महाराष्ट्र के शिक्षा विभाग की किताबें बच्चों को नया ज्ञान दे रही हैं. सोशियोलॉजी की 12 वीं की किताब कहती है कि अगर लड़की ‘बदसूरत’ है तो उसके माता-पिता को दहेज देकर कंपनसेट करना पड़ता है. वैसे किताब में दहेज को सामाजिक बुराई बताया गया है और उसके कुल बारह कारण दिए गए हैं. इनमें से एक ‘अग्लीनेस’ यानी ‘बदसूरती’ है. आप ‘बदसूरत’ हैं तो आपके माता-पिता को दहेज देकर आपसे पल्ला छुड़ाना पड़ेगा.

इसी से ‘अग्लीनेस’ पर एक नए सिरे से बहस छेड़े जाने की जरूरत है. किताब लिखने वालों का भी एक माइंडसेट होता है. वह किसी सरकार विशेष की बपौती नहीं होता. जब महाराष्ट्र में यह किताब कोर्स में लगी थी तब कांग्रेस की सरकार थी. इसलिए राजनीति करने की बजाय हमें यह सोचना चाहिए कि यह माइंडसेट किसी का भी हो सकता है. आखिर, किताब लिखने वाले भी इसी समाज का हिस्सा हैं. उनमें भी तरह-तरह के पूर्वाग्रह हो सकते हैं. लिख भी दिया तो कोई फांसी तो चढ़ा नहीं सकता. लिखा है तो दुरुस्त भी किया जा सकता है. हो सकता है, इस हिस्से को डिलीट भी कर दिया जाए. पर क्या उस माइंडसेट को भी आप डिलीट कर सकते हैं. वह तो कहीं आपकी मेमोरी में गहरे में सेव हो चुका है.

इस माइंडसेट वाले हर जगह हैं. विज्ञापनों की पूरी चकाचौंध इसी सोच पर फली-फूली है. फलां क्रीम लगाओ तो आप सुंदर बन जाएंगी. एड कहीं यह स्टैबलिश नहीं करता कि समाज को किसी के लुक्स की परवाह किए बिना उसे एक्सेप्ट करना चाहिए. लुक्स इतने मायने क्यों रखते हैं. लेकिन अगर यह स्टैबलिश हो जाएगा तो कॉस्मैटिक्स का इंटरनेशनल मार्केट धड़ाम से गिर जाएगा.

क्या कॉस्मैटिक्स को बेचने के लिए ही यह माइंडसेट इस्टैबलिश नहीं किया जाता? इस आग्रह के दौरान हम यह भूल जाते हैं कि ऐसी सिचुएशंस के लिए हम रिवर्स ब्लेमिंग का इस्तेमाल कर रहे हैं. लड़की का सुंदर (और कई बार गोरा) न होना ही सारे फसाद की जड़ है. आप सुंदर नहीं होंगी तो सोसायटी में आपका डंका नहीं बजेगा. आप कामयाब नहीं होंगी. फेयर एंड लवली के विज्ञापन में यामी गौतम बताती हैं कि आत्मविश्वास पाने के लिए भी आपके लिए गोरा होना जरूरी है. ठीक ऐसी ही टिप्पणी सोशियोलॉजी की यह किताब भी करती है.

दहेज लेने वाले की गलत नहीं गलती आपकी है कि आप ‘बदसूरत’ हैं. शारीरिक सुंदरता नहीं है तो दहेज जैसी सामाजिक बुराई तो झेलनी ही पड़ेगी. दिलचस्प यह है कि किताब इस स्टेटमेंट को लेकर कहीं से भी क्रिटिकल नहीं होती. वह सिर्फ करंट स्टेट ऑफ थिंग्स बताती है.

सोशियोलॉजी जैसे विषय का काम यहां खत्म नहीं होता. वह समस्या को आइना तो दिखाता ही है, उस आइने पर पड़ी धूल भी झाड़ता है. सवाल यह है कि स्टूडेंट्स के साथ इस किताब का क्रिटिकल इंगेजमेंट कितना है. इस मामले में तो बिल्कुल भी नहीं है.

इसके अलावा दहेज की जिन दूसरी वजहों के बारे में यह किताब बताती है, उनमें से एक ‘कुलीन विवाह’, ‘सामाजिक प्रतिष्ठा’, ‘दूल्हे की अपेक्षाएं’ वगैरह भी हैं. दहेज के नाम पर इतने सारे ब्यौरे देने की जरूरत क्यों पड़ी, यह समझ के बाहर है लेकिन ‘अग्लीनेस’ के नाम पर जो उगला गया है, वह किसी भी लड़की के लिए तकलीफदेह है.

ऐसे उदाहरण हमें अक्सर देखने को मिलते हैं. रेप के मामलों में हममें से ज्यादातर लोग कहते हैं लड़कियां इतने छोटे कपड़े क्यों पहनती हैं, रात को देर तक क्यों घूमती हैं, मोबाइल का इस्तेमाल क्यों करती हैं? तलाक के मामलों में अक्सर औरत पर ठीकरा फोड़ा जाता है. एडजस्ट नहीं कर पाई होगी. पिटने वाली बीवियों को सहनशीलता की पुतली बताया जाता है. टीवी सीरियल हों या फिल्में सहना औरतों के जिम्मे होता है. आदमी का काम होता है हुक्म चलाना, अपनी बात मनवाना. ऐसे आदमी हर समाज, हर देश में हैं.

फरवरी 2016 में इंटरनेशनल अलर्ट और यूनिसेफ ने एक स्टडी की जिसमें बताया गया कि नाइजीरिया में बोको हरम की यौन हिंसा की शिकार लड़कियों को जब छुड़ाया गया तो उन लड़कियों के परिवार वालों ने उन्हें नहीं अपनाया. यौन हिंसा के बाद पैदा हुए बच्चों को भी भेदभाव झेलना पड़ा. यानी हर स्थिति में पीड़ित को ही दोषी ठहराया गया.

अपने यहां 1972 का मथुरा रेप मामला तो एक नजीर है ही. पुलिस वालों ने जिस 16 साल की बच्ची का रेप किया था, उसे ही सुप्रीम कोर्ट ने दोषी माना था. पुलिस वालों को बरी करते हुए मथुरा के बारे में जजों ने कहा था कि मथुरा को क्योंकि सेक्स की आदत थी, इसलिए उसने पुलिस वालों को उकसाया. इसके बाद महिला संगठनों और लॉ प्रोफेसरों ने बवाल किया तो भारत में क्रिमिनल लॉ का रिफॉर्म ही करना पड़ा. तब कानून में यह जोड़ा गया कि अगर पीड़ित लड़की इस बात से इनकार करती है कि संबंध सहमति से नहीं बने थे तो अदालत को यह मानना ही होगा. यानी आरोपी को पकड़ो, पीड़ित को नहीं, पर हमारी समाजशास्त्र की किताब ‘बदसूरती’ को ही दहेज की वजह बताती है.

पर मैं सुंदर हूं या बदसूरत-आप कैसे तय कर सकते हैं. मैं सुंदर हूं क्योंकि मैं ऐसा ही सोचती हूं. मेकअप पोत कर, पार्लर जाकर, बाल काले करके या तड़क-भड़क दिखाकर मैं अपने ऊपर वह मुलम्मा क्यों चढ़ाऊं जो मैं नहीं चाहती. समाजशास्त्र की किताब कैसे तय कर सकती है कि मैं कैसी दिखूं? इसकी इजाजत न तो समाज को है, न ही समाजशास्त्र को है.