एक आम भारतीय के लिए नैरेटिव (यानी कथानक) के थोपे जाने से क्या असर होगा? इसका सबसे आसान असर चुनावों पर दिखता है. कौन सत्ता में आएगा, उससे फिर नीतियों और कानूनों का बनना निर्धारित होगा और इस तरह देश किस दिशा में जाएगा वो नियंत्रित किया जा सकता है. भारत में नैरेटिव, मीडिया में ख़बरों का स्थान और फिर फैक्ट चेक, तीनों ही स्तरों पर मीडिया को यूएसएड द्वारा नियंत्रित किया जा रहा था. ऐसा अब लगने लगा है. ये कैसे किया जा रहा था, इसे चरणबद्ध तरीके से देखा जाए तभी ये दिख भी पाता है. इसमें सबसे ऊपर के स्तर पर थी यूएसएड जो फण्ड मुहैया करवाती थी. इससे निकलने वाला फण्ड “इंटर-न्यूज़” नाम के एक एनजीओ को जाता था. इस इंटर-न्यूज़ का काम विश्व भर में मीडिया संस्थानों का सहयोग/समर्थन करना था.

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खबरों को नियंत्रित करने वाला यूएसएड

विश्व भर में इंटर-न्यूज़ 4000 से अधिक संगठनों के साथ मिलकर पत्रकारों को “प्रशिक्षण” देने का काम करती थी और कथित तौर पर गलत जानकारी या जिसे आम भाषा में फेक न्यूज़ कहते हैं, उसका प्रसार रोकने के लिए काम करती थी. विकीलीक्स के मुताबिक इस काम के लिए 472.6 मिलियन डॉलर खर्च किये गए. यहां से आगे बढ़ने पर कहानी भारत पहुंचती है. भारत की संस्थाओं को ही नहीं आम लोगों को भी पता है कि विदेशी फण्ड से चलने वाले एनजीओ किस तरह का काम करते हैं. इस क्रम में भारत सरकार पिछले कुछ वर्षों में हजारों एनजीओ का एफ़सीआरए लाइसेंस रद्द करके उनपर कार्रवाई भी कर चुकी है. ओमिडयार नेटवर्क, सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन, फोर्ड फाउंडेशन या रॉकफेलर की संस्थाओं के नाम से लोग परिचित हैं. ये सभी के सभी इंटर-न्यूज़ को फण्ड देने वाले समर्थकों में शामिल हैं.

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इस इंटर-न्यूज़ ने भारत का अपना काम डाटा-लीड्स नाम की एक संस्था को दे रखा था. इंटर-न्यूज़ की वेबसाइट पर “फेलोज” की सूची में बतौर पार्टनर डाटा-लीड्स का नाम दर्ज है. समाचारों से लेकर फेक न्यूज़ और भ्रामक सूचनाओं तक पर प्रशिक्षण देने के लिए डाटा-लीड्स ने प्रशिक्षक तैयार करने शुरू किये जो उसकी एक संस्था “फैक्ट-शाला” के जरिये प्रशिक्षण पाते थे. इस काम में “गूगल न्यूज़ इनिशिएटिव” भी फैक्ट-शाला का सहयोग करती थी.

राजनीतिक मत-निर्माण और यूएसएड

फैक्ट शाला के माध्यम से जो लोग प्रशिक्षकों को प्रशिक्षित करके तैयार कर रहे थे. उनका नाम देखते ही ये नजर आ जाता है कि ये लोग किस पक्ष से बैटिंग करते हैं. इनमें ऋतू कपूर, शेखर गुप्ता, जयंत मैथ्यू. फाये डीसुजा इत्यादि नाम दिख जाते हैं. राजनैतिक रूप से इनका झुकाव किस तरफ है, वो भी सबको पता है. फैक्ट-शाला के काम का असर क्या हुआ, इससे जुड़ी एक रिपोर्ट इंटर-न्यूज़ की साईट पर भी है. यानी फैक्ट-शाला से इंटर-न्यूज़ का सीधा सम्बन्ध भी दिखाई दे जाता है. इस फैक्ट-शाला से ही जुड़ी हुई कड़ियां प्रशिक्षण देने वाली एक दूसरी संस्था “संभावना इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक पालिसी एंड पॉलिटिक्स” पर ले जाती है. इसमें विशेष क्या है? ये जाने पहचाने वकील प्रशांत भूषण का एनजीओ है. प्रशांत भूषण “इंडिया अगेंस्ट करप्शन” जैसे मंचों के जरिये अन्ना हजारे के आन्दोलन से जुड़े हुए थे और कथित तौर पर उन्हें भी अपमानित कर योगेन्द्र “सलीम” यादव की ही तरह आम आदमी पार्टी से निकाला गया था.

