भारत आम चुनाव या'नी लोक सभा चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा है. इस चुनाव में अब ढाई महीने के आस-पास का वक़्त बचा है. राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के रूप में सियासी सरगर्मी भी उफान पर है. अपने-अपने हिसाब से हर राजनीतिक दल अपनी रणनीति को राज्यवार आख़िरी जामा पहनाने में जुटा है.


इन सबके बीच जिस चीज़ की कमी खटक रही है, वो है चुनाव को लेकर वास्तविक मुद्दे की. सैद्धांतिक तौर से आम चुनाव अलग-अलग राजनीतिक दलों के बीच जनता की ज़रूरतों से जुड़े वास्तविक मुद्दों की लड़ाई पर केंद्रित होना चाहिए. हालाँकि जो कुछ हो रहा है, इसके एकदम विपरीत है.


राजनीतिक दलों का निजी हित ही हावी


आम चुनाव का वक़्त जैसे-जैसे नज़दीक आ रहा है, जनता की ज़रूरतों से जुड़े वास्तविक मुद्दों की जगह पर राजनीतिक दलों के निजी हित से पैदा हुए सियासी मुद्दे हावी होते जा रहे हैं. तमाम दलों और उनके नेताओं की ओर से सिर्फ़ एक-दूसरे पर ही बयानों से वार किया जा रहा है. जनता क्या चाहती है, आम जनता के सामने वास्तविक समस्या क्या है, चुनाव को लेकर जनता के मन में क्या चल रहा है..आरोप-प्रत्यारोप की सियासी रस्साकशी में ये तमाम सवाल नेपथ्य में चले जा रहे हैं. राजनीतिक और मीडिया के व्यापक विमर्श में इन सवालों की प्रासंगिकता की गुंजाइश ही ख़त्म होती दिख रही है.


आम चुनाव और सियासी लड़ाई का रुख़


ऐसे में सवाल उठता है कि चुनाव हो किसके लिए रहा है, चुनाव का मकसद क्या सिर्फ़ सत्ता हासिल करना रह गया है. इस बार के लोक सभा चुनाव में राजनीतिक तौर से तीन पक्ष है. पहला पक्ष बीजेपी की अगुवाई में एनडीए है. दूसरा पक्ष कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों का गठबंधन 'इंडिया (I.N.D.I.A)' है. इन दोनों के अलावा तीसरा भी पक्ष है, जो न तो एनडीए का हिस्सा है और न ही विपक्षी गठबंधन 'इंडिया'. इस तीसरे पक्ष में मुख्य तौर से मायावती की बहुजन समाज पार्टी, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल, वाईएसआर जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस और के. चंद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति है.


मौटे तौर से इन तीन पक्षों के बीच में ही केंद्र की सत्ता से जुड़ी सियासी लड़ाई लड़ी जाने वाली है. इनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए की नज़र लगातार तीसरे कार्यकाल पर है. वहीं कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियों के गठबंधन 'इंडिया' का मुख्य ज़ोर बीजेपी के विजय रथ को रोककर केंद्र की सत्ता के क़रीब पहुँचने पर है. इनके अलावा तीसरे पक्ष में शामिल दलों का मुख्य फोकस अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में अपना दबदबा या जनाधार बनाने रखने पर है.



समीकरणों को साधने पर ही है मुख्य ज़ोर


बीजेपी की अगुवाई में एनडीए और विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' दोनों ही पक्षों का मुख्य ज़ोर राज्यवार सियासी समीकरणों को किसी भी तरह से अपने नज़रिये से साधने पर है. पिछले कुछ दिनों में बीजेपी की ओर से लगातार कोशिश की गयी कि विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' खे़मे से छोटे-छोटे दलों को अपने पाले में लाया जाए. बिहार में नीतीश कुमार और उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी के रूप में बीजेपी को अपनी रणनीति में कामयाब भी मिली है.


बीजेपी की नीति और एनडीए का बढ़ता कुनबा


इसके साथ ही जो दल विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का हिस्सा नहीं थे, लेकिन विपक्ष में थे...उन दलों को भी धीरे-धीरे अपने पाले में लाने की बीजेपी की रणनीति को सफलता मिलनी शुरू हो गयी है. इसके तहत ही पंजाब में वर्षों तक पुराने साथी रहे शिरोमणि अकाली दल का बीजेपी से एक बार फिर से जुड़ना लगभग तय दिख रहा है.


