कांग्रेस उत्साह में है. वजह, राहुल गांधी को फौरी तौर पर मिली राहत है. सुप्रीम कोर्ट ने मानहानि मामले में उनकी सजा पर रोक लगा दी है. फिलहाल वह दोषमुक्त नहीं हुए हैं. बहरहाल, उत्साह उनके समर्थकों में है. उनके पाले के बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं में भी है.


हालांकि, इसके तुरंत बाद यह सवाल भी उठने लगे कि क्या कांग्रेस अब अपना रुख बदल लेगी? क्या नीतीश कुमार फिर टापते रह जाएंगे?  क्या यूपी में भी समीकरण बदलेंगे, रालोद के जयंत चौधरी ने 15 सीटों की मांग कर जैसे स्थिर पानी में कंकड़ मार दिया है. अब, जयंत की यह अधिक सीटें पाने के लिए की गयी राजनीति है या यूपी में कुछ जमीनी स्तर पर बदल जाएगा, यह तो चुनाव के और नजदीक आने पर ही पता चलेगा.


राहुल गांधी प्रकरण का यूपी पर नहीं असर


राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से फौरी राहत मिलने से यूपी की राजनीति में बहुत बदलाव नहीं दिख रहा है, सिवाय इसके कि विपक्षी दलों में एक सकारात्मक बदलाव दिख रहा है. अखिलेश यादव का उस दिन का ट्वीट भी बहुत उत्साह से लिखा गया था और उन्होंने दिल से राहुल गांधी को बधाई दी थी, कहा कि अब चीजें बदल रही हैं.


हालांकि, बहुत आमूलचूल परिवर्तन इसमें नहीं आ रहा है. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस की खुद की हालत यूपी में बहुत अच्छी नहीं है. कम से कम फ्रंट लीडर की भूमिका में तो नहीं ही रहेगी. दूसरी तरफ जयंत चौधरी की पॉलिटिक्स बहुत साफ दिख रही है. बीच में हालांकि यह भी चर्चा हुई थी कि वह एनडीए का हिस्सा बन सकते हैं, मंत्री भी बनेंगे. हालांकि, जयंत चौधरी ने खुद भी इसका खंडन किया और विपक्षी बैठक के पहले या उस दौरान जिस तरह उन्होंने ट्वीट किए, उससे यही दिखाया कि वह विपक्षी गठबंधन का हिस्सा हैं.


ये दोनों चीजें पहले से ही मौजूद थीं. इसलिए, राहुल की सजा पर रोक लगने से ऐसा कुछ नहीं हो गया है कि यूपी में कोई हलचल हो जाए या फिर दलों के बीच का कंपोजिशन बदल जाए, या पार्टियों के बीच की समझदारी ही बदल जाए. 


जयंत चौधरी विपक्षी गठबंधन का ही हिस्सा


जयंत चौधरी की पार्टी ने रविवार 6 अगस्त को ही एक सोशल मीडिया कैंपेन शुरू किया है. वह भी केंद्र सरकार के खिलाफ है. जहां कहीं भी उनके समर्थक हैं या पार्टी के कार्यकर्ता हैं, उन्होंने अपील की है कि वे उसमें शिरकत करें. जहां तक उनके 15 सीटें मांगने का सवाल है, तो राजनीति में अपने दावे को तो हमेशा ही बढ़ा-चढ़ाकर किए जाते हैं.


जयंत चौधरी को भी पता है कि उनकी सीमा कहां तक है और उनका दायरा कहां तक है. हां, यह जरूर है कि हाल के दिनों में उन्होंने अपनी पार्टी को वापस खड़ा किया है. दो-ढाई साल पहले रालोद की कोई खास हैसियत नहीं मानी जा रही थी, लेकिन हां उसके बाद घटनाक्रम जरूर बदला. खासकर किसान आंदोलन के बाद जयंत की पार्टी जिस तरह खड़ी हुई, वह बहुत ही सराहनीय रही और लोगों ने उनको नोटिस किया.



