यूपी में विधानसभा चुनाव की हवा जैसे-जैसे गर्म होती जा रही है, अंदरख़ाने में गठबंधनों की संभावनाओं को टटोलने की क़वायद शुरू हो गई है. हाल ही में कांग्रेस के चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर के सपासुप्रीमो मुलायम सिंह यादव से दो-दो बार मुलाक़ात करने से इन अटकलों को और भी बल मिला है.

यह बात और है ऊपरख़ाने कोई पार्टी इसे जाहिर नहीं करना चाहती और अपने दम पर अकेले चुनावी समर में उतरने के दावे हवा में लहराए जा रहे हैं. लेकिन कोई पसंद करे या न करे, आज की ज़मीनी हकीक़त यह है कि भाजपा को छोड़ तकरीबन सभी प्रमुख सियासी दलों का डर यह है कि इस वक़्त गठबंधन का जिक्र छेड़ने से उनकी चुनावी रंगत ही बेरंग हो जाएगी.  सूबे में भाजपा ही ऐसी पार्टी है जो सर्वेक्षणों के पूर्वानुमान से उत्साहित है और उसे कम से कम चुनाव से पहले तो ऐलानिया तौर पर किसी गठबंधन की ज़रूरत नज़र नहीं आ रही.

अगर पार्टी के नेता इस बात की ज़रूरत महसूस कर भी रहे होंगे तो भी वे अच्छी तरह से जानते हैं कि यूपी में भाजपा से जल्दी कोई हाथ नहीं मिलाएगा, दूसरे अपनी कमज़ोरी दिखाने से कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट जाएगा, तीसरे विपक्षी दलों को खुलकर हमला करने का मौक़ा मिल जाएगा. मौजूदा सूरत-ए-हाल में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का दावा कमज़ोर इसलिए नहीं कहा जा सकता कि यूपी में पिछले 5 वर्षों के दौरान यादवों को छोड़ दें तो दलित, ओबीसी, गैरयादव ओबीसी, अतिपिछड़ा और मुसलमान मतदाताओं का मोहभंग बड़े पैमाने पर हुआ है. रहा सामान्य वर्ग, तो वह इस बार भाजपा का साथ देने का मन बनाता दिख रहा है... और यदि सपा में दो-फाड़ हुई तो तथाकथित ठोस यादव वोटर भी द्रव में बदल जाएगा.

समाजवादी पार्टी का बिखरता शीराजा इस बात का स्पष्ट संकेत दे रहा है कि मात्र अपनी साफ-सुथरी छवि तथा युवा सीएम होने के बल पर अखिलेश यादव यूपी की चुनावी वैतरणी पार नहीं कर सकते. इसके लिए उन्हें पिता मुलायम सिंह यादव और पार्टी संगठन की सख़्त ज़रूरत होगी. लेकिन संगठन पर मजबूत पकड़ रखने वाले चाचा शिवपाल यादव और भतीजे अखिलेश के बीच जिस तरह से तलवारें खिंची हुई हैं, उससे रामायण कम और महाभारत की भूमिका ज़्यादा बनती दिख रही है. यह यूपी में सपा के पतन का कारण भी बन सकती है. सपा की लगातार कमज़ोर होती जा रही स्थिति का फायदा निश्चित ही भाजपा को मिलेगा. इसकी वजह यह है कि सपा से ठीक पहले यूपी की जनता ने बसपा का राज झेला था और उससे पैदा हुई बेज़ारियां अभी ख़ुशफहमी में नहीं बदली हैं.

हालांकि एक पूर्व भाजपा नेता द्वारा मायावती को दी गई गाली और हाल ही में संपन्न मायावती की रैलियों के चलते बसपा के जनसमर्थन का ग्राफ बढ़ता दिखाई दे रहा है. इसके बावजूद बसपा की चिंताएं बढ़ने की एक बड़ी वजह यह है कि 2014 के आम चुनाव की मोदी लहर में जब पूर्वी यूपी के गोरखपुर तथा पश्चिमी यूपी के सहारनपुर जैसे इलाकों में दलित मतदाताओं से पूछा गया था कि वे विधानसभा चुनावों में किसे वोट देंगे तो उनमें से आधे भाजपा और आधे बसपा के पक्ष में नज़र आए थे.

