मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव पर लिखी मेरी किताब चुनाव है बदलाव का, में मैंने बीजेपी की हार के कारणों का जब ब्यौरा लिखा तो उसमें एक कारण था कि बहुत ज्यादा एजेंसियों पर आधारित होकर बीजेपी का प्रचार जिससे आम कार्यकर्ता चकाचौंध होकर देखता ही रहा और कुछ दिनों में घर जा बैठा. बहुत ज्यादा इवेंट पर आधारित चमक दमक वाले कार्यक्रम जिनका मीडिया में प्रचार तो हुआ मगर वो कार्यक्र्रम संदेश कुछ भी देने में विफल रहे.


आप यदि सोच रहे हों कि अचानक ये पुरानी राग क्यों गाने लगा तो बता दूं कि पिछले दिनों मध्यप्रदेश के लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का स्वास्थ्य आग्रह कवर करने गया तो यहीं लाइनें देर तक याद आतीं रहीं. भोपाल के बीचोंबीच राजभवन के सामने बने मिंटो हाल जिसे भोपाल की बेगम सुलतानजहां ने 1909 में अंग्रेजी शासकों के अतिथि गृह के तौर पर बनाया था और जिसमें बाद में मध्यप्रदेश की विधानसभा लगी, वहां पर महात्मा गांधी की प्रतिमा के बगल में साफ सुथरा उंचा तंबू ताना गया था. जिसमें धवल सफेद मंच पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सत्य का आग्रह या सत्याग्रह करने जैसा स्वास्थ्य आग्रह का कार्यक्रम रखा वो भी पूरे 24 घंटे का.


मुख्यमंत्री इस जगह पर बने अस्थाई टेंट तंबू में 24 घंटे रहेंगे और वो भी अपने सारे कामकाज निपटाते हुये, तो निश्चित ही ये हम पत्रकारों के लिये चौंकाने वाली बात थी. आखिर इस तमाशे सरीखे आग्रह की जरूरत भला क्यों पड़ गयी. प्रदेश के मुख्यमंत्री इतने जनप्रिय हैं कि उनके आग्रह और मनुकहार को टालना सचमुच में मुश्किल काम होता है. ये बात हम सारे पत्रकार जो उनको लंबे समय से कवर कर रहे हैं जानते हैं. फिर मास्क पहनकर लोगों को अपने स्वास्थ्य के प्रति आग्रह या कोरोना से बचाव की बात तो वो कई दिनों से लगातार जनता से कई दिनों से प्रचार के अलग अलग माध्यमों से कर ही रहे हैं.


कुछ दिनों पहले उन्होंने भोपाल के भवानी चौक पर गोले में खडे होकर जब हूटर बजा तो उसमें शामिल हुये फिर वहीं बाजार में दुकानों के सामने बैठकर ग्राहकों की जगह तय करने के लिये गोले बनाये. उसी दिन वो शाम को इंदौर गये और 56 दुकानों के सामने भी ऐसे ही गोले बनाकर आये. साथ ही जनता से आग्रह किया कि मास्क लगायें और अपना स्वास्थ्य बचायें. वो यही नहीं रूके वो इंदौर से उज्जैन भी गये और भगवान महाकाल के दरबार में सपत्नी प्रार्थना की कि इस महामारी से हमारे प्रदेश को बचाओ. उज्जैन में भी उन्होंने जनता से मास्क का आग्रह किया. महाकाल मंदिर में उन्होंने जो दंडवत प्रणाम किया वो फोटो अगले दिन सारे अखबारो में प्रमुखता से छपी.


स्वास्थ्य आग्रह के इस कार्यक्रम के पहले भी मुख्यमंत्री जी ने भोपाल के आनंद नगर से लेकर कई इलाकों में मास्क को लेकर जागरूकता फैलाने के लिये रोड शो भी किया जिसमें उनके लंबे चौडे काफिले को देखने और उनको सुनने भीड जुटी. और हम पिछले साल के अनुभव से जान चुके हैं कि जहां भीड वहां कोरोना और ये संभव नहीं है कि जहां पर मुख्यमंत्री जायें उनको देखने मिलने सुनने लोग यानिकी भीड ना आये. भोपाल इंदौर और उज्जैन सभी जगह ये हुआ और यही सवाल स्वास्थ्य आग्रह की पहली पत्रकार वार्ता में हमारे किसी साथी पत्रकार ने पूछ दिया जिससे मुख्यमंत्री तो नहीं वहां मौजूद प्रशासन बुरी तरह असहज हो गया और देर तक उस पत्रकार साथी का नाम पूछता रहा जिसने ये सवाल पूछ कर रंग में भंग कर दिया था. प्र्रशासन के अफसर भूल गये कि सवाल वही होते हैं जो सच्चाई सामने लाये और असहज करे वरना बाकी तो मुंह दिखाने, जनसंपर्क करने और नंबर बढाने के लिये कुछ भी पूछा जा सकता है.


कडवी सच्चाई ये है कि ऐसे कोरोना रिटर्न की केंद्र और राज्य सरकारों ने कल्पना भी नहीं की थी. कोरोना वाइरस के हल्के होते ही सरकारें जल्दबाजी में तैयार हुयीं वैक्सीन की जय जयकार में लग गयीं. जबकि वाइरोलाजी के जानकार जानते हैं कि महामारी कुछ महीनों में जाती नहीं बल्कि कई सालों तक रहती है. पिछले साल ही विषेशज्ञ बताने लगे कि ये वाइरस तेजी से म्यूटेट हो रहा है यानिकी अपना रूप बदल रहा है. जिससे आने वाले दिनों में ये तय करना मुश्किल होगा कि जिस वाइरस के फार्म के लिये वैक्सीन बनी है उससे दूसरा रूप तैयार हो गया तो वैक्सीन की प्रामाणिकता संदिग्ध हो जायेगी. वही हो रहा है वैक्सीन लगाना अब रामबाण उपचार नहीं रहा. किसी को पहली तो किसी को दूसरी वैक्सीन के बाद भी कोरोना जकड रहा है. सरकारें यदि विशेषज्ञों के संपर्क में होती और सलाहें लेंती तो इस बीमारी से मेडिकल तरीके से निपटने में अपनी उर्जा लगाती. मगर सारा जोर फोटो बाजी, टीवी पर लंबे प्रसारण भाषण और इवेंट बनाने में होकर रह गया है. यही वजह है कि बीमारी दोबारा आई है तो अस्पताल तो हैं मगर उनमें आक्सीजन और दवाओं की भारी कमी है. बीमार मरीज यदि अस्पताल पहुंच भी गया तो वहां वो इन जीवनरक्षक संसाधनों के अभाव में अंदर और बाहर दम तोड रहा है.


सरकार पहले कोरोना को केवल हाथ धोने की बीमारी बता रही थी तो अब मास्क पहनकर बचने की बीमारी बता कर सरलीकरण कर रही है. जबकि असल चुनौती अस्पताल और संसाधनों की ही जिसकी बात ना कर रही है और ना करना चाह रही है. सवाल वही है कि आजादी के इतने सालों बाद भी क्यों अस्पतालों के नाम पर सिर्फ भवन ही खडे हैं बाकी संसाधन कहां गायब है उनके बारे में क्यों नहीं सरकारें बात करतीं क्यों आग लगने पर ही कुआ खोदने की आदत का शिकार हो कर रह गयीं हैं हमारी सरकारें. पूछता है आम आदमी.