राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत ने फिर एक बड़ा दांव चला है. राजस्थान में विधानसभा के चुनाव होने में कुछ ही महीने बचे हैं. सचिन पायलट धड़े से बढ़ती अदावत को देखते हुए गहलोत ने एक बार फिर 2020 की घटना की याद दिलाई है, जो कांग्रेस के लिए संकट के बादल लाई थी. गहलोत ने पायलट धड़े के विधायकों पर बीजेपी से करोड़ों रुपये लेने की बात सार्वजनिक तौर पर कही. उन्होंने हालांकि बीजेपी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को भी विवाद में घसीट लिया. खुलेआम वसुंधरा को अपनी सरकार का संकटमोचक बताते हुए गहलोत ने कहा कि राजे ने उनकी सरकार बचाई थी. इससे राजस्थान की राजनीति में बवाल हो गया है. 


गहलोत के सब्र का बांध टूटा


राजस्थान में गहलोत ने वसुंधरा राजे को जो 2020 में अपनी सरकार का संकटमोचक बताया है, उस बात को जरा दूसरे नजरिए से भी देखें. जब मानेसर का सिलसिला हुआ था, वह सचिन पायलट की बेसब्री का नतीजा था. आज राजस्थान में पायलट को जो हैसियत मिलती, वह अगर नहीं है तो मानेसर वाली घटना ही उसके पीछे है. गहलोत और उनके लोग आज भी कहते हैं कि सचिन पायलट तो बीजेपी के साथ मिलकर सरकार गिराना चाहते हैं. उसी क्रम में यह बात भी आई कि जिस तरह बीजेपी में वसुंधरा राजे को दरकिनार किया गया, कैलाश मेघवाल को दरकिनार किया गया, वह तो जब राजनाथ सिंह अध्यक्ष थे, तब उनके साथ भी तकरार हुई. गडकरी के समय समन्वय बैठा और फिर तो उन्होंने अमित शाह और नरेंद्र मोदी तक का विरोध किया. यह भी कहा कि राजस्थान में तो वही होता है, जो वह चाहती हैं. उनका दबदबा था भी, क्योंकि वह 200 में 162 विधायक लेकर आई थीं. उनको ये पता नहीं था कि नरेंद्र मोदी जिस तरह की शतरंज बिछा रहे हैं, उसमें उनका कमजोर पड़ना तय है. तो, वसुंधरा ने भी अपने कदम पीछे खींचे और अब समझ रही हैं. पहले तो वह अटल-आडवाणी को छोड़कर किसी को कुछ समझती ही नहीं थीं. 



गहलोत ने जो बयान दिया है, वह उनकी राजनीतिक कलाबाजी है. हमें तो यह समझ में आ रहा है कि मानेसर में भाजपा की तरफ से जो लोग गए, उनको काफी पैसा दिया गया. मुख्यमंत्री ने यह कहा भी है. उसके बाद भी समझौता हुआ नहीं. कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति में जो दृश्य बना, उसमें कुछ तो चाहते ते कि सचिन पायलट अलग चलें और कुछ चाहते थे कि उनको अलग कर दिया जाए. सोनिया और राहुल गांधी के रहते तो कुछ हुआ नहीं. खरगे के आने के बाद समझौते के प्रयास फिर शुरू हुए हैं. इसी बीच सचिन पायलट जगह-जगह जाकर असंतुष्टों से मिलकर अपना शक्ति-प्रदर्शन भी कर रहे थे और आगे की तैयारी भी. आज की तारीख में कोई भी खुद को साम-दाम-दंड-भेद किसी भी तरीके से स्थापित करना चाहता है और उस रास्ते में वह कुछ भी करने को तैयार है. अब गहलोत एक तरफ तो काम कर रहे थे, पुलिस स्टेशन से लेकर बाकी जनता-हितैषी संस्थान बना रहे थे, तो दूसरी तरफ पायलट उनकी ही जड़ खोद रहे थे. 


पायलट की बेसब्री भारी पड़ेगी


इस बीच समन्वय के प्रयास चलते तो रहे, लेकिन बेकार. अजय माकन आए तो उन्होंने समन्वय को छोड़कर दो फाड़ ही कर दिए. उससे पहले सचिन पायलट कभी माने ही नहीं. तो, मुख्यमंत्री ने जो कल भाषण दिया, वह शायद उनके सब्र के बांध के टूटने का परिणाम था. उन्होंने मानेसर के समय भी (जब पायलट के साथ कांग्रेस के 17-18 विधायक मानेसर चले गए थे और हाई वोल्टेज सियासी ड्रामा चला था) आरोप लगाया था, पैसे के लेन-देन का और अभी भी कह दिया कि कांग्रेस के जिन लोगों ने पैसे लिए, वो लौटा दें. वसुंधरा के परदे के पीछे की जो राजनीति है, वह अब सामने आ गयी है. उनका अपना एक दबदबा है और वह भी अमित शाह औऱ मोदी को दिखाना चाहती हैं, अगर उनको मौका मिले तो. राजस्थान की खासियत है कि यहां बहुसंख्यकवाद उस तरह से नहीं चलता, जैसा यूपी या कहीं और चला. यहां जाति-समूह हैं जो अपना दबदबा बनाए रखना चाहते हैं. उनमें टूट भी नहीं होती और वो जहां जाते हैं, एक साथ जाते हैं. तो, ये भी एक चक्कर है. 