आम चुनाव को अभी दो साल ही गुज़रे हैं. अगर यूपी के 20% दलित वोटर भी भाजपा की झोली में आ गए तो बसपा के साइलेंट वोटर वाला तिलिस्म टूट जाएगा. यूपी में बसपा की लीडरशिप भी उजड़ चुकी है. हवा का रुख भांपते हुए मायावती के सेनापति भाजपा के ख़ेमे में चले गए हैं. आज से 10 साल पहले मायावती को सीएम बनाने में कैटेलिस्ट की भूमिका निभाने वाले द्विजगण भी इस बार उनके खिलाफ़ मंत्रोच्चार कर रहे हैं!

कांग्रेस तो यूपी की सियासत में स्ट्रेचर पर पड़ी आईसीयू में दाख़िल होने का जतन कर रही है. कांग्रेस की एक बड़ी और ख़ानदानी नेत्री रीता बहुगुणा भाजपा में शामिल हो चुकी हैं. ऐसे में कांग्रेस अंदरख़ाने में नहीं बल्कि ऊपरख़ाने में प्रयास करेगी कि राहुल गांधी, शीला दीक्षित और राज बब्बर का ज़ोर-जतन थोड़ा भी रंग लाए तो वह स्थिति के मुताबिक सपा या बसपा गठबंधन का घटक बन जाए. बसपा तो उसे हाथ नहीं रखने देगी लेकिन सपा से उसकी बातचीत के क़िस्से आम हैं. सपा यादव बिरादरी के झगड़े में उलझी है. यादवों से पिछड़ी जातियां ख़फ़ा हैं क्योंकि सपा के शासनकाल में अधिकांश भर्तियां यादवों की भेंट चढ़ गईं और उनके हिस्से कुछ नहीं आया! उनका ग़ुस्सा इस बार सपा पर अवश्य निकलेगा.

सपा और बसपा के लिए राहत की बात मात्र इतनी है कि मुसलमान मतदाता कांग्रेस की कमज़ोरी के मद्देनज़र उनकी सापेक्ष मजबूती देखते हुए किसी एक की तरफ बड़े पैमाने पर झुक सकता है. लेकिन यूपी में इन दिनों साफ नज़र आ रहा है कि गैरयादव पिछड़ी जातियों के मतदाताओं के लिए 71 लोकसभा सीटों की यूपी केसरी बनी हुई भाजपा चुंबक बनी हुई है. यह मुसलिम मतदाताओं के रुझान को शून्य कर देगा. इस पसमंजर में बहुत संभव है कि यूपी के सभी प्रमुख दल भाजपा के खिलाफ़ महागठबंधन बनाने की जुगत भी भिड़ाते दिखें. लेकिन यूपी में बिहार तर्ज़ पर महागठबंधन बनाना असंभव है.

यहां जेडीयू और आरजेडी की तरह सपा और बसपा के समीकरण नहीं हैं. इसके अलावा बिहार के राजनीतिक भूगोल से अलग यूपी में पूर्वी उत्तरप्रदेश, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बुंदेलखंड, अवध और रुहेलखंड जैसे अलग-अलग समीकरण बनाने वाले इलाक़े हैं जो हर राजनीतिक दल के लिए निर्णायक भूमिका निभाते हैं. फिलहाल उत्तर प्रदेश में जो हवा चल रही है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि गठबंधन या महागठबंधन बने या न बने, मुक़ाबला भाजपा वर्सेस रेस्ट है.

लेखक से ट्विटर पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/VijayshankarC और फेसबुक पर जुड़ने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/vijayshankar.chaturvedi