायन करने वाले 55 फीसदी लोग रोजगार की तलाश में ही अन्य राज्यों में जाते हैं.


बिहार की सत्ता में रही किसी भी पार्टी ने कभी ये नहीं माना कि पलायन एक गंभीर मुद्दा है,जिसे रोकने का कोई उपाय करना चाहिए.मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तर्क देते हैं कि अगर कोई कमाने के लिए बाहर जाना चाहता है,तो उसे रोका नहीं जा सकता.बेशक कोई सरकार रोक भी नहीं सकती लेकिन सवाल ये है कि आतंकवाद की मार झेलकर या उससे बचकर जिसे घर वापसी करनी पड़ी हो,उसके लिए किसी सरकार ने आज तक कोई योजना क्यों नहीं बनाई है?


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