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जार्ज फर्नांडीजः एक प्रखर समाजवादी जिसे अपने विचारों को कंप्रोमाइज करने का मिला इनाम

वैचारिक स्तर पर जार्ज फर्नांडीज जैसे समाजवादी नेता के 'ह्रदयांतरण' की कहानी हमारे संसदीय राजनीति के चरित्र की कई परतें खोलती है. आखिर एक जुझारू और वैचारिक रूप से परिपक्व नेता अचानक कैसे इस कदर बदल जाता है!

नई दिल्लीः भारत की समाजवादी धारा के प्रखर, प्रतिभाशाली और साहसी नेता रहे जार्ज फर्नांडीज का अपने जीवन के अंतिम सक्रिय दो दशकों में समाजवाद से किसी तरह का रिश्ता नहीं रहा. जिस व्यक्ति ने अपने राजनीतिक जीवन में लंबे समय तक मजदूरों, पिछड़ों-उत्पीड़ितों, अल्पसंख्यकों और उपेक्षित समुदायों के पक्ष में अभियान चलाया, वह बीसवीं सदी के अंतिम दशक में इस कदर बदला कि उसकी सियासी शख्सियत को समझना भी मुश्किल हो गया. इस दरम्यान अगर उनका कुछ नहीं बदला तो वह सिर्फ उनका लिबास था. जिस तरह का साधारण कपड़ा वह एक ट्रेड यूनियन नेता या समाजवादी सांसद के तौर पर इस्तेमाल करते थे, बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए-1 सरकार के मंत्री के रूप में भी उनका लिबास वैसा ही रहा. कई बार उनके नजदीकी मित्र और पत्रकार उनके कपड़े को लेकर उनका मजाक भी उड़ाते कि लगता है जार्ज अपने शरीर पर कुर्ता-पाजामा डालने से पहले उसका क्रीज खराब कर लेते हैं ताकि वो और साधारण दिखें!

वैचारिक स्तर पर जार्ज फर्नांडीज जैसे समाजवादी नेता के 'ह्रदयांतरण' की कहानी हमारे संसदीय राजनीति के चरित्र की कई परतें खोलती है. आखिर एक जुझारू और वैचारिक रूप से परिपक्व नेता अचानक कैसे इस कदर बदल जाता है! वह जिसे लंबे समय तक भारतीय समाज और लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा बता रहा था, उसे अचानक देशभक्त और महान शक्ति कैसे मान बैठता है! जार्ज के राजनीतिक जीवन पर नजर डालते हुए ऐसे सवाल बरबस ही हमारे मन में उठते हैं!

साल 1974 में राष्ट्रव्यापी रेल हड़ताल की अगुवाई करने और साल 1975-76 के दौर में अपात्काल के खिलाफ जबर्दस्त अभियान चलाने वाले जार्ज ने जब जनता दल छोड़कर 1994 में समता पार्टी बनाने का फैसला किया तो आगे उनके पूरे राजनीतिक सफर का 'रूट' ही बदल गया. फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि इस नये सफर में वह किन-किन मुकामों से होकर गुजर रहे हैं और अंत में कहां पहुंचेंगे!

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उनके इस नये सफर में नीतीश कुमार भी साथ हो लिए. शुरुआती दौर में जार्ज और नीतीश ने बीजेपी से हाथ मिलाने को जायज ठहराते हुए इसके लिए जनता दल द्वारा की जा रही अपनी उपेक्षा और राजनीति में उन्हें अलग-थलग करने की साजिशों का हवाला दिया. उन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री रहे लालू प्रसाद यादव, जार्ज और नीतीश के निशाने पर थे. कर्पूरी ठाकुर के दौर में लालू प्रसाद यादव जनता दली धारा में बहुत साधारण कद के नेता थे. अधिक से अधिक उन्हें एक मजेदार-हंसोड़ विधायक या सांसद के तौर पर देखा जाता था.

कर्पूरी ठाकुर के आकस्मिक निधन के बाद वह बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता बने गये. इस अभियान में नीतीश आदि ने उनका जमकर साथ दिया. नये चुनाव के बाद मार्च, सन् 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जल्दी ही लालू बिहार में बहुत ताकतवर नेता बनकर उभरे. फिर पार्टी में नये समीकरण बनने लगे और पुराने बिगडते नजर आने लगे. राजनीति में अपना वजूद बनाये रखने के लिए नीतीश ने अगर बीजेपी का हाथ थामा तो समझ में आने वाली बात थी. नीतीश कभी भी जार्ज की तरह प्रखर समाजवादी नहीं थे. जार्ज ने अपनी नवगठित पार्टी को बीजेपी की छत्रछाया में ले जाने के फैसले में बहुत जल्दबाजी दिखाई. उन्हें अपना राजनीतिक वजूद खतरे में दिखा.

