"ये एक अद्भुत घटना की कहानी है". क्रिस्टोफर ईशरवुड ने श्री रामाकृष्णा की आत्मकथा की शुरुआत कुछ ऐसे ही की थी. भगत सिंह केवल एक महान क्रांतिकारी का नाम नहीं है, भगत सिंह एक अद्भुत घटना का नाम है.



1920 के आखिरी दौर में भगत सिंह का नाम हर जगह छाया हुआ था. 1919 में गांधी राष्ट्रीय परिदृष्य में आए और उन्होंने देश को हिला कर रख दिया. उन्होंने कांग्रेस को एक बड़े संगठन में बदला, असहयोग आंदोलन के जरिए उन्होंने देश को जोड़ा यहां तक कि उत्तरी भारत कुछ राज्यों में उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन को पंगु बना दिया. जवाहर लाल नेहरू समेत उन्होंने कई नेताओं को अपने साथ लिया. भारतीय इतिहास का गांधी युग अच्छी तरह से चल रहा था.इसके बाद भगत सिंह आए, एक युवा जो क्रांति की छाया में पंजाब के लायलपुर जिले में पला-बढ़ा था. ऐसा बताते हैं कि उनके पिता और चाचा समेत परिवार के कई पुरुष सदस्य ग़दर आंदोलन से जुड़े थे. भगत सिंह के बारे कई ऐसी किवदंतियां हैं जिन्हें लोगों द्वारा सच मान लिया गया है. एक कहानी है कि जब भगत सिंह तीन साल के थे तब उन्हें उनके पिता और उनके कुछ क्रांतिकारी साथियों ने घर के बाहर खेत में खुदाई करते देखा. जब भगत सिंह से पूछा गया कि वो क्या कर रहे हैं तो उन्होंने: "मैं बंदूकें बो रहा हूं, जिससे हम अंग्रेजों से छुटकारा पा सकें."

ऐसी ही एक और कहानी है जिसे भगत सिंह जीवनी लिखने वाले कई लेखकों की मान्यता मिली है और राज कुमार संतोषी की फिल्म द लीजेंड ऑफ भगत में भी दिखाया गया है. इस कहानी के मुताबिक भगत सिंह जिनकी उम्र अब 11 साल हो गई है, जलियांवाला बाग जाते हैं जहां एक दिन पहले ही जनरल डायर और उसके सिपाहियों ने हजारों हिंदुस्तानियों पर गोली चलवा दी, इसमें कम से कम 379 लोग मारे गए. भगत सिंह की जीवनी लिखने वाले हंसराज राभर लिखते हैं कि उन्होंने शहीदों के खून सं रंगी मिट्टी अपने माथे पर लगाया और उसे कांच की बोतल में रखा. कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने इस तरह जलियांवाला बाग  अत्याचार का बदला लेने का संकल्प लिया.

यह सभी कहानियां सच हैं या नहीं इसकी चिंता हम प्रत्यक्षवादी मस्तिस्क वाले इतिहासकारों पर छोड़ सकते हैं. यह कहानियां भगत सिंह को एक ऐसे नायक के तौर पर पेश करती हैं जो क्रांति की गोद में पैदा हुए और फिर वहीं पले पढ़े. लेकिन जिस चीज ने भगत सिंह को राष्ट्रीय परिकल्पना में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया वो उनका समृद्ध राजनीतिक जीवन है.  अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआत में भगत सिंह को गांधी जी में श्रद्धा थी लेकिन इसका मोहभंग तब हुआ जब जब महात्मा ने 1922 की शुरुआत में चौरी चौरा की घटना में हिंसा के बाद असहयोग आंदोलन को बंद कर दिया. लाहौर नेशनल कॉलेज में भगत सिंह ने एक अलग तरह की राजनीतिक शिक्षा ग्रहण की. इसके तुरंत बाद वे क्रांतिकारियों के संपर्क में आ गए जो हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़े हुए थे. शायद भगत सिंह के प्रभाव से संगठन का पुनर्जन्म हुआ और इसका नाम हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन पड़ा.

साल 1928 में राजनीतिक पूछताछ के लिए बने साइमन कमीशन के विरोध के दौरान राष्ट्रवादी नायक 'शेर ए पंजाब' लाला लाजपत राय की पुलिस प्रदर्शन के दौरान घायल होने के बाद मौत ने भगत सिंह और उनके साथियों गुस्से में ला दिया. उन्होंने पुलिस अदीक्षक जेम्स स्कॉट में मारनी की योजना बनायी. पहचानने में गलती होने की वजह से उन्होंने उन्होंने जॉन पी. सैन्डर्स को गोली मार दी. सैंडर्स की मौत जिसके लिए कोई शब्द नहीं है ऐसै नैतिक सवाल उठाती है जिसपर भगत सिंह की जीवनी लिखने वाले किसी भी लेखक ने पर्याप्त रूप से नहीं लिखा है.  अपनी आत्मकथा में कुछ साल बाद नेहरूने लिखा: “भगत सिंह पहले प्रसिद्ध नहीं थे. हिंसा या आतंक की एक घटना के कारण वह लोकप्रिय नहीं हुए. हाल के तीस के सालों में समय समय पर भारत में आतंकीवादी फले फूले और आए-गए हैं. बंगाल के शुरुआती दिनों को छोड़कर उनमें से किसी ने भी भगत सिंह की लोकप्रियता का कुछ अंश हासिल नहीं किया. ”