इस पूरे प्रकरण में सबसे अधिक नुकसान वसुंधरा राजे को हुआ है. पिछले चुनाव में आखिर में वह नारा लगा था, 'मोदी तुझसे वैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं'. जब पूरे देश में भाजपा विजयी हो गयी थी, तो यह नारा आया. वसुंधरा ने जयपुर में एक बड़ी रैली में जिसमें मोदी आए हुए थे, साफ-साफ कह दिया था कि राजस्थान में ऐसा नहीं होता जो आप चाहते हैं, यहां वही होता है, जो वसुंधरा चाहती है. हालांकि, जब मोदी का ऑरा बढ़ने लगा तो ये नारा भी निकल आया. 


वसुंधरा बैकफुट पर हैं


जुलाई 2020 में जब कांग्रेस के रूठे हुए लोगों को लेकर सचिन पायलट गए, तो उसे बीजेपी की साजिश बताया गया. उसके परिस्थितिजन्य साक्ष्य भी हैं. हालांकि, वह विद्रोह अंजाम तक नहीं पहुंचा और सरकार कायदे से चलने लगी. अब वही टेंशन फिर से उभर कर आ गया, जब से सचिन पायलट ने शक्ति-प्रदर्शन करना शुरू किया. इसमें वे 17-18 विधायक और उनका क्षेत्र भी है, जिनमें से कई मंत्री भी हैं. वसुंधरा जी पर यह आरोप लग रहा था कि अशोक गहलोत से उनका सौहार्द्र बना हुआ है. हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद वसुंधरा से बंगला नहीं खाली करवाया गया, यह बात भी बहुत कांग्रेसियों को चुभ रही थी. सचिन पायलट ने इसका भी उल्लेख किया था. इस बीच वसुंधरा ने अपना भी बयान जारी किया कि नींबू और दूध का कभी समन्वय हो सकता है क्या? यह बयान वसुंधरा ने गहलोत के संदर्भ में दिया था और तभी शायद मुख्यमंत्री ने सोचा कि अब मौका आ गया है कि चीजों को एक्सपोज कर दिया जाए. 


वसुंधरा के बारे में भी बीजेपी में सबकी राय तो अच्छी नहीं ही है. तो, शक्तिप्रदर्शन वहां भी एक चीज है. अब जोधपुर वाले जो केंद्रीय मंत्री हैं, गजेंद्र सिंह शेखावत, उनसे वसुंधरा की नहीं पटती. तो, वह भी अपनी पारी की ताक लगाए बैठे होंगे. प्रतिपक्ष के नेता अपनी अलग दौड़ में हैं. सब अपनी गोटी बिठा रहे हैं और उसी तरह से समय-समय पर बयान देते रहते हैं. मुख्यमंत्री ने तो शायद अपने राष्ट्रीय नेतृत्व को ही यह खुलासा कर संकेत दे दिया है कि जिन लोगों ने पैसा लिया है, उन पर किसी भी तरह का दबाव डाला जा सकता है. 


राजस्थान की जनता जमकर जवाब देती है. भैरोसिंह शेखावत को भी पूर्ण बहुमत नहीं मिला था. वसुंधरा ही पहली बार अपने दम पर पूर्ण बहुमत लेकर आईं. इस बार हालांकि, बीजेपी की सरकार बनना थोड़ा मुश्किल है. चुनाव के एक महीने पहले ही सामाजिक समीकरण काम करते हैं. जहां तक बीजेपी के हिंदुत्व-कार्ड की बात है, तो कटियार के बजरंग-दल का अध्यक्ष रहने पर यहां त्रिशूल वगैरह लेकर चलने पर रोक लगाई गई थी. भाजपा के राजस्थान में जो चेहरे अभी हैं, वे कहीं न कहीं दूसरी पार्टी से आए हैं. संघ का प्रभुत्व रहा नहीं है. यहां बीजेपी और कांग्रेस एक ही तरह की समस्या से जूझ रहे हैं. यहां कई तरह के गुट हैं, जो इनको साध लेता है, इनके साथ समन्वय कर लेता है, वही सत्ता में आता है. भैरोसिंह शेखावत के बाद वह जादू तो जादूगर अशोक गहलोत में ही नजर आता है. 


(यह आर्टिकल निजी विचारों पर आधारित है)