दिल्ली एक बार फिर आंदोलन के दहाने पर है. किसान हरियाणा और पंजाब से दिल्ली की तरफ कूच कर रहे हैं. दिल्ली के बॉर्डर पर बैरिकेडिंग और फेंसिंग सख्त है. ट्रैक्टर और ट्रॉली से किसान दिल्ली की तरफ बढ़ रहे हैं. शंभू बॉर्डर  पर आंसू गैस के गोले छोड़े गए हैं. दिल्ली से लगे सभी बॉर्डर को सील कर दिया गया है. दिल्ली से हरियाणा जाने वाला रास्ते को सील कर दिया गया है. हरियाणा में कई जिलों में इंटरनेट की सुविधा बंद कर दी गयी है और दिल्ली-गुरुग्राम सीमा सहित कई जगहों पर भारी जाम लगा हुआ है. सरकार ने सख्त बैरिकेडिंग, कीलें वगैरह लगाकर पुरजोर तैयारी कर रखी है, तो वहीं आंदोलनकारियों ने भी शंभू बॉर्डर पर पुल से बैरिकेडिंग उछालनी शुरू कर दी, तो पुलिस ने वाटर कैनन और आंसू गैस चलाए. 


विपक्षी दलों की पिच तो नहीं!


यह जरूरी है कि पिछले किसान आंदोलन से जुड़ी एक घटना और उस पर बहुत ही संतुलित मानेजाने वाले व्यक्ति की टिप्पणी उद्धृत करना जरूरी है. 2020 में दिसंबर के महीने में जब तीन कृषि कानूनों के खिलाफ जब आंदोलन किया था, जो लगभग 13 महीने तक चला. 13 महीने के बाद आंदोलन खत्म हुआ, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने माफी मांगी. आंदोलन खत्म होने के कुछ ही समय बाद यानी दो महीने बाद उत्तर प्रदेश में चुनाव हुआ, उस समय ऐसी उम्मीद जताई जा रही थी कि प्रदेश में किसान आंदोलन की वजह से भारतीय जनता पार्टी की बुरी तरह से हार होगी, क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों का गढ़ है, लेकिन चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई. उस वक्त योगेंद्र यादव जो कि चुनाव विश्लेषक थे और अब राजनीतिक कार्यकर्ता हैं, उन्होंने एक बात कही थी कि हम विपक्ष के लिए पिच तैयार करते है और विपक्ष उस पिच का फायदा नहीं उठाते है. कुछ ही महीने में लोकसभा का चुनाव होने जा रहा है, ये संभावित है कि लोकसभा के चुनाव के लिए विपक्ष को सहूलियत रहें, इसके लिए फिर से पिच तैयार करने की कोशिश की जा रही है.



पहले के किसान-आंदोलन हिंसक नहीं


देश में आजादी के बाद का सबसे बड़ा किसान आंदोलन महेंद्र सिंह टिकैत का हुआ करता था जो कि राकेश टिकैत के पिता थे. वही राकेश टिकैत किसान आंदोलन का हिस्सा हैं. उस समय आक्रमकता नहीं हुआ करती थी. ये ठीक है कि जब उन्हें पुसिल द्वारा रोका गया तो उन्होंने ढोर-ढंगर यानी गाय, भैंस, बकरी लाकर दिल्ली की सड़कों पर उतार दिया था. महेंद्र सिंह टिकैत ने खतैली में एक आंदोलन किया था, उस समय उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह की सरकार थी. आंदोलन को काबू में करने के लिए कोशिश की गई थी. बाद में कल्याण सिंह ने भी आंदोलन रोकने का प्रयास किया, लेकिन आंदोलन हिंसक नहीं हुआ था. हालांकि, पिछला जो आंदोलन हुआ. 2020 के किसान आंदोलन में दिल्ली की सड़को पर जिस तरह का तांडव किया गया, खासकर नांगलोई, आइटीओ, लालकिले में, उसी का डर है कि भारत की सरकार, चाहे वो  हरियाणा की सरकार हो, यूपी की सरकार हो, इन आंदोलनकारियों को दिल्ली न पहुंच पाने की कोशिश में कीलें बिछा रहीं है. आंदोलन होना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन खुद गांधी भी बाद में कह चुके हैं कि भारत की आजादी के बाद उस तरह के आंदोलन की जरूरत नहीं है. सरदार पटेल तो खासकर इस तरह के हिंसक आंदोलनों के खिलाफ थे, जो आज भी नक्सलवाद के तौर पर दिखता है और जो तब आंध्र प्रदेश में शुरू हुआ था. तब उन्होंने कहा था कि आजाद भारत में इस तरह के आंदोलन की जरूरत नहीं है, सरकार उनको नहीं बर्दाश्त करेगी. 