उसी तरह से आंध्र प्रदेश में भी एनडीए के हित में सियासी समीकरणों को साधने के लिए बीजेपी की नज़र तेलुगु देशम पार्टी के प्रमुख चंद्रबाबू नायडू और वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी दोनों पर है. निकट भविष्य में ही पता चल जाएगा कि इन दोनों में से कौन बीजेपी के पाले में आते हैं. पिछले साल सितंबर में बीजेपी कर्नाटक में एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस को भी अपने साथ लाने में सफल हुई थी, जो कुछ महीने पर पहले मई, 2023 में हुए विधान सभा चुनाव के दौरान बीजेपी की धुर-विरोधी पार्टी बनी हुई थी.


राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के मायने


बीजेपी एनडीए का कुनबा बढ़ाने के लिए राजनीतिक तौर से किस तरह की जुगत अपना रही है, वो अलग चर्चा का विषय है. उस पर विपक्षी गठबंधन में तोड़-फोड़ करने के लिए हर तरह के हथकंडे का इस्तेमाल करने का भी आरोप लग रहा है. प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी जैसी केंद्रीय जाँच एजेंसियों का विपक्षी नेताओं के ख़िलाफ़ इस्तेमाल का आरोप, भारत रत्न जैसे देश के सर्वोच्च सम्मान का चुनावी लाभ के लिए राजनीतिक इस्तेमाल का आरोप, विपक्षी नेताओं को अपने पाले में लाने के लिए तरह-तरह का प्रलोभन देने का आरोप कांग्रेस समेत विपक्ष के कई नेता बीजेपी पर लगा रहे हैं.


हालाँकि राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप को थोड़ी देर के लिए साइडलाइन कर दें, तो वास्तविकता यही है कि विपक्ष की ताक़त को येन-केन प्रकारेण कमज़ोर करने की बीजेपी की रणनीति सफल होती दिख रही है.


विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का बिखरता परिवार


एनडीए का दायरा बढ़ाने की बीजेपी की रणनीति के सामने विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' की कोई भी चाल काम नहीं कर रही है. हम सब ने देखा है कि पिछले डेढ़ साल में बहुत कुछ ऐसा हुआ है, जिसके तहत कई नेता अब एनडीए का हिस्सा या बनने वाले हैं, जो पहले विपक्ष में थे. अगर तोड़-फोड़ नहीं होता, पलटने का क़वा'इद नहीं होता, तो ये सारे नेता अभी विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' का हिस्सा होते. इनमें एकनाथ शिंदे, अजित पवार, नीतीश कुमार, जयंत चौधरी, जीतन राम मांझी, ओम प्रकाश राजभर जैसे नेता शामिल हैं.


पश्चिम बंगाल से लेकर यूपी की वास्तविकता


इनके अलावा विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में होते हुए भी तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में 'एकला चलो' की राह पर हैं. उन्होंने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी कभी भी सीपीआई (एम) के साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ेगी. इसके साथ ही ममता बनर्जी ने कांग्रेस को भी कह दिया था कि अगर मिलकर चुनाव लड़ना है, तो पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को सिर्फ़ दो सीट से ही संतोष करना पड़ेगा. हालाँकि कांग्रेस यहाँ महज़ दो सीट देने की ममता बनर्जी की पेशकश से खुश नहीं है. ऐसे भी पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी एक-दूसरे की पार्टी पर जिस तरह से धुआँधार तंज कंस रहे हैं, उसमें गठबंधन जैसी कोई बात अब रह नहीं गयी है.


उसी तरह से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच पंजाब और दिल्ली में सीट बँटवारे को लेकर कोई सहमति नहीं बनती दिख रही है. पंजाब को लेकर तो आम आदमी पार्टी एलान भी कर चुकी है कि वो प्रदेश की सभी 13 लोक सभा सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है.


उत्तर प्रदेश में ऊपरी तौर से तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच सीटों पर सहमति बन जाने की बात की जा रही है, लेकिन वास्तविकता यही है कि अंदर-ख़ाने दोनों ही दलों के बीच रस्साकशी जारी है. अब जयंत चौधरी के पाला बदलने के बाद सीटों को लेकर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच खींचतान और भी लंबी चल सकती है. समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 11 सीट देने का एलान पहले ही कर चुके हैं. हालाँकि कांग्रेस इस संख्या को लेकर संतुष्ट नहीं दिखती है. इसी वज्ह से कांग्रेस की ओर से उत्तर प्रदेश को लेकर कोई आधिकारिक एलान नहीं हुआ है. अब जयंत चौधरी के जाने के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सीट पर कांग्रेस अपनी दावेदारी जता सकती है.


