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BLOG: आवारा पशुओं के ख़तरे- गोरक्षा की राजनीति जारी रही तो पड़ सकती है किसान वोट की भारी चोट

उधर किसानों का आम दुखड़ा ये है कि तमाम निगरानी और रतजगे के बावजूद आवारा पशुओं का हमलावर झुंड हर बार उनकी फसल चट कर जाता है और कई बार उनकी जान तक ले लेता है. किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि आवारा गाय-बैलों-बछड़ों से अपनी फसलों और खुद को कैसे बचाएं, जबकि शासन-प्रशासन की अक्ल गुम है कि सैकड़ों के झुंड में भटक रहे इन पशुओं का आखिर क्या किया जाए!

सड़कों और खेतों में भूख-प्यास से बिलबिलाते घायल आवारा पशुओं की दीनहीन दशा देख कर भारतेंदु हरिश्चंद्र की पंक्तियां थोड़े फेरबदल के साथ मन में उमड़ने-घुमड़ने लगती हैं- 'रोवहु सब मिलिकै आवहु भारत भाई। हा हा! ‘पशुधन’ दुर्दशा न देखी जाई।।' (आधुनिक हिंदी के जनक से क्षमायाचना सहित)

उधर किसानों का आम दुखड़ा ये है कि तमाम निगरानी और रतजगे के बावजूद आवारा पशुओं का हमलावर झुंड हर बार उनकी फसल चट कर जाता है और कई बार उनकी जान तक ले लेता है. किसान समझ नहीं पा रहे हैं कि आवारा गाय-बैलों-बछड़ों से अपनी फसलों और खुद को कैसे बचाएं, जबकि शासन-प्रशासन की अक्ल गुम है कि सैकड़ों के झुंड में भटक रहे इन पशुओं का आखिर क्या किया जाए!

यूं तो आवारा पशुओं की समस्या राष्ट्रव्यापी है मगर उत्तर और मध्य भारत में इसका प्रकोप साल-दर-साल बढ़ता ही जा रहा है; खास तौर पर यूपी में. एक तरफ तथाकथित गोरक्षक दल अनुपयोगी गोवंश को मरने नहीं देना चाहते, तो दूसरी तरफ आवारा पशुओं की बढ़ती आबादी शहर से लेकर गांव तक लोगों का जीना हराम किए हुए है. एक सीधी-सादी सामाजिक और आर्थिक समस्या को जटिल रूप से साम्प्रदायिक और राजनीतिक समस्या बना दिया गया है. चुनावी खंदक और दलीय खुंदक इतनी गहरी है कि सीएम योगी आदित्यनाथ ने 30 दिसंबर को शाहजहांपुर में बयान दे दिया-‘समाजवादी पार्टी के लोग दूध निकालकर खेतों में पशुओं को छुट्‌टा छोड़ देते हैं.’ उनकी नजर में गोवंश की सेवा न कर पाने के अपराध-बोध से ग्रस्त और पाप-पुण्य की दुविधा में उलझा किसान विपक्षी दलों का कार्यकर्ता है! वे समझने को तैयार ही नहीं हैं कि पिछले साल सत्ता संभालते ही उन्होंने बड़े पैमाने पर अवैध बूचड़खाने बंद करने और गोवंश वध पर जो सख्त कानून जारी किया था, सूबे की पशु समस्या को विकराल बनाने में उसका बड़ा योगदान है.

इतना जरूर है कि योगी जी ने यूपी के कोने-कोने में हुए किसानों के उग्र प्रदर्शनों के चलते करोड़ों का फंड जारी करके आवारा गायों के लिए ‘कान्हा उपवन’ खुलवाने शुरू कर दिए हैं. लेकिन कुपित गांववाले इन आश्रय स्थलों में जानलेवा सांड़ भी घुसेड़ जाते हैं. चार दिसंबर को बरेली के नगर निगम आयुक्त ने उत्पाती सांड़ों को बाहर निकालने का आदेश दे दिया तो एक सांड़ ने हाईवे पर जाकर मोटरसाइकिल सवार की जान ले ली. प्रबंधन की कुशलता देखिए कि एक ऐसे ही उपवन में 29 दिसंबर की रात कुछ गाएं ठंड लगने से मर गई थीं और सांड़ों ने बछड़ों को बचाने गए चौकीदार को उठाकर पटक दिया था!

दुर्भाग्य है कि उत्तरोत्तर सरकारों की आर्थिक नीतियों ने किसान और उसके रात-दिन के साथी पशुधन का पुरातन रिश्ता पलट कर रख दिया है! बर्बाद किसानों की सरकारी तंत्र से असंतोष की इंतहा ये है कि मेरठ में उन्होंने सैकड़ों आवारा पशु घेर-घार कर तहसील परिसर में ही घुसा दिए थे. पिछले दिनों अलीगढ़ के तमोतिया और गोरई गांवों में 500-500 आवारा मवेशी एक प्राथमिक विद्यालय और चिकित्सा केंद्र में कैद कर दिए गए. पशुओं से त्रस्त किसान कहीं कलेक्ट्रेट पर पथराव कर रहे हैं तो कहीं माननीय मंत्री जी का घेराव. मध्य प्रदेश में बघेलखंड के लोग रात में गोलबंद होकर आवारा पशुओं को बुंदेलखंड की सीमा के अंदर छोड़ आते हैं, तो बुंदेलखंड वाले उन्हें वापस हांक जाते हैं.

सेवा सहकारी समिति पनगरा (जिला सतना) से जुड़े जागरूक कृषक रविशंकर व्यास आक्रोशित हैं कि पशुओं से फसल की रक्षा के लिए अब गांव वालों को झोपड़ी बनाकर खेतों में दिन-रात बसना पड़ रहा है. सांड़ों को नंदी का अवतार मान कर दूर से ही प्रणाम करने वाले यूपी-बिहार के किसान अब अपने खेतों को ब्लेड वाले तारों से घेरने लगे हैं, ताकि सांड़ चोटिल होकर खुद ही धीरे-धीरे मर जाए और हत्या का पाप न लगे! जबकि मूक पशु सदियों से अहसास करते-कराते आए हैं कि किसानों से बड़ा उनका हितैषी, पालनहार और मित्र कोई नहीं होता; हो भी नहीं सकता क्योंकि ये दोतरफा रिश्ता है. ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोगों को याद ही होगा कि घर की किसी गाय या बैल की मृत्यु पर लोग कैसे रोया करते थे! गोरक्षा के सांस्कृतिक कुल्हाड़े की धार देखिए कि जो मुसलमान मन में धर्म का खयाल लाए बगैर गोवंश पालते थे, खेती और दूध का व्यवसाय करते थे, वे राजस्थान में पहलू खान और झारखंड में अलीमुद्दीन का अंजाम और देश भर में प्रशासन का रवैया देख कर गोवंश से तौबा कर रहे हैं.

पानी सर से गुजर जाने के ये चंद ऊपरी नमूने हैं, समस्या इससे कहीं ज्यादा गहरी है. दरअसल सरकारें खेती को लगातार घाटे का व्यवसाय बनाते हुए किसानों की उपजाऊ जमीनें उद्योगपतियों के हवाले करने और किसानों को भूमिहीन मजदूर बना कर उन्हें शहरीकरण के कूल्हू में जोतने का उपक्रम कर रही हैं. गोशालाएं बेशकीमती भूखंडों पर कब्जा करने, कांजी हाउस चारे के नाम पर धन कमाने और गोरक्षा अवैध वसूली और वोट बरसाने का जरिया बन गई है. बूढ़े और बीमार पशुओं से निजात न पाने देने की ये कैसी कठपुतली राजनीति है कि पहले जो किसान गोवंश को कुछ हजार रुपए में बेच लेते थे, अब उनका कोई खरीदार ढूंढ़े नहीं मिलता. केंद्र सरकार द्वारा पशुओं की खरीद-बिक्री संबंधी नया कानून पास किए जाने के बाद देश के पशु बाजार भी दम तोड़ चुके हैं. आवारा पशुओं का बोझ राजस्थान, हरियाणा, मध्य प्रदेश, यूपी और बिहार के किसान सबसे ज्यादा ढो रहे हैं.

आवारा मवेशियों की समस्या का मूल कारण पशुधन की उपयोगिता लगातार घटते जाने से कृषक समाज में उपजा घोर असंतुलन है. हजारों की संख्या में गोशालाएं या कांजी हाउस खोल देना इसका उसी तरह से समाधान नहीं है, जैसे कि घर के बुजुर्गों से छुटकारा पाने के लिए उन्हें वृद्धाश्रम में ठेल देना. धन और उचित प्रबंधन के अभाव में जहां-तहां खुली गोशालाएं चार दिन की चांदनी से अधिक कुछ साबित नहीं होंगी. तर्क यह भी दिया जाता है कि आवारा पशु आसमान से तो नहीं टपके हैं, किसान अपने-अपने पशु संभाल कर क्यों नहीं रखते? लेकिन हमें इस हकीकत से आंख नहीं मूंदना चाहिए कि घर में मजदूर या कोई हाथ बंटाने वाला न मिलने के चलते किसान गाय से दूध देना बंद करते ही छुटकारा पा लेना चाहता है, क्योंकि भूसा-चारा, पानी-सानी, खली-चूनी के अभाव में पशुधन उसके लिए सरदर्द बन जाता है. शासकीय भूमि के अनाप-शनाप आवंटन के चलते आज गांवों में पशुओं के खड़े होने तक की जमीन नहीं बची है.

आज बछड़े पालना भी घाटे का सौदा बन गया है क्योंकि मात्र एक ट्रैक्टर बीस बैलों को अनुपयोगी बना देता है. चूंकि ट्रैक्टर डीजल पीता है इसलिए किसान चारा-भूसा-पुआल खेतों में ही छोड़ आता है. अधिकतर राज्यों में सिंचाई, जुताई, गोड़ाई, बुवाई, कटाई, मंड़ाई, ढुलाई, पेराई सब मशीनों से होने लगी है. लेकिन इन तकनीकी बदलावों से अनभिज्ञ और निरपेक्ष भूखे-प्यासे मवेशी बार-बार फसलों पर टूट पड़ते हैं. गोपालक भारत की खेतिहर संस्कृति का यह दुष्चक्र किसान के जीवन में गोवंश की लाभकारी वापसी करवा कर ही टाला जा सकता है. इसके लिए सरकारों को गोवंश की कार्यक्षमता तथा दूध, गोबर, मूत्र जैसे उनके गुणकारी उत्पादों के व्यावसायिक उपयोग और मार्केटिंग की प्रभावी रणनीति बनानी होगी. अगर आस्था के नाम पर की जा रही गोरक्षा की थोथी राजनीति के फलस्वरूप आवारा पशुओं की विनाशकारी आबादी इसी तरह बढ़ती रही, तो इससे प्रभावित किसान वोट की तगड़ी चोट तो पहुंचा ही सकता है!

(नोट- उपरोक्त दिए गए विचार और आंकड़े लेखक द्वारा व्यक्तिगत तौर पर दिए गए हैं. ये जरूरी नहीं कि एबीपी न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्तियों के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार हैं.)

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