खबर थी, औरतों से ज्यादा पुरुषों को लगी कोरोना वैक्सीन. ऐसा भेदभाव क्यों? लेकिन इस सवाल में भी एक सवाल कैद है. वह यह कि औरतों को वैक्सीन कम लगीं, या उन्होंने कम लगवाईं? अगर ऐसा है तो इसकी क्या वजह है? जाहिर सी बात है, यह अपने देश की खबर है. कोविन, यानी कोविड वैक्सीन इंटेलिजेंस नेटवर्क के डेटा से पता चलता है कि हर 100 पुरुषों पर सिर्फ 87 औरतों को वैक्सीन लगी है. कुछ राज्यों में यह अंतर ज्यादा है, कुछ में कम. चूंकि आपको अपने आप ही इस कोविन पोर्टल पर अपना रजिस्ट्रेशन करना है, यानी औरतों ने पुरुषों के मुकाबले कम रजिस्ट्रेशन कराया है. क्या औरतों इस महामारी से खुद को बचाना नहीं चाहतीं? क्या उन्हें अपनी परवाह नहीं? वैक्सीनेशन में जेंडर गैप यानी लिंग असमानता क्यों आ रहा है? कई लोगों ने इसे देश के सेक्स रेशो से भी बुरा बताया है. क्या यह सच बात है?


औरतें वैक्सीन क्यों नहीं लगवा रहीं


इस सवाल के जवाब में हमारे पास कुछ आंकड़े हैं. 2019 में अच्छे सेकेंडरी और टिटयरी केयर के लिए प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना को शुरू किया गया था. एक साल बाद जब सरकार ने खुद अस्पताल में भर्ती होने वाले 15,168 मामलों से जुड़े आंकड़े खंगाले- जोकि दिल की बीमारियों से संबंधित थे, तो पता चला कि सिर्फ 29 प्रतिशत महिलाओं को हार्ट सर्जरी के लिए अस्पतालों में भर्ती कराया गया. इसी तरह ब्रिटिश मेडिकल एसोसिएशन के पीयर रिव्यूड मेडिकल ट्रेड जनरल बीएमजे में भारत में हॉस्पिटैलाइजेशन पर एक पेपर छपा था. उसमें भारत में महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच पर स्टडी थी. इसके रिसर्चर्स भारतीय हैं और उन्होंने तमाम मामलों पर अध्ययन करके बताया है कि भारत में अस्पताल में विजिट करने वाले ज्यादातर मरीज पुरुष होते हैं. इनकी दर 63 प्रतिशत है, जबकि महिला मरीजों की 37 प्रतिशत.


अपने स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही औरतों की मजबूरी है, और आदमियों की प्रवृत्ति है, उसे नजरंदाज करना. जैसे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 4 के आंकड़े बताते हैं कि देश की हर सात में से एक महिला को प्रेगेन्सी के दौरान अस्पताल नहीं ले जाया जाता क्योंकि उनके पति या परिवार वाले इसे जरूरी नहीं समझते. ऐसे में वैक्सीन लगेगी तो लगेगी कैसे? क्योंकि किसी को परवाह ही नहीं है.


क्या वैक्सीन के लिए रजिस्ट्रेशन कराना आसान है


वैक्सीन के लिए अपना रजिस्ट्रेशन औरतें खुद करा सकें, इसके लिए उन्हें टेक सैवी भी होना जरूरी है. साथ ही डिजिटली साक्षर होना भी. पढ़ना लिखना, और खासकर अंग्रेजी आना भी. देश में 2018 के सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम सर्वे के मुताबिक, सिर्फ 12.5 प्रतिशत औरतों ने अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की है. बाकी के लिए इंटरनेट इस्तेमाल करना क्या इतना आसान है? फोन होने के बावजूद इंटरनेट की जादुई दुनिया तिलस्म रचती सी महसूस होती है. इसी से राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 के आंकड़े कहते हैं कि देश के 12 राज्यों में 60 प्रतिशत के करीब महिलाओं ने कभी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया. गांवों में हर 10 में से तीन से भी कम और शहरों में चार औरतें ही इंटरनेट का इस्तेमाल करती है. आंध्र प्रदेश, बिहार और त्रिपुरा में 25% से भी कम महिलाओं ने इंटरनेट का इस्तेमाल किया है. दिलचस्प यह है कि आंध्र प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में 50 प्रतिशत औरतों के पास फोन है. पर वे इंटरनेट नहीं चलातीं. इसीलिए वैक्सीन के रजिस्ट्रेशन के लिए वे दूसरों पर निर्भर हैं. वे दूसरे कौन कौन हैं- पति या रिश्तेदार. तो यहां भी लापरवाही बड़ा कारण बन जाती है.