विपक्ष में कांग्रेस की ज़िम्मेदारी और वास्तविकता


विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' में सबसे बड़ा विपक्षी दल और पैन इंडिया वोट बैंक रखने के लिहाज़ से कांग्रेस की ज़िम्मेदारी सबसे महत्वपूर्ण थी. 'इंडिया' गठबंधन में शामिल दलों के बीच चुनाव तक एकजुटता बना रहे, इसके लिए कांग्रेस को ही सबसे ज़ियादा मेहनत करने की ज़रूरत थी. लेकिन हो इसके विपरीत रहा है. कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के रवैये से 'इंडिया' गठबंधन के कई साथी एक-एक करके या तो पाला बदल रहे हैं या अकेले चुनाव लड़ने का एलान करने को विवश हो रहे हैं.


आगामी लोक सभा चुनाव दहलीज़ पर है. सामने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए जैसी मज़बूत चुनौती है. उसके बावजूद कांग्रेस की पूरी ताक़त राहुल गांधी के भारत जोड़ो न्याय यात्रा में लगी हुई है. उसमें भी यह हालत है कि राहुल गांधी बार-बार दोहरा रहे हैं कि उनकी इस यात्रा का किसी भी तरह से राजनीतिक संबंध नहीं है और न ही यह आगामी लोक सभा चुनाव की रणनीति से जुड़ा है. यह विमर्श एक तरह से कांग्रेस के सिद्धांत और व्यवहार में अंतर को ही बताता है. देश की आम जनता को भी मालूम है कि व्यवहार में इस यात्रा का मकसद राजनीतिक ही है, तो फिर इस बात को स्वीकार करने से राहुल गांधी आख़िर क्यों बच रहे हैं.


सामाजिक न्याय और जातीय गणना का राग


राहुल गांधी 'भारत जोड़ो न्याय यात्रा' में मोदी सरकार की नीतियों की आलोचना करते हुए बार-बार सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं. इसके लिए जातीय जनगणना के मुद्दे को उठा रहे हैं. वे वादा कर रहे हैं कि अगर 'इंडिया' गठबंधन की सरकार बनी तो जातीय जनगणना कराया जाएगा और उसके आधार पर सामाजिक न्याय की अवधारणा को प्रशासनिक और आर्थिक तौर से लागू किया जाएगा. जातीय जनगणना से सामाजिक न्याय के तहत वंचित पिछड़े वर्ग को उनका हक़ मिलेगा.


हालाँकि राहुल गांधी शायद यह भूल गए हैं कि आज़ादी के बाद से अब तक की अवधि में तक़रीबन छह दशक तक कांग्रेस या कांग्रेस की अगुवाई में ही सरकार रही है. क्या उस दौरान कांग्रेस ने कभी सामाजिक न्याय के नाम पर जातीय जनगणना कराने को ज़रूरी नहीं समझा. जनता अब इस रूप में भी सोचने लगी है. इतना पीछे नहीं भी जाएं और सिर्फ़ डेढ़-दो साल पहले जाकर ही सोचें, उस वक़्त तक तो राहुल गांधी का ज़ोर जातीय जनगणना पर इस रूप में कभी नहीं रहा.


वंचित वर्ग पर फोकस या पार्टी हित पर नज़र


इसमें कोई बुराई या ग़लत बात नहीं है कि राहुल गांधी सामाजिक न्याय और जातीय जनगणना को मु्द्दा बनाएं, लेकिन उसके साथ ही यह भी वास्तविकता है कि आगामी लोक सभा चुनाव को देखते हुए ही राहुल गांधी जातीय जनगणना पर इतना ज़ोर दे रहे हैं, ताकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग का समर्थन उनकी पार्टी को हासिल हो. यह पूरी तरह से उनकी पार्टी कांग्रेस के हित से जुड़ा हुआ मसला है.