बात जायज भी हो, तो तरीका बहुत गलत


हो सकता है कि किसानों के विचार सही हों, सरकार पर लगाए आरोप भी सही हों, लेकिन तरीका सही नहीं है, कोई इसको जायज कैसे ठहराया जा सकता है. अभी सोशल मीडिया पर कुछ वीडियो वायरल हो रहे हैं. पंजाब में आए दिन बंद रहता है, रेल रोक दी जाती है, सड़क रोक दी जाती है. एक वीडियो में तो एक बुजुर्ग महिला पूरी तरह से इनसे भिड़ गयी है. वह दिखने में भाजपा की भी नहीं लगती है. तो, विरोध कीजिए, लेकिन उसका तरीका तो ठीक करना होगा. खासकर, अतीत में जिस तरह से आंदोलन किए गए हैं, उसका ही डर हावी है. फिरोजपुर में तो प्रधानमंत्री के काफिले तक को रुकना पड़ा था. दिल्ली गवाह है. लाल किला पर जिस तरह का तांडव हुआ, तिरंगे का अपमान किया गया, वह लोगों को याद है और यही वजह है कि इन लोगों को लेकर बहुत सहानुभूति भी दिल्ली में नहीं है. आज भी लोगों को दफ्तर आने में दिक्कत हुई है, मेट्रो के गेट बंद हुए हैं, जहां-तहां बैरिकेडिंग हुई है, तो केवल सरकार या पुलिस की दिक्कत नहीं है. किसानों ने जो उग्र आंदोलन पिछली बार किया था, उसी वजह से लोगों की सहानुभूति भी उनको इस बार नहीं मिल रही है. 


बातचीत से सुलझे मामला


सरकार बातचीत तो कर रही है. उसके मंत्री भी बात में लगे हैं. दो बार की बातचीत फेल भले हुई है, लेकिन उसे होना चाहिए. आंदोलन भी हो, लेकिन वह हिंसक नहीं होना चाहिए. हालांकि, वे जिस तरह आ रहे हैं और जिस तरह उनकी आक्रामकता दिख रही है, वो दरअसल डर का सबब है. किसान कभी आक्रामक नहीं हो सकता. इतिहास में यह भी है कि पिछला किसान आंदोलन एक शृंखला की कड़ी था. पहले सीएए का विरोध हुआ, फिर किसान आंदोलन हुआ. दोनों ही आक्रामक थे. इसमें सरकार का विरोध समझ में आता है, लेकिन वह फिर से एक तौर पर व्यक्ति विशेष का विरोधी हो जाता है. यह पूरा आंदोलन नरेंद्र मोदी के विरोध में जाकर खड़ा हो जाता है. दूसरी बात ये भी है कि ठीक चुनाव के समय सरकार से सवाल पूछना क्यों याद आ रहा है, दो साल तक आप चुप भी क्यों रहे, आप पहले भी तो सवाल पूछ सकते थे. ठीक चुनाव के पहले आंदोलन भी होते हैं, लेकिन उनका मकसद होता है कि अपनी जायज मांगों को मनवाना, लेकिन ठीक चुनाव के पहले पूरा माहौल बनाना और पिच खड़ा करना, एक सवाल तो उठाता ही है. 


इसका जवाब तो सरकार ही देगी कि एमएसपी गारंटी में क्या दिक्कत है, लेकिन पीएम मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान कुछ बातें कही थीं. पहली यह कि किसान सम्मान निधि में अब तक दो लाख 80 हजार करोड़ रुपए किसानों को जा चुके हैं. एक और बात कही कि 2 लाख 28 हजार करोड़ रुपए एमएसपी की खरीद पर बढ़ा है. पहले जो किसानों का बजट 25 हजार करोड़ रुपए का था, 2013-14 पर, उसे बढ़ाकर सवा लाख करोड़ रुपए कर दिया गया है. एमएसपी पर कानून बने, लेकिन उस आर्थिक दबाव को भी तो सरकार देखेगी. वही जवाब निकालना है और सरकार कहीं न कहीं उसकी ही कोशिश कर रही है. 


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