सबने देखा कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस जब चुनाव लड़ने के लिए नागपुर दक्षिण-पश्चिम विधानसभा सीट से अपना नामांकन दाखिल करने पहुंचे तो उनके साथ अगर बीजेपी का कोई एकमात्र दिग्गज केंद्रीय मंत्री खड़ा था- वह थे नितिन गडकरी. लेकिन अब सभी देख रहे हैं कि राज्य में विधानसभा चुनाव का घमासान चरम पर है लेकिन बीजेपी की प्रचार सभाओं अथवा पार्टी प्रचार-सामग्री में नितिन गडकरी का चेहरा खोजने से भी नहीं मिल रहा है. राजनीतिक गलियारों में चर्चा गर्म हो गई है कि कहीं गडकरी को राज्य की राजनीति में पूरी तरह अप्रासंगिक बनाने की तैयारी तो नहीं की जा रही है. मोदी और शाह की चुनावी सभाएं महाराष्ट्र में हो रही हैं लेकिन गडकरी मंच से नदारद रहते हैं. इस संदर्भ में गडकरी की खामोशी भी आश्चर्यजनक है, जबकि वह अपने सड़क परिवहन व राजमार्ग मंत्रालय के काम और उपलब्धियों से जुड़े बयान लगभग रोज ही जारी कर रहे हैं.


अटल-आडवाणी के दौर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आंख का तारा रहे गडकरी की नजरों के सामने ही देवेंद्र फडणवीस कब संघ की आंख का तारा बन गए, गडकरी को पता ही नहीं चला. जबकि इन दोनों के साथ संयोग यह जुड़ा हुआ है कि दोनों संघ के उत्पाद हैं, दोनों ब्राह्मण हैं और दोनों की राजनीतिक नर्सरी नागपुर और चुनावी अखाड़ा महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र ही है. लेकिन जब-जब महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री पद संभालने का अवसर आया तो गडकरी का पत्ता काटा गया और फडणवीस के लिए रास्ता बनाया गया. इसे भी एक संयोग की तरह ही देखा जाना चाहिए कि जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बीजेपी का पीएम उम्मीदवार बनाने की घोषणा हुई, लगभग उसी समय पार्टी के अध्यक्ष गडकरी को पद से हटाया गया. एक अंदाजा यह लगाया जाता है कि गडकरी पार्टी चलाने के मामलों में संघ के अलावा किसी की दखल बर्दाश्त नहीं करते थे. बीजेपी की जीत के बाद 2014 में महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाने के बजाए केंद्र की मोदी सरकार में उन्हें जहाजरानी और भू-तल परिवहन मंत्रालय दिया गया. बीजेपी-शिवसेना सरकार में पीडब्ल्यूडी मंत्री रहते हुए गडकरी ने समूचे महाराष्ट्र में मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे समेत फ्लाईओवरों, पुलों और सड़कों का जो जाल बिछाया था, वह अनुभव केंद्र में भी उनके काम आया और जब सबसे ज्यादा ऑउटपुट देने वाले केंद्रीय मंत्रियों की सूची बनी तो गडकरी सबसे अव्वल दिखाई दिए. लेकिन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में गडकरी से जहाजरानी मंत्रालय का काम छीन लिया गया है. जाहिर है, केंद्र में भी गडकरी का कद छोटा करने की कवायद चल रही है.


अगर हम इसकी कुछ प्रमुख वजहें तलाशने की कोशिश करें तो साफ नजर आता है कि मोदी-शाह की जोड़ी जिस कांग्रेस मुक्त भारत वाले प्रोजेक्ट पर प्राणपण से जुटी हुई है, गडकरी बीच-बीच में अपने बयानों की सुरसुरी छोड़कर उसमें पलीता लगाते रहते हैं. एकनिष्ठ स्वामिभक्ति के इस दौर में गडकरी के उस बयान को मोदी-शाह की जोड़ी पर सीधा कटाक्ष समझा गया, जो उन्होंने हिंदी राज्यों के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार के बाद दिया था. गडकरी का कहना था- 'सफलता का श्रेय लेने के लिए लोगों में होड़ रहती है, लेकिन विफलता को कोई स्वीकार नहीं करना चाहता.' गडकरी की कुछ बातें दार्शनिक किस्म की भी होती हैं, जो संघ को नहीं पचतीं. पुणे में एक कार्यक्रम के दौरान जवाहर लाल नेहरू का उद्धरण देते हुए उन्होंने इस आशय का बयान दे दिया था कि सिस्टम को सुधारने के लिए दूसरे की तरफ इशारा नहीं करना चाहिए बल्कि स्वयं इसकी जिम्मेदारी उठानी चाहिए. इसे नेहरू की तारीफ समझा गया.


इतना ही नहीं, पिछले दिनों नागपुर में उन्होंने अपनी ही सरकार को घेरते हुए कहा कि वह किसी प्रोजेक्ट को पूरा करने में सरकार की मदद नहीं लेते, क्योंकि सरकार जहां-जहां हाथ लगाती है वहीं सत्यानाश हो जाता है. अब इसे गडकरी की भड़ास कहा जाए या स्पष्टवादिता या भोलापन, शीर्ष नेतृत्व के कान खड़े होने ही थे. लगता है कि बीजेपी आलाकमान महाराष्ट्र में उभर चुके वर्तमान नेतृत्व में कोई फेरबदल करने के मूड में भी नहीं है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने मीडिया में इसकी पुष्टि कर दी है. यानी आने वाले दिनों में देवेंद्र फडणवीस का पाया और मजबूत होगा. जिन अन्य वरिष्ठ नेताओं की ओर से चुनौती मिलने की आशंका थी, उनके पर कतर दिए गए हैं. फडणवीस सरकार में कभी न कभी मंत्री रह चुके एकनाथ खड़से, विनोद तावड़े, प्रकाश मेहता को टिकट तक नहीं दिया गया है. यह सच है कि इन सभी पर भ्रष्टाचार के आरोप हैं लेकिन असल मुद्दा इनकी कार्यशैली को लेकर है. ये सभी फडणवीस को चुनौती देते हुए मुख्यमंत्री पद के लिए अपना नाम चलाने लगते हैं.


उम्रदराज न होने के बावजूद नितिन गडकरी के साथ स्वास्थ्य की समस्या भी जुड़ी हुई है. सुगर की समस्या के चलते वह अहमदनगर में मंच पर ही बेहोश हो गए थे. लेकिन गडकरी की शुरुआती सक्रियता और दिलचस्पी दिखाने के बाद भी न तो उन्हें टिकट बंटवारे में तवज्जो दी गई, न ही चुनाव प्रचार में उनकी कोई पूछ-परख हो रही है. कहा तो यहां तक जा रहा है कि आलाकमान के वरदहस्त के चलते इस बार प्रत्याशियों के चयन में फडणवीस के अलावा किसी की नहीं चली और गडकरी के करीबी 10-12 वर्तमान विधायकों के टिकट काट दिए गए. संभव है कि इसी कारण गडकरी खुद-ब-खुद विधानसभा चुनाव को लेकर निष्क्रिय हो गए हों. बहुत संभव है कि बीजेपी की केंद्रीय राजनीति में भी अब गडकरी की भूमिका सीमित होती चली जाए.


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