अगर सममुच में कांग्रेस चाहती कि जातीय जनगणना हो और उसके आधार पर देश में सामाजिक न्याय सुनिश्चित हो, तो इसके लिए उसके पास पहले ही भरपूर मौक़ा था. जब कांग्रेस या उसकी अगुवाई में केंद्र सरकार थी, तब कभी भी उसकी ओर से जातीय जनगणना को लेकर इस तरह का उतावलापन काग़ज़ से परे व्यवहार में नहीं दिखा.


बीजेपी...चुनाव जीतने के लिए कुछ भी करेंगे


जहाँ तक सामाजिक न्याय को मुद्दा बनाकर राजनीतिक हित और चुनावी समीकरणों को साधने की बात है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दिल्ली में बैठे-बैठे इस काम को ब-ख़ूबी अंजाम दे रहे हैं. इसके लिए चाहे नीतीश कुमार को अपने पाले में मिलाना पड़े या जयंत चौधरी को..इसके लिए चाहे धड़ा-धड़ भारत रत्न का एलान करना पड़े..वो सब कुछ कर रहे हैं. हमेशा के लिए बंद हो चुका दरवाजा खोलने का तथाकथित मास्टर स्ट्रोक हो या फिर अतीत में जनसंघ और बीजेपी ने जिन नेताओं की नीतियों और काम-काज की जमकर आलोचना की हो, उनको भी भारत रत्न देने की घोषणा हो.. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी चुनाव में 400 पार के लिए सब कुछ कर रहे हैं.


दस साल से सरकार एनडीए की, लेकिन..


इतना ही नहीं पिछले दस साल से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार है. उसके बावजूद उनकी सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति के नाम पर यूपीए सरकार के दस साल के कार्यकाल पर श्वेत पत्र (White Paper) लाने से भी गुरेज़ नहीं कर रही है. जबकि वास्तविकता है मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए सरकार के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार जिस गति से बढ़ा था, उसकी तुलना में मोदी सरकार के कार्यकाल में अर्थव्यवस्था की बढ़ने की रफ़्तार कम रही है. प्रतिशत के आधार पर भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार में नज़र डालें, तो उसमें यूपीए सरकार का कार्यकाल मोदी सरकार के कार्यकाल से आगे हैं. इसके अलावा भी चाहे देश पर क़र्ज़ की स्थिति हो या फिर प्रति व्यक्ति आय में गुणात्मक वृद्धि का मसला हो, यूपीए सरकार का प्रदर्शन वर्तमान सरकार से बीस ही था, आर्थिक आँकड़ों में यही सच्चाई है.


फिर भी चुनावी लाभ के मद्द-ए-नज़र मोदी सरकार 2014-15 की बजाए अब यूपीए सरकार पर श्वेत पत्र लेकर आयी है. इसका मकसद दस साल के कार्यकाल के दौरान अपने ख़िलाफ़ पनपने वाले रोष और जनता के हितों से जुड़े वास्तविक मुद्दों की तरफ़ से ध्यान भटकाने के अलावा और कुछ नहीं हो सकता है.


राजनीतिक दलों के हिसाब से चलता पूरा तंत्र


दरअसल भारत अभी उस दौर से गुज़र रहा है, जहाँ सब कुछ राजनीतिक दलों के हिसाब से हो रहा है. राजनीतिक व्यवस्था उस दिशा में जा रही है या कहें जा चुकी है, जिसमें आम लोग मूकदर्शक से अधिक की हैसियत नहीं रखते हैं. चुनाव में मुद्दा क्या होगा, संसद में किन मुद्दों पर चर्चा होगी, यह सब कुछ राजनीतिक नफ़ा-नुक़सान के लिहाज़ से ही राजनीतिक दल तय कर रहे हैं.


संसद और चुनाव में किन मुद्दों के लिए है जगह?


आम लोगों के नज़रिये से देखें, तो शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, महंगाई, बच्चों में कुपोषण, क़ानून व्यवस्था में गिरावट, आर्थिक आधार पर ऊँच-नीच की बढ़ती खाई, सांप्रदायिक सौहार्द, महिलाओं के लिए घर से लेकर दफ़्तर में सुरक्षित माहौल..ये सारे कुछ ऐसे मसले हैं, जो बुनियादी भी हैं और सबसे अधिक महत्वपू्र्ण भी हैं. इसके बावजूद राजनीतिक तंत्र का विकास इस रूप मे हुआ है कि अब न तो चुनाव में और न ही संसद में इन मुद्दों पर चर्चा की बहुत गुंजाइश बच गयी है.