एक जुझारू समाजवादी होने के नाते अब तक वह पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और प्रगतिशील मध्यवर्गीय लोगों के हीरो थे. लेकिन सन् 1990 के बाद बिहार की राजनीति में पिछड़े वर्ग से आने वाले लालू यादव स्वयं ही बड़े नेता बन बैठे. संभवतः बड़े राजनीतिक आधार से जार्ज के इसी अलगाव ने उन्हें बीजेपी की तरफ मुखातिब किया. इसके पीछे और कोई वैचारिकी नहीं थी. कैसी विडम्बना है, एक क्रूर बजरंग-दली द्वारा ओडिशा में आस्ट्रेलियाई पादरी ग्राहम स्टेन्स और उनके दो बच्चों को जलाकर खत्म करने की नृशंस घटना पर भी जार्ज जैसा नेता खामोश रहा. साल 2002 के गुजरात दंगों पर भी वह सरकार के बचाव की मुद्रा में नजर आए. उन्हीं के दल के नीतीश कुमार उस वक्त रेलमंत्री थे. दोनों ने सरकार और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का बचाव किया.

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समाजवाद और सेक्युलर डेमोक्रेसी जैसे विचारों और अपने अन्य वैचारिक आदर्शों पर कंप्रोमाइज करने का जार्ज को खूब इनाम भी मिला. संघ-बीजेपी ने उन्हें भरपूर सम्मान दिय़ा. रेलकर्मियों के झंझावाती आंदोलन और हड़ताल की अगुवाई करने वाले आंदोलनकारी को रेलमंत्री का पद दिया गया. फिर वह रक्षा मंत्री भी रहे. एनडीए के संयोजक भी बनाये गए. सन् 1999 की गर्मियों में करगिल-घुसपैठ और फिर पाकिस्तान के साथ हुई सीमित लड़ाई के वक्त जार्ज ही रक्षा मंत्री थे. फिर वे ढेर सारे विवादों में भी घिरे. उन पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे. इधर, बीते कई सालों से वह गंभीर रूप से अस्वस्थ थे. 88 साल की उम्र में 29 जनवरी को उनका निधन हो गया.

मंगलौर के एक साधारण ईसाई परिवार में सन् 1930 में जन्मे जार्ज का शुरुआती राजनीतिक जीवन महाराष्ट्र में बीता. पहली बार सन् 1967 में वह बंबई(अब मुबंई) के दक्षिण निर्वाचन क्षेत्र से ही सांसद बने थे. तब कांग्रेसी दिग्गज एस के पाटिल को हराकर इस युवा ट्रेडयूनियन नेता ने सियासत में सनसनी पैदा कर दी थी. लेकिन दूसरा चुनाव जार्ज बुरी तरह हारे. फिर बिहार आए और वही उनकी कर्मभूमि बन गया.

छात्र जीवन और पत्रकारिता के शुरुआती दिनों में हम जैसों के लिए जार्ज फर्नांडीज प्रखर समाजवादी नेता थे. इतने 'जात-पात' वाले समाज में वह सिर्फ अपने विचार, ठेठ राजनीतिक व्यवहार और साहस के बल पर बड़े नेता बने. युवा पीढ़ी के एक बड़े हिस्से में उन दिनों वह बहुत लोकप्रिय थे. कम उम्र में ही वह किंवदतीय व्यक्तित्व बन गये. मेरा उनसे परिचय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के अपने छात्र-जीवन के दौरान बड़ी मुश्किलों के दौर में हुआ था.

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मैं सन् 1981 में मैं एमफिल कर चुका था और पीएचडी के आखिरी दौर में था. सन् 1983 के दौरान विश्वविद्यालय में एक बड़ी घटना हुई और कई महीने के लिए विश्वविद्यालय बंद कर दिया गया. मैं गहरे संकट में था क्योंकि एक तो रिसर्च फेलोशिप खत्म हो गई और मेरे फिर विश्वविद्यालय लौटने की संभावना भी खत्म हो गई. उसी दौर में कभी जार्ज के घर से संचालित 'प्रतिपक्ष' के तत्कालीन संपादक विनोद प्रसाद सिंह ने मुझे उनसे मिलवाया. और विनोद बाबू से जेएनयू के मेरे एक साथी और समाजवादी धारा से सम्बद्ध अजय कुमार ने मिलवाया था. रवि नायर और संभवतः सुनीलम से भी उन्हीं दिनों परिचय हुआ. अजय कुमार बाद में भारतीय आयकर विभाग के बड़े अधिकारी बने. अब वह सेवानिवृत्त हो चुके हैं और दिल्ली में ही रहते हैं!

