चुनावी साल में दुनिया भर के किसान विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. 13 फरवरी को जिस दिन भारतीय किसानों पर गंभीर हमले किये गये और उनकी दिल्ली की सड़कों को कंक्रीट की दीवारों, कंटीले तारों और कीलों से अवरुद्ध कर दिया गया. ब्रुसेल्स में किसानों ने 1300 ट्रैक्टरों के साथ सड़कों को जाम कर दिया, जिसके कारण वे पेरिस की ओर जाना मुश्किल हो गया. वे अपने भारतीय भाइयों की तरह ही उचित सौदे के लिए दबाव बना रहे हैं.


मांगें फ्रांसीसी किसानों के समान


ब्लूम्सबर्ग के अनुसार, उन्हें कहीं भी किसी शत्रुता का सामना नहीं करना पड़ा, हालांकि कृषि, धन, भोजन और जलवायु परिवर्तन पर व्यापक युद्धक्षेत्र बन गई है. उनकी "शिकायतों की सूची लंबी है - बढ़ती लागत, बढ़ती नौकरशाही, ग्रीन डील में नए यूरोपीय संघ के नियम और उनके बाजारों को कमजोर करने वाले आयात शामिल है ". कैसी विडंबना! यूरोपीय संघ के चुनाव में जाने के कारण ये किसान आंदोलन कर रहे हैं. सरकार उन पर राजनीति करने का आरोप लगाए बिना उनकी बात सुनती है. एक महीने पहले जर्मन किसानों ने हाईवे जाम कर दिया था. पंजाब, हरियाणा और यूपी के भारतीय किसान लंबे समय तक धरना देने के लिए आपूर्ति के साथ ट्रैक्टरों पर दिल्ली जा रहे हैं, उनकी मांगें फ्रांसीसी किसानों के समान हैं.


उनके प्लेकार्ड में कहा गया है, भारत को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी की अपनी मांगों के साथ डब्ल्यूटीओ छोड़ देना चाहिए, जिसका अर्थ है कि बाजार को उचित मूल्य, भोजन और टिकाऊ खेती सुनिश्चित करनी चाहिए. भारतीय किसानों पर "पाकिस्तान, खालिस्तानियों और अन्य देश-विरोधी ताकतों द्वारा समर्थित" होने का लेबल लगाया जाता है. पेरिस के किसानों की बात उनकी सरकार ने धैर्यपूर्वक सुनी और उन्होंने विरोध प्रदर्शन बंद कर दिया.



तीव्र विरोधाभास है. हरियाणा राज्य की सरकार ने पंजाब सीमा पर उनकी सड़कें अवरुद्ध कर दीं, आंसू गैस के गोले दागे, ड्रोन से गोले दागे. केंद्रीय मंत्रियों अर्जुन मुंडा और पीयूष गोयल के साथ बातचीत में उन्हें प्रमुख मुद्दों पर कोई आश्वासन नहीं मिला, हालांकि सरकार का कहना है कि दस अन्य मुद्दों पर सहमति बनी है. उन पर विपक्षी दलों, पंजाब में AAP और अब राहुल गांधी की गारंटीशुदा एमएसपी की घोषणा के साथ कांग्रेस को उकसाने का आरोप है. पंजाब सरकार के अधिकारियों के कथित हस्तक्षेप के बिन, अंबाला शंभू सीमा पर स्थिति बदतर हो सकती थी. किसानों के आक्रोश का एक लंबा इतिहास है, खासकर फ्रांस में और समस्याएं केवल यूरोप तक ही सीमित नहीं हैं. चुनाव में जाने वाले 70 देशों में यूरोपीय संघ, भारत और अमेरिका शामिल हैं. फ्रांस में किसानों की शिकायत है कि राजनेता केवल निर्वाचित होना चाहते हैं, इसलिए वे किसान आंदोलन के साथ दिखने की कोशिश करते हैं. भारत में अधिकांश राजनेता और पार्टियाँ उनसे दूर रहती हैं. यहां तक कि अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस पार्टी के ब्लैक पेपर में भी उनका केवल सरसरी तौर पर उल्लेख किया गया है.


पंजाब के किसान बिहार की ओर 


कांग्रेस पार्टी की मनमोहन-नीति खेती के कॉरपोरेटीकरण की शुरुआत के लिए जिम्मेदार है, जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक का लक्ष्य है. उनकी उत्तराधिकारी सरकार मनमोहनोमिक्स का अनुसरण कर रही है और केवल विपणन के मुद्दों को बढ़ाया है. 2006 में, यूपीए सरकार के दौरान, बिहार ने मंडियों या एपीएम को समाप्त कर दिया. इससे खरीद बंद हो गई. पंजाब के किसान बिहार की ओर भागते हैं, अनाज खरीदते हैं, पंजाब भेजते हैं, एमएसपी पर बेचते हैं और मुनाफा कमाते हैं. बिहार के किसान परेशान हैं. पिछले कुछ वर्षों में, यूपीए सरकार के दौरान भी किसानों द्वारा कई लंबे मार्च किए गए हैं, साथ ही एनडीए के दौरान भी 2021 में हरियाणा और यूपी के साथ दिल्ली की सीमाओं पर लंबे धरने दिए गए हैं. समानताएं बहुत गहरी हैं. यूरोप में, किसान इटली, स्पेन, स्विट्जरलैंड और रोमानिया में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.