भगत सिंह ने शिवराम राजगुरु, सुखदेव, और चंद्रशेखर आज़ाद की मदद की. वे अपराध स्थल से भाग गए. कैद से बचने के लिए, भगत सिंह ने अपने बाल काटे और दाढ़ी मुंडवा ली. उन्होंने फेडोरा ( एक खास किस्म की हैट) पहनी. इसलिए यह एक राजनीतिक विद्रोही की प्रतिमा बन गई. अगले साल भगत सिंह केंद्रीय विधान सभा में विस्फोट करने के एक बेहद नाटकीय विचार के साथ आए, लेकिन यह ऐसे करना था कि किसी की जान ना जाए. इसके पीछे तर्क दिया गया कि काफी हद तक सही है कि भगत सिंह और उनके साथियों ने चाहा कि उन्हें बंदी बना लिया जाए. विचार यह था कि ब्रिटिश सरकार मुकदमा शुरू करेगी, यह भगत सिंह को ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ सार्वजनिक रूप से अपनी शिकायतों  को रखने के लिए एक मंच देगा.

भगत सिंह ये जानते थे कि इस कदम के साथ ही उनकी मौत निश्चित है. मेरा विश्वास है कि भगत सिंह के हिसाब से बहुत हत्याएं हो चुकी थीं. सॉन्डर्स बले ही औपनिवेशिक शासन का एक प्यादा था और इस तर्क के हिसाब से वह स्कॉट की तरह ही दोषी था; फिर भी, गलत आदमी को मार दिया गया था. जिस भगत सिंह ने किसी की जान ना लेने के इरादे से केंद्रीय विधानसभा में बम फेंका था उसमें जरूर गांधी रहे होंगे.

भगत सिंह सीख लिया होगा कि प्रचार राष्ट्रवादी आंदोलन के ऑक्सीजन के रूप में कैसे कार्य कर सकता है. निस्संदेह उन्होंने राष्ट्रवाद के अपने अध्ययन से यह भी समझा कि गांधी, तिलक और कई अन्य लोगों ने कैसे अदालती कार्यवाही में महारत हासिल की थी और ब्रिटिश की उस विदादित जगह को उन्हीं के खिलाफ इस्तेमाल किया. लेकिन यहाँ दांव पर कुछ और गहरा है: यदि हिंसा हर मोड़ पर अहिंसा को मानने वाले के लिए अनिवार्य रूप से मौजूद है, तो हमें हिंसा के कुछ रूपों के भीतर अहिंसा के बारे में भी सोचना चाहिए जो जीवन के लिए श्रद्धा का संकेत है.

भगत सिंह की इच्छा पूरी हुई, हालांकि कई दिलचस्प मोड़ और हैं लेकिन हमें उन्हें अलग अलग करके देखने की आवश्यकता नहीं है. सिर्फ यह कहना ठीक होगा कि पहले असेंबली में बमबारी और बाद में, सॉन्डर्स हत्या दोनों की मामलों के लिए उन पर मुकदमा चला. सुखदेव, राजगुरू और भगत सिंह को फांसी की सजा हुई. मैंने कहा था कि नेहरू को लगा कि उन्होंने सब कुछ देख लिया है. लेकिन शायद उन्होंने नहीं देखा था क्योकि एक समय तक भगत सिंह की लोकप्रियता गांधी की लोकप्रियता से अधिक थी.  उन्होंने भगत सिंह की लोकप्रियता को "अद्भुत" बताया.

भगत सिंह को मौत के साथ ही उनकी भव्य कथा को नया विस्तार मिल गया. उनकी विरासत से जुड़े कई परेशान करने वाले पहलू हैं, इनमें एक है हिंदू राष्ट्रवादियों द्वारा उन्हें अपना बताने का प्रयास भी एक है. भगत सिंह नास्तिक थे; वह एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट भी थे; और उस उम्र के किसी और शख्स की अपेक्षा उन्होंने अध्ययन भी बहुत ज्यादा किया था.  मुझे संदेह है कि उन्होंने एक राष्ट्रवादी और देशभक्त के बीच अंतर को अच्छी तरह से समझा. हम एक चीज के बारे में निश्चित हो सकते हैं कि वह सब कुछ थे जो आज के हिंदू राष्ट्रवादी नहीं हैं.

विनय लाल UCLA में इतिहास के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हैं. साथ ही वो लेखक, ब्लॉगर और साहित्यिक आलोचक भी हैं. 

वेबसाइटः http://www.history.ucla.edu/faculty/vinay-lal
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ब्लॉगः https://vinaylal.wordpress.com/

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार व आंकड़े लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज ग्रुप सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.)