एक समय था जब संसद के हर सत्र के दौरान इन मुद्दों पर किसी न किसी रूप में नियमित तौर से सार्थक चर्चा होती थी. उस चर्चा के दौरान सत्ता पक्ष से लेकर विपक्ष के तमाम सदस्य उस मसले से जुड़े महत्वपूर्ण बिन्दुओं को सदन में रखते थे. इससे देश की आम जनता को भी ऐसा महसूस होता था कि संसद में हमेशा उनकी बुनियादी और रोज़-मर्रा की ज़रूरतों और समस्याओं को महत्व मिल रहा है. हालाँकि अब यह सब अतीत की बात है.


अब संसद में अलग से चर्चा के लिए जगह नहीं


स्थिति ऐसी हो गयी है कि महंगाई जैसे मुद्दों को तो अब सरकार समस्या मानने को ही तैयार नहीं है, संसद में इस पर अलग से चर्चा तो दूर की बात है. इसी तरह से बेरोज़गारी, शिक्षा का गिरता स्तर, महंगी होती शिक्षा, प्राइमरी से लेकर उच्च स्तर शिक्षा पर निजी क्षेत्र का बढ़ता आधिपत्य, ग्रामीण इलाकों में बेहतर प्राइमरी चिकित्सा सुविधाओं का अभाव, सरकारी अस्पतालों की बदहाली, आम लोगों की निजी अस्पतालों पर बढ़ती निर्भरता, रेल किराया में बेतहाशा इज़ाफ़ा.. इस तरह के मसलों पर अलग से चर्चा के लिए संसद में कोई जगह नहीं है. हाल-फ़िलहाल के कुछ वर्षों के दौरान हुए संसद सत्र के विश्लेषण से तो कुछ ऐसा ही निष्कर्ष निकलता है.


मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल ख़त्म होने के मुहाने पर है. 10 फरवरी को 17वीं लोकसभा का आख़िरी सत्र भी समाप्त हो गया. हर ऐसे मुद्दे पर तो संसद में चर्चा हुई, जिसे मोदी सरकार चाहती थी. यहाँ तक कि संसद के मौजूदा बजट सत्र के आख़िरी दिन राज्य सभा और लोक सभा दोनों में ही राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा को लेकर भी चर्चा हो गयी. लेकिन हाल फ़िलहाल के वर्षों में महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा और चिकित्सा सुविधा जैसे मसलों को संसद में अलग से चर्चा के लिए जगह नहीं मिली.


मणिपुर हिंसा जैसे मुद्दों तक के लिए जगह नहीं


चिंता की बात तो यह है कि मणिपुर हिंसा जैसे मसले तक को अलग से संसद में चर्चा के लिए जगह नहीं मिली. पिछले साल मई की शुरूआत में मणिपुर में हिंसा ने व्यापक रूप ले लिया था. अब तक वहाँ की स्थिति तनावपूर्ण है. इस दौरान तक़रीबन दो सौ लोगों की जान चली गयी. हज़ारों लोग बेघर हो गए. महिलाओं के साथ बर्बरतापूर्ण नीचता की सारी हदें पार कर दी गयी. इन सबके बावजूद संसद में मणिपुर पर अलग से चर्चा नहीं हो पायी और अब तो वर्तमान सरकार के दौरान संसद का सत्र भी नहीं होना है. भारत की संसदीय परंपरा को देखें, तो मणिपुर हिंसा जैसी घटना या मुद्दे को चर्चा के लिए संसद में अलग से जगह नहीं मिलना..अपने आप में अनोखा और चिंतनीय पहलू है.


चुनाव में पंडित नेहरू तक बन जा रहे हैं मुद्दा


देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू तक को संसद में बार-बार जगह मिल जा रही है, जबकि उनका निधन हुए क़रीब छह दशक होने जा रहा है. चुनावी लाभ और राजनीतिक श्रेष्ठता साबित करने के लिए देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद में पिछले एक दशक में बार-बार नेहरू और उनसे जुड़ी घटना और विचार को आलोचनात्मक तौर से ज़िक्र करते आए हैं. नेहरू को लेकर उनकी बातों में कितना सच है और कितना राजनीतिक हथकंडा है, वो अलग से चर्चा का विषय है. हालाँकि कई बार नेहरू को लेकर की गयी टिप्पणी या तो ग़लत या आधी-अधूरी साबित हुई है. उसके बावजूद  मई 2014 से संसदीय चर्चा में नेहरू को काफ़ी जगह मिल रही है.