पोलिश किसानों ने पड़ोसी यूक्रेन से आने वाले अनाज का मुखर विरोध किया है और सरकार को बातचीत के लिए मजबूर किया है. दिल्ली में, सरकार ने राष्ट्रीय राजधानी में किसानों के प्रवेश को रोकने के लिए सड़कों को अवरुद्ध कर दिया, जर्मनी में किसानों ने डीजल पर सब्सिडी में कटौती के खिलाफ जनवरी में एक सप्ताह के लिए राजमार्गों को अवरुद्ध कर दिया. भारतीय किसानों ने अब तक पेट्रोल और डीजल की कीमतों का भी विरोध नहीं किया है, जो अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों से लगभग दोगुनी हैं. यहां तक कि उन्होंने ऑटो-लॉबी-एनजीटी द्वारा प्रायोजित उनकी दस साल पुरानी नई कारों और ट्रैक्टरों की अवैध जब्ती का भी विरोध नहीं किया, जिसके लिए उन्होंने सात साल तक ईएमआई का भुगतान किया. अतार्किक रूप से ऊंचे टोलों के लिए सड़कों के निर्माण के लिए उन्हें अपनी भूमि के अधिग्रहण का सामना करना पड़ा. अनाज, बागवानी या मछली किसानों के लिए जलवायु संबंधी समस्याएं उन्हें बर्बाद कर रही हैं.


किसानों पर दुखों का अंबार


यूरोपीय और अमेरिकी किसानों के लिए जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा है. हालाँकि वहाँ की सरकारों की मंशा मुद्दों पर शत्रुतापूर्ण नहीं हो सकती है. एक अमेरिकी सेवानिवृत्त राजनयिक हेगडॉर्न के हवाले से कहा गया है, "आप इलेक्ट्रिक कार के बिना रह सकते हैं, आप मोबाइल फोन के बिना रह सकते हैं, लेकिन आप किसानों और उनके द्वारा उत्पादित भोजन के बिना नहीं रह सकते." ऐसे देश में जहां किसानों का प्रतिशत बहुत ही कम है दृष्टिकोण समझदारीपूर्ण है. कृषि के निगमीकरण से न तो यूरोप में और न ही अमेरिका में कृषक समुदाय को मदद मिली है. इसके विपरीत, भारत में 54 प्रतिशत से अधिक या 75 करोड़ से अधिक लोग कृषि क्षेत्र में बचे हैं. दो साल पहले हुए आखिरी किसान आंदोलन के बाद से, तीन कथित किसान विरोधी कानूनों को वापस लेने के बाद से, सरकार ने मनमोहनोमिक्स जारी रखा है और किसानों पर दुखों का अंबार लगा दिया है. इस बात से ग्रस्त नहीं होना चाहिए कि वे चुनाव के समय हंगामा करना चाहते है. दुनिया भर में ऐसा ही हो रहा है.


सुनने से ही होगा समस्या का समाधान 


सबसे अमीर अमेरिकी और यूरोपीय देशों से लेकर सबसे गरीब भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश तक नीति निर्धारण में किसानों की उपेक्षा की जा रही है. इन सभी देशों में जहां कॉर्पोरेट मुनाफ़ा बढ़ रहा है, वहीं किसानों की मज़दूरी दशकों से स्थिर है. बीज, उर्वरक, मशीनों या कीटनाशकों पर उनकी इनपुट लागत हर जगह कई गुना बढ़ गई है. 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि किसानों की आय 1700 रुपये प्रति माह थी. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के राज्यसभा के बयान के अनुसार दिसंबर 2022 में यह प्रति वर्ष 10218 रुपये या अनुसार लगभग 2000 रुपये प्रति माह था. मौजूदा परिस्थितियों में कृषि को बाजार से जोड़ना या कॉरपोरेटीकरण संपन्न देशों में विफल रहा है. अमेरिका में, किसानों की शिकायत है कि बड़ी कंपनियां उनको न्यूनतम कीमत भी नहीं दे रही हैं.


भारत में जो लोग यह सलाह दे रहे हैं कि यह सफल हो सकता है, वे स्पष्ट रूप से नीति नियोजकों को गुमराह कर रहे हैं. अधिक संवेदनशीलता की आवश्यकता है. दुनिया भर के किसान इसलिए आंदोलन नहीं कर रहे हैं क्योंकि चुनाव हैं. वे वैश्विक संकट के समाधान के लिए धैर्यपूर्वक सुनवाई चाहते हैं. दिल्ली सभी देशवासियों की है. सरकार को किसानों को खुली बांहों से आमंत्रित करना चाहिए, न कि कील बिछाकर. एमएसपी की गारंटी का वादा करने से सरकारी खजाने पर 2.5 लाख करोड़ रुपये (ट्रिलियन) से अधिक अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा, जिसे सरकारी एजेंसियां ​​खाद्यान्न बेचते समय वसूल करती हैं. किसी भी व्यवस्था में सुनना महत्वपूर्ण है. सुनने से ही समाधान होगा न कि दुत्कारने से.


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