औरतों पर ध्यान नहीं देंगे तो महामारी से जंग हार जाएंगे


वैसे कोविड-19 महामारी ने महिलाओं के लिए खास तौर से दिक्कत पैदा की है. उनके रोजगार गए, वेतन गए, चारदीवारी से बाहर निकलने का रास्ता बंद हुआ, घरेलू हिंसा ने पहले से ज्यादा शिकार बनाया, अब वैक्सीनेशन में भी वे पिछड़ रही हैं. इस सिलसिले में डब्ल्यूएचओ ने इस साल मार्च में एक ईवेंट रखा था- इनश्योरिंग जेंडर इक्वालिटी इन द कोविड-19 वैक्सीन रोल आउट, थेराप्यूटिक्स एंड केयर. इसमें कहा गया था कि अगर कोविड-19 के रिस्पांस की अगड़ी कतार में हमने लिंग समानता को नहीं रखा तो हम इस जंग में हार जाएंगे.


महामारियों पर अध्ययन करने वालों ने हमेशा से यह चेताया है कि किसी भी प्रकोप का असर औरतों और आदमियों पर अलग-अलग किस्म से पड़ता है. जिका और इबोला के समय भी यह देखा गया था. इबोला से प्रभावित होने वाले देश सियरा लियोन में 2013 से 2016 के दौरान महिलाएं महामारी से ज्यादा प्रसूति से जुड़ी समस्याओं के कारण मौत का शिकार हुई थीं. चूंकि उनकी सेहत की तरफ किसी का ध्यान गया ही नहीं था. जाहिर सी बात है, महामारी के दौरान लोगों को दूसरी स्वास्थ्य समस्याएं भी होती हैं, पर सबका ध्यान सिर्फ महामारी पर ही लगा रहता है. पर यहां दिक्कत यह है कि कोविड-19 महामारी के समय भी औरतों की सेहत की तरफ ध्यान नहीं दिया जा रहा. उन्हें वैक्सीन कम लग रही हैं, आदमियों को ज्यादा.


क्या हम दूसरे देशों के उदाहरणों से सीखेंगे


अमेरिका में शुरुआती दौर में 70 साल से अधिक के लोगों को वैक्सीन लगाई गई और उसमें औरतों को आदमियों से ज्यादा वैक्सीन लगी. कई स्टेट्स में हेल्थवर्कर्स और स्कूल टीचर्स को प्राथमिकता दी गई. वहां फुल टाइम हेल्थ वर्कर्स में औरतें तीन चौथाई हैं और 75 प्रतिशत से ज्यादा पब्लिक स्कूल टीचर्स महिलाएं हैं. चूंकि वे पेड वर्क और अनपेड वर्क, दोनों करती हैं. बूढ़ों और बच्चों का ध्यान रखती हैं, इसलिए वे वैक्सीनेशन के लिए ज्यादा प्रेरित हुईं. हमारे यहां आदमी अस्पताल में विजिट महिलाओं से ज्यादा करते हैं, अमेरिका में उलटा है. फेडरेल डेटा कहते हैं कि अमेरिका में पुरुष नियमित रूप से डॉक्टरों के पास कम जाते हैं, और सिर्फ संकट के समय अस्पतालों की शरण लेते हैं.


वैक्सीन भी कोई अपवाद नहीं है. इंफ्लूएंजा का वैक्सीनेशन भी महिलाओं में ज्यादा है, पुरुषों में कम. अब सरकार और पब्लिक हेल्थ अथॉरिटीज़ इस कोशिश में हैं कि आदमियों को कैसे वैक्सीन के लिए प्रेरित किया जाए. इसके लिए इंफ्लूएंसर्स की मदद ली जा रही है और देखा जा रहा है कि किस तरीके को अपनाकर वैक्सीनेशन और बढ़ाया जाए. इसके लिए यह भी समझना होगा कि कोई जेंडर वैक्सीन क्यों नहीं लगवा रहा? क्या जेंडर कोई होमोजीनियस कैटेगरी है? बिल्कुल नहीं. हमें क्षेत्रगत समस्याओं को समझना होगा, फिर देखना होगा कि किसी क्षेत्र में लिंग भेद क्यों कायम है. चूंकि भारत में हर राज्य की स्थिति ऐसी नहीं. केरल जैसे राज्य में आदमियों से ज्यादा औरतों को वैक्सीन लगी है. पर फिर भी हम दूसरे देशों के उदाहरणों से सीख तो सकते हैं कि इस सिलसिले में क्या किया जा सकता है. क्या भारत में भी कोई यह सुन रहा है?


(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)