संसद में कुछ भी दावा करने पर सदस्यों को उसे ऑथेंटिकेट करना पड़ता है. यही संसदीय परंपरा और नियम है. हालांकि पिछले कुछ समय से जैसा माहौल है, उसको देखते हुए कहा जा सकता है कि यह नियम और परंपरा सत्ता पक्ष के सदस्यों और स्वयं प्रधानमंत्री पर अब लागू नहीं होती है. वहीं विपक्ष से जुड़े सदस्य महंगाई के मसले पर भी बढ़ती क़ीमतों का उदाहरण देते हैं, तो उन्हें आसन से ऑथेंटिकेट करने का आदेश दे दिया जाता है.


सदैव चुनावी लाभ से मुद्दों का हो रहा है निर्धारण


उसी तरह से आम जनता के वास्तविक मुद्दों पर राजनीतिक दलों के सियासी मुद्दे हावी होते जा रहे हैं. आगामी चुनाव में जनता से जुड़े वास्तविक मुद्दों को जगह मिलेगी, इसकी भी कम ही गुंजाइश दिख रही है. राजनीति में धर्म का हावी होना, रोज़-मर्रा की ज़रूरतों की जगह राजनीतिक तौर से धार्मिक भावनाओं को महत्व, राम मंदिर, हिन्दू-मुस्लिम, धार्मिक आधार पर वोट का ध्रुवीकरण, जाति के आधार पर राज्यवार सियासी गोलबंदी, राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप, पाकिस्तान की बदहाली जैसे मसलों के सामने शिक्षा, चिकित्सा, महंगाई, बेरोज़गारी जैसे मुद्दे अब चुनावी नज़रिये से महत्वहीन हो गए हैं. सरल शब्दों कहें तो राजनीतिक तौर से महत्वहीन बना दिए गए हैं. चुनावी माहौल बनाने में अब इन मुद्दों की कोई अहमियत नहीं रह गयी है.


मीडिया की मुख्यधारा में किस तरह की ख़बरों और मुद्दों को तरजीह मिले, इसमें भी जनता से अधिक राजनीतिक दलों की भूमिका हो गयी है. हम देख सकते हैं कि ख़बरों में राजनीति आरोप-प्रत्यारोप ही सबसे अधिक हावी रहता है. राजनीतिक बयान-बाज़ी के इर्द-गिर्द ही ख़बरों की दुनिया सिमटी होती है. यह मीडिया की राजनीतिक हक़ीक़त है. इससे चुनाव को लेकर जनमत निर्माण में भी राजनीतिक दलों की भूमिका काफ़ी हद तक सबसे अधिक महत्वपूर्ण बनकर रह जाती है.     


वोट देने वाली कठपुतली में तब्दील होते आम लोग


एक वास्तविकता यह भी है कि अब देश में मतदाताओं की ऐसी फ़ौज तैयार हो गयी है, जिनको मुद्दों से बहुत अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ता है. आम लोगों में भी एक ऐसा बड़ा तबक़ा बन चुका है, जो घर बैठे ही ख़ुद को पार्टी कार्यकर्ता मानकर चलते हैं. इस वर्ग का सबसे बड़ा गुण है..स्थायी तौर से एक ही पार्टी के लिए राजनीतिक आस्था रखना..भले ही उस राजनीतिक दल की नीति कुछ भी हो. इस तब़के के लिए शिक्षा, चिकित्सा जैसे मसले धर्म-जाति के आगे बिल्कुल नहीं टिकते हैं. इस वर्ग को लगने लगा कि अमुक दल को वोट दिया है, तो ताउम्र उसी दल का समर्थन करना है, चाहे उस दल या सरकार की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सोच जैसी भी हो.


यह दिखाता है कि देश के आम लोग, मतदाता चुनावी प्रक्रिया में मूकदर्शक बनकर महज़ वोट देने वाली कठपुतली में तब्दील होते जा रहे हैं. जनमत की दशा-दिशा तय करने से लेकर चुनावी मुद्दों को निर्धारित करने में राजनीतिक दलों ने आम लोगों की भूमिका को एक तरह से बेहद सीमित कर दिया है. इस प्रक्रिया में हमेशा ही सत्ताधारी दलों की भूमिका सबसे अधिक होती है.


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