UP Election 2022: बनारस परस्पर विरोधी विचारों की शरणस्थली है. काशी के बारे में कहा जाता है कि यहां जिसका देहांत होता है, वो सीधे स्वर्ग में जाता है. उसी काशी में कोई कबीर उठकर इसे अंधविश्वास बताता है और जिंदगी के आखिरी दिन बिताने के लिए मगहर चला जाता है. वो कबीर ने जो कुछ कहा, उस सांचे में भारत का लोकतांत्रिक संविधान बना. धर्मनिरपेक्षता भारत का मूल तत्व है, इसको समझने के लिए कबीर के इस दोहे को समझिए.


हिंदू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना


आपस में दोऊ लड़ै मरत हैं मरम ना कोऊ जाना


अर्थात हिंदू कहता है कि राम उसके हैं, मुसलमान कहता है कि रहमान हैं और इसी पर दोनों लड़ मरते हैं, लेकिन मर्म दोनों ही नहीं समझते. कबीर ने क्या सोचा होगा कि 500 साल बाद हिंदुस्तान चाहे जितना बदल जाए, लेकिन हिंदू और मुसलमान पर लड़ाने वाले नहीं बदलेंगे. क्या आज भी वही नहीं हो रहा है?


बात बनारस की हो रही है तो उसी वाराणसी में अस्सी घाट पर बैठकर गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की थी. जब गोस्वामी जी ने भगवान राम को जन जन तक पहुंचाना चाहा तो काशी के पंडों ने विरोध किया. उनकी पांडुलिपियों को जलाने और गंगा में बहाने की कोशिश हुई. तब तुलसीदास ने जो लिखा था, उससे उनका मर्म समझिए-


धूत कहे अवधूत कहे


रजपूत कहे जुलहा कहे कोई


केहू के बेटी से बेटा ना ब्याहब


केहू के जाति बिगाड़ न सोई


तुलसी सरनाम गुलाम है राम को


जासो रचे सो कहे कछु कोई


मांग के खइबो मसिद में सोइबो


लेबो को एक ना देबो को दोई


इसका मतलब हुआ कि कोई धूर्त कहे या अघोड़ी कहे, राजपूत कहे या जुलाहा कहे. मुझे ना तो किसी की बेटी से बेटे का ब्याह करना है ना ही किसी की जाति बिगाड़नी है. चाहे कोई कुछ भी कहे, लेकिन मेरा नाम तो राम का गुलाम है. मैं भीख मांगकर खा लूंगा, मस्जिद में जाकर सो लूंगा, क्योंकि मुझे ना किसी से कुछ लेना है, ना देना है.


उसी काशी में कोई संत रविदास भी पैदा होते हैं, जो ब्राह्मण और रुढ़िवादिता पर सबसे ज्यादा प्रहार करते हैं. संत रविदास ने लिखा कि


एक ही मांस एक मल मूतर एक हाड़ एक गुदा


एक जोनि से सब उत्पन्ना को बाभन को सुदा


उनके कहने का मर्म ये था कि जब सबका जन्म एक ही जैसे शरीर से होता है, सबका हाड़ मांस एक जैसा है, सबका जन्म एक ही तरह से होता है तो फिर ब्राह्मण कौन और शूद्र कौन.


राजनीति अक्सर सत्ता की तरफ देखती है और धर्म भी कुछ लोगों के वर्चस्व को बढ़ावा देने लगता है. ऐसे में संतों, साधकों, कवियों, सूफियों ने समाज को बदलने की कोशिश की. पिछले दिनों संत रविदास की जयंती पर सारे राजनीतिक दलों ने उनके नाम का खूब जाप किया. झांझ मंजीरा बजाने से लेकर लंगर लगाने तक, उनके मंदिरों तक जाने तक, सबमें ये दिखाने की होड़ थी कि कौन रविदास की परंपरा और मूल्यों के करीब है. लेकिन क्या वाकई ऐसा है. रविदास ने समाज को जाति की जड़ता से मुक्त कराने की कोशिश की. उन्होंने एक ऐसा समाज बनाने पर बल दिया, जहां किसी के रंग, किसी की त्वचा, किसी के कुल-वंश, किसी की संपत्ति के नाम पर भेदभाव ना हो. उन ऋषियों की परंपराएं हमारे संविधान में भी समाहित हैं.


होता ये है कि आज भी समाज जातियों के कुचक्र में बंटा हुआ है. दलितों का नाम आज भी इसलिए लिया जाता है कि लोकतंत्र में हर वोट की कीमत बराबर है. उनका वोट चाहिए और इसलिए उनके नाम की जयकार होती है. बाकी समय में उनकी जिंदगी आज भी बदतर है. उनके बीच भी कुछ अभिजात्य पैदा हो गए हैं, उनकी बात अलग है. समाज को बदलने के लिए सत्ता नहीं बल्कि संवेदना चाहिए. वो संवेदना अगर सामूहिक चेतना में समा जाए तो फिर धर्म की चौखट पर जाकर पाखंड नहीं करना पड़ेगा. गंगा में डुबकी का फोटो नहीं दिखाना पड़ेगा. बल्कि तब इंसान रविदास की तरह ही यही कहेगा- मन चंगा तो कठौती में गंगा. लेकिन मन चंगा नहीं है. मन तो वोट मांगता है और वोट के लिए नेताओं की सिर्फ जुबान बोलती है, दिल नहीं. 


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)


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