सिर घुमा देगी इनकी पहुंच

इन प्रशिक्षकों से आगे बढ़ने पर प्रशिक्षकों में ऑल्ट न्यूज़ के प्रतीक सिन्हा और क्लिप काटकर फेक नैरेटिव गढ़ने के लिए कुख्यात, यौन अपराधों के मुक़दमे झेल रहे जुबैर का नाम भी नजर आता है. इनके साथ ही प्रोफेसर कंचन कौर भी प्रशिक्षकों में दिखती है. कई मुक़दमे, चंदा मांगने और यौन अपराधों जैसे मुकदमों के कारण तथाकथित फैक्ट चेकर प्रतीक सिन्हा और जुबैर तो पहचान में आते हैं, लेकिन ये कंचन कौर कौन हैं? थोड़े दिन पहले आईएफसीएन का नाम सुनाई दिया होगा जो फैक्ट-चेकर्स को सर्टिफिकेट बांटते थे. इस संगठन की स्थापना में भी सोरोस की ओपन सोसाइटी फाउंडेशन परोक्ष रूप से अपनी संस्था पॉइन्टर के माध्यम से शामिल थी. इस आईएफ़सीएन ने 2018 में ऑल्ट-न्यूज़ को निष्पक्ष फैक्ट-चेकर होने का सर्टिफिकेट दिया था. हाल में बांग्लादेश का तख्तापलट हम सभी ने देखा ही है. कुछ संस्थाओं के माध्यम से ये लोग बांग्लादेश तक में मीडिया का प्रशिक्षण दे रहे थे. कितने प्रशिक्षक तैयार थे ये समझना है तो फैक्ट-शाला की वेबसाइट के मुताबिक अबतक ये लोग 2500 वर्कशॉप करवा चुके हैं. जिसमें 75.000 लोगों को मीडिया सम्बन्धी ट्रेनिंग दी जा चुकी है. इनके पास 253 प्रशिक्षक हैं. जो 18 भाषाओं में प्रशिक्षण दे सकते हैं. इनकी पहुंच 500 शहरों और 400 कॉलेज/यूनिवर्सिटी में है. अब अनुमान लगाइए कि किस आकार और कितनी पहुंच की बात की जा रही है.

सोशल मीडिया और नैरेटिव निर्माण

अगर ये मान लें कि इन प्रशिक्षित लोगों में से आधे भी सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. तो ये अनुमान लगाना कठिन नहीं कि कैसे ये लोग सोशल मीडिया पर एक मुद्दे को उठाकर, फिर प्रिंट, टीवी और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अपनी पसंद की ख़बरें चलाने से लेकर, फिर फैक्ट चेक के नाम पर किसी खबर को अपनी राजनैतिक सहूलियत के हिसाब से तोड़-मरोड़ सकते हैं. किसी खबर को चला और किसी को गिरा सकते हैं. अब सवाल ये है कि जब ये सब हो रहा था तो क्या सरकार ने इसे रोकने की कोशिश की? आम जनता के हित में चौथा खम्भा काम करे, इसके लिए एडिटर्स गिल्ड, पीआईबी, सूचना-प्रसारण मंत्रालय जैसे सरकारी और गैर सरकारी विभाग कुछ कर रहे थे क्या? ये प्रश्न हमें पिछले वर्ष की एक खबर पर ले आता है. कुणाल कामरा जो कि विवादों में घिरा रहने वाला एक स्टैंड-अप कॉमेडियन है, उसने सरकार द्वारा किये गए आईटी एक्ट में संशोधनों के खिलाफ याचिका डाल रखी थी. इस याचिका पर मुंबई की हाईकोर्ट का फैसला सितम्बर 2024 में आया और हाईकोर्ट ने संशोधनों को रद्द कर दिया.

यानी कि सिर्फ मीडिया पर नियंत्रण या नैरेटिव-निर्माण ही एक मामला नहीं था, यह पूरा मामला संवैधानिक संस्थाओं के ही ये भी सुनिश्चित करने का था कि उनके प्रयास कानून की पकड़ से बाहर रहें. कामरा के प्रयासों में एडिटर्स गिल्ड उसके साथ मिलकर याचिका दे रहा था. फैक्ट-चेक कानूनी पकड़ से बाहर रहे, ये अदालतों ने सुनिश्चित किया. अब जब सारी पोल खुल रही है और संसद में भी यूएसएड की फंडिंग पर सवाल उठने लगे हैं, तो शायद कुछ कार्रवाई हो पाए.

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]