जहां तक याद आ रहा है, मैंने 'प्रतिपक्ष' में डेढ़-दो साल लिखा और उसके पारिश्रमिक के तौर पर मुझे ठीक-ठाक भुगतान (एक छोटे अखबार और उस वक्त के पारिश्रमिक के हिसाब से) भी होता रहा! फिर भी मैं अभी अपने को शोध छात्र के रूप मे ही देखता था, पत्रकार नहीं मानता था. पर एक दिन अचानक पत्रकार बन गया. वह भी टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप के हिन्दी अखबार नवभारत टाइम्स में. संभवतः यह सन् 1985 के अंतिम दिनों या सन् 1986 के शुरुआती दिनों की बात है. कुछ समय बाद मुझे दिल्ली से पटना भेजा गया, जहां से अखबार का नया संस्करण निकलने वाला था.

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पत्रकार बनने के बाद पटना में जार्ज साहब से अक्सर मुलाकातें होती रहीं. लंबे समय बाद चंडीगढ़ होते हुए मेरी फिर दिल्ली वापसी हुई तो जार्ज साहब से मुलाकातों का सिलसिला फिर शुरू हुआ. इनमें किसी तरह की खास निजता नहीं थी, जो एक समय पटना के दिनों में दिखती थी. कुछ समय बाद ये मुलाकातें कम होने लगीं और फिर ऐसा वक्त आया, जब खत्म सी हो गईं! ये वो दौर था, जब वह 'बीजेपी-मय' हो चुके थे. एक पत्रकार के रूप में मेरी कई बीजेपी नेताओं से भी मुलाकातें होती रहती थीं. जिन दिनों मैं दैनिक 'हिन्दुस्तान' के राजनीतिक ब्यूरो में विशेष संवाददाता था, कई बार बीजेपी 'कवर' करने वाले अपने सहकर्मी के छुट्टी पर होने की स्थिति में मैं बीजेपी मुख्यालय जाकर ब्रीफिंग आदि भी 'कवर' करता था. पर जार्ज साहब तो समाजवादी थे. उनका नया 'बीजेपी-मय रूप' मेरे जैसे पत्रकार को बहुत विस्मित करता था. बहुत समय बाद, 'कश्मीर टाइम्स' के तत्कालीन दिल्ली ब्यूरो प्रमुख इफ़्तिख़ार गिलानी की गिरफ्तारी को लेकर चल रहे विवाद के दौरान उनसे मुलाकात हुई. उन दिनों वह वाजपेयी सरकार में वरिष्ठ मंत्री थे. प्रधानमंत्री वाजपेयी और गृह मंत्री आडवाणी के बेहद करीबी समझे जाते थे. एक दिन वह संसद के गलियारे में मिले. इफ़्तिख़ार को रिहा कराने के उनके प्रयासों के लिए मैंने उनका धन्यवाद ज्ञापन किया. वह ज्यादा कुछ बोले बगैर मुस्करा कर चल दिए!

शायद, उनके लिए तब तक मैं 'बाहर का आदमी' बन चुका था और वह मेरे लिए भी ! रिश्तों में सिर्फ एक नक़ली सी औपचारिकता थी, वो पटना के एक्जीबिशन रोड के पास के अड्डे वाली अनौपचारिकता और सहजता नहीं! जार्ज साहब, आपने बाद के दिनों में देश, समाज और सेक्युलर जनतंत्र को सचमुच निराश किया! पर आपकी स्मृतियां भला कहां जायेंगी! तुगलक क्रिसेंट या कृष्ण मेनन मार्ग से गुजरते हुए आप अक्सर याद आयेंगे. आपको सादर श्रद्धांजलि!

(अपने तीन दशक लंबे पत्रकारिता जीवन में उर्मिलेश ने 'नवभारत टाइम्स' और 'हिन्दुस्तान' जैसे प्रमुख हिन्दी अखबारों में लंबे समय तक काम किया. वह राज्यसभा टीवी के संस्थापक कार्यकारी संपादक भी रहे.)

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