विधानसभा चुनाव में उन्होंने अखिलेश के साथ गठबंधन किया और उसका भी फायदा उन्हें मिला. उनकी पार्टी सफल रही. अब यह भी बात है कि पश्चिमी यूपी का जो पूरा इलाका है, वह जयंत चौधरी का कोर वोटर्स का इलाका है. उनका महत्व तो बनता ही है. सपा का अगर एकाध इलाकों में छोड़ दें, तो वैसा कुछ असर दिखता नहीं है. तो, मांग उन्होंने की है. अभी का जो माहौल है, उसमें तो यह भी है कि सबको अधिकार है, अपने शेयर और सीट मांगने का. विपक्ष का जो आइएनडीआईए नामक गठबंधन बना है, उसकी चुनौती भी तो यही है कि वह सीटों का बंटवारा ढंग से कर पाए.


यहां आप एनडीए को भी देखें. संजय निषाद की पार्टी ने 12 सीटें मांग ली हैं. राजभर के आने से वह खफा भी हैं. मांग तो की ही जाएगी. हकीकत तो अखिलेश को भी पता है, योगी को भी, संजय निषाद को भी और भाजपा को भी, जयंत चौधरी को भी. हां, यह जरूर माना जा रहा था कि जयंत 10 सीटें मांगेंगे और 7-8 पर लड़ेंगे. अब लग रहा है कि वह इसी राजनीति पर काम भी कर रहे हैं.



छोटे दलों को सत्ता का साथ पसंद है


एक बहुत ही खास बात याद रखनी चाहिए. छोटे दलों की राजनीति सत्ता के साथ चलनेवाली होती है. उत्तर प्रदेश की बात करें तो छोटे दलों में यहां जो सबसे चर्चित नाम हैं, वो है निषाद पार्टी का और सुभासपा का. ये विपक्ष में रहे, अखिलेश यादव के साथ गठबंधन कर चुनाव भी लड़ा, लेकिन ये बहुत दिनों तक विपक्ष में रह भी नहीं पाए.


आखिर, इनके सर्वाइवल का सवाल होता है. बिहार की अगर बात करें तो उपेंद्र कुशवाहा ने तो नीतीश कुमार को छोड़ा था, उस वक्त जबकि यह मतभेद थे कि एनडीए के साथ रहना है या नहीं. तो, ये व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं की पार्टी है. हां, डेंट जरूर ये करती हैं, इनको सपोर्ट भी मिलता है, पर कुल-मिलाकर ये सत्ता के साथ ही जाती हैं. जीतनराम मांझी ने भी जब साथ छोड़ा है नीतीश कुमार का तो इस उम्मीद में छोड़ा है कि उनके बेटे को केंद्र में अकोमोडेट कर दिया जाए.


फर्क तब पड़ता है, जब समीकरण बदलते दिखने लगें. जब तक समीकरण बदलते नहीं दिखते, ये पार्टियां बहुत परिवर्तन नहीं पसंद करती हैं. यूपी की अगर बात करें तो चर्चा है कि संजय निषाद काफी नाखुश हैं और वह फिर से मछुआरा आरक्षण को लेकर अभियान शुरू करने वाले हैं. जाहिर तौर पर वादाखिलाफी का आरोप सत्ताधारी पार्टी पर ही लगेगा. दूसरी तरफ बीजेपी ने पूर्व मंत्री जयप्रकाश निषाद को खड़ा कर दिया है, जो लगातार संजय निषाद के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं. तो, ऐसी पार्टियों का रुख आम तौर पर जब चुनाव बिल्कुल सिर पर आएंगे, तभी दिखेगा. तब तक सत्ता जहां है, वहीं रहेंगी और बिना सत्ता के ये खुद को या कार्यकर्ताओं को भी नहीं संभाल पाएंगे.


जहां तक कांग्रेस की बात है, वह इस बार यूपी में अति-उत्साही नहीं होगी. उसको अपने संगठन की हालत पता है और वह रातों-रात नहीं बदलेगी. उसके पास बहुत नेता भी नहीं हैं, ऐसे नाम नहीं है जो सीट पर दावा ठोंक सकें. ऐसे में कांग्रेस 20-25 सीटों से अधिक की मांग भी नहीं करेगी. आखिर, आज की तारीख में तो कांग्रेस की केवल एक ही सांसद हैं- सोनिया गांधी. राहुल भी चुनाव हार चुके थे. आज की जो उत्तर प्रदेश कांग्रेस है, उसमें लोकसभा चुनाव लड़ने लायक चेहरे ही नहीं हैं और उसके पास इससे अधिक की मांग का कोई आधार नहीं है.


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