राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) एक बार फिर अपनी औकात पर उतर आई है! जब मनसे सुर्ख़ियों में होती है तो किसी महान कार्य की वजह से नहीं बल्कि इसका मतलब यह होता है कि पार्टी किसी तरह लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहती है. चूंकि ऐसा करने का सबसे आसान तरीका कोई हंगामा खड़ा कर देना है इसलिए पार्टी ने एक बार फिर अशक्त फेरीवालों को निशाना बनाया है. वैसे भी अपने घोर मराठीहितैषी होने का दावा मजबूत करने के लिए मनसे बीच-बीच में न सिर्फ मुंबई और उसके आस-पास बल्कि समूचे महाराष्ट्र में यूपी-बिहार वालों को पीटने के लिए खोजती रहती है. अभी पिछ्ली 10-11 अक्तूबर को ही सांगली की कुपवड़ स्थित एमआईडीसी में स्थानीय लोगों को काम देने में प्राथमिकता की मांग करते हुए मनसे के गुंडों ने दर्जनों उत्तरभारतीयों के सर फोड़ डाले थे! बीते शनिवार को मनसे कार्यकर्ताओं ने ठाणे और कल्याण रेलवे स्टेशनों के बाहर फेरीवालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा.


आम तौर पर मराठी माणूस का मुद्दा उछालने और भुनाने की कोशिश करने वाली मनसे ने इस बार मुंबईकरों का मुद्दा उठाया है. पिछले दिनों मुंबई के एल्फिन्स्टन रोड रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ की घटना में 20 से अधिक लोगों की मौत के बाद मनसे ने चेतावनी दी थी कि यदि 15 दिनों के भीतर उपनगरीय रेलवे स्टेशनों के बाहर से फेरीवालों को नहीं हटाया गया तो वह इनसे 'अपनी ही शैली में' निपटेगी. शनिवार को 15 दिनों की 'डेडलाइन' पूरी होने के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं ने दो उपनगरीय स्टेशनों के बाहर जमकर उत्पात मचाया. मनसे ने ऐसा पहली बार नहीं किया और उसकी राजनीति देखते हुए कहा जा सकता है कि यह आखिरी बार भी नहीं है. पर इस तरह की राजनीतिक गुंडागर्दी की घटनाएं यह सवाल उठाने पर मजबूर करती हैं कि आखिर मुंबई समेत महाराष्ट्र में किसका राज चल रहा है? क्योंकि और कुछ भी हो इसे क़ानून का राज तो नहीं ही कहा जा सकता.


घटना को  'उत्तर भारतीय बनाम मराठी' का रंग देने की कोशिश 


इस घटना में और पिछली घटनाओं (मुख्य रूप से 2008 में उत्तर भारतीयों, खासकर बिहारियों पर मनसे के हिंसक हमलों) में फर्क यह है कि इस बार बाकायदा चेतावनी देकर फेरीवालों को निशाना बनाया गया. इसलिए बीजेपी की देवेन्द्र फडणवीस सरकार यह 'सुविधाजनक' बहाना भी नहीं बना सकती कि सब कुछ अचानक हुआ या उसे ऐसी कोई आशंका नहीं थी. बीजेपी पर अपनी सहयोगी लेकिन मुख्य विपक्षी दल की भूमिका निभाती शिवसेना पर अंकुश बनाए रखने के लिए मनसे के इस्तेमाल के आरोप नए नहीं हैं. खैर, इस बार मनसे को एक और सहूलियत हासिल है कि रेलवे स्टेशनों के पुलों अथवा बाहर धंधा करने वाले फेरीवाले अवैध हैं. इसलिए रेलवे तथा महानगरपालिका प्रशासन के लिए मनसे की दादागिरी का विरोध करने का अभिनय करने की भी ज़रूरत नहीं है. इसी तरह विपक्षी राजनीतिक दलों, उदाहरण के लिए कांग्रेस की प्रतिक्रिया भी रक्षात्मक है. मुंबई कांग्रेस ने कहा है- "अवैध फेरीवालों का समर्थन हम भी नहीं करते लेकिन इस तरह की गुंडागर्दी या हिंसा का विरोध करते हैं."


कुछ लोग इसे 'उत्तर भारतीय बनाम मराठी' का रंग देने की कोशिश कर रहे हैं पर ऐसी कोशिश मनसे को फायदा ही पहुंचाएगी क्योंकि वास्तव में यह मुद्दा "मराठी बनाम गैरमराठी" है ही नहीं. यह सही है कि अधिकांश फेरीवाले गैरमराठी हैं पर ऐसा भी नहीं है कि मराठी फेरीवाले हैं ही नहीं. इसी तरह एल्फिन्स्टन रोड स्टेशन पर हुई दुर्घटना में मरने वाले सिर्फ मराठी ही नहीं थे. दूसरी बात, मनसे की जो "शैली" है वह हमेशा सॉफ्ट टारगेट चुनने की है. यानी धोबी से न जीत पाओ तो गधे के कान मरोड़ो! अब एक फेरीवाला, जब गुंडे आतंक मचा रहे हों, उसकी हाथगाड़ी/ठेला तोड़ रहे हों, उसका सामान फेक रहे हों तो वह क्या प्रतिकार करेगा!


लगातार हार से शिवसेना में शामिल हो रहे हैं कार्यकर्ता


इस बीच एक और घटना हुई जिसने तेजी से प्रासंगिकता खो रही मनसे को कुछ ऐसा करने को मजबूर किया है कि पार्टी चर्चा में आ जाए. घटना यह थी कि मुंबई महानगरपालिका में मौजूद उसके कुल सात में से छह पार्षद शिवसेना ने छीन लिए. यह पार्टी के लिए बड़ा झटका था और इस झटके से उबरने के लिए उसे ऐसे किसी शिगूफे की सख्त जरूरत थी.


करीब एक दशक पहले जब शिवसेना से अलग होकर राज ठाकरे ने मनसे बनायी थी तो ऐसा संकेत दिया था कि पार्टी शिवसेना के कोर वोटर मराठीभाषियों के अलावा दलितों, मुस्लिमों समेत सबको साथ लेकर चलेगी. लेकिन 2008 में जया बच्चन के यह कहने पर "राज ठाकरे कौन है मैं नहीं जानती" भड़के राज ठाकरे के गुंडों की फ़ौज ने उत्तर भारतीयों को निशाना बनाया और फिर रेलवे परीक्षा में बिहारियों को कथित रूप से बढ़ावा देने के विरोध में कल्याण स्टेशन पर रेलवे बोर्ड की परीक्षा के लिए आये बिहारी छात्रों को मनसे के गुंडों ने पीटा, तो उसे लगा कि पार्टी की "लोकप्रियता' बढ़ गयी. बाद के चुनावों में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन भी किया और मुंबई, पुणे, नासिक जैसी कई जगहों में इसे सफलता भी मिलने लगी. 2009 के लोकसभा चुनाव में, खासकर मुंबई में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहा और भले पार्टी खुद कोई सीट नहीं जीत पाई लेकिन सभी छहों सीटों पर शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के प्रत्याशी हार गए. बौखलाई शिवसेना ने मराठीभाषियों को यह समझाना शुरू कर दिया कि मनसे को वोट देने का मतलब है कांग्रेस-एनसीपी को जिताना. इसके बाद से ही मनसे का पतन शुरू हो गया.


पार्टी की स्थानीय निकायों से लेकर महानगरपालिकाओं और विधानसभा चुनावों में हो रही लगातार हार देख कर कई नेताओं/कार्यकर्ताओं ने 'घरवापसी' यानी शिवसेना में लौटना शुरू कर दिया. आज की तारीख में मनसे को अपने पैरों तले से जमीन खिसक जाने का पूर्ण अहसास हो गया है. नतीजा, उसने खुद की प्रासंगिकता बरकरार रखने के लिए मारधाड़ वाली पुरानी शैली अपना ली है. हालांकि यह तभी सफल हो सकती है जब वर्तमान सरकार उसकी इन हरकतों से मुंह फेर ले और उसे मनमानी करने दे.

बीजेपी सरकार मनसे के साथ खेल रही है खतरनाक खेल


यह भी स्पष्ट है कि महाराष्ट्र की बीजेपी नीत सरकार मनसे के साथ वही खतरनाक खेल खेल रही है जैसा कभी कांग्रेस शिवसेना को लेकर खेला करती थी. नतीजा सबके सामने है. मनसे के ताजा तेवर देखते हुए इसलिए भी सावधान हो जाने की जरूरत है कि बिहारियों का सबसे बड़ा और पवित्र त्योहार छठ करीब है और मनसे मुंबई की छठ पूजा में विघ्न डालने के लिए कटिबद्ध रहती है. अब यह फडणवीस सरकार को सोचना और देखना है कि वह शिवसेना को कमजोर करने के इरादे से मूकदर्शक बनकर तमाम गुंडागर्दी सहन करते हुए मनसे को बढ़ावा देने की राजनीति करेगी या सूबे और राजधानी में कानून-व्यवस्था का राज कायम